माँ की यादों के सघन रेशमी आँचल में
इस बार 'शेष है अवशेष' ब्लॉग की चर्चा
ब्लॉग की दुनिया में अनुराग अन्वेषी का ब्लॉग 'शेष है अवशेष' एक अलहदा ब्लॉग है। और यह ब्लॉग भूलने के विरुद्ध है। यह ब्लॉग याद रखने का है। इस ब्लॉग पर अनुराग अपनी माँ को याद करते हैं। बार-बार याद करते हैं। कई तरह से याद करते हैं। जीवन की धूप-छाँव में याद रखते हैं। यहाँ वे अपनी माँ को उन दिनों में ज्यादा याद रखते हैं जब वे एक जानलेवा बीमारी से जूझ रही थीं। ये यादें आशा-निराशा के बीच किसी-किसी लहरों की तरह आती-जाती आपको भी भिगो जाती हैं। माँ की ये यादें वे बंद खिड़कियाँ खोल देती हैं जहाँ से हवाएँ, धूप, खुशबू सब माँ की दुनिया से होकर आपके कमरे तक आ जाती हैं। इनके साथ वे धूसर रंग और धीरे-धीरे गहरा होता अँधेरा भी आकर किसी कोने में बैठ जाता है जिसमें बेहद पीड़ादायक यादें अपनी आँखें खोलकर हमें देखने लगती हैं। यह ब्लॉग अनुराग ने अपनी स्वर्गीय माँ श्रीमती शैलप्रिया के रचनाकर्म और उनकी स्मृतियों पर एकाग्र किया है लेकिन इसकी खूबी यह है कि इस पर अनुराग के भाई और बहन ने भी अपनी तरह से अपनी माँ को याद किया। अनुराग के पिता श्री विद्याभूषणजी ने भी अपनी जीवन संगिनी के संस्मरण दर्ज किए हैं। वस्तुतः इस ब्लॉग को पढ़ना दुनिया के उस रिश्ते के महीन रेशों को समझना-बूझना और महसूसना है जो माँ-बेटे का रिश्ता होता है। अनुराग के इस ब्लॉग को पढ़ना इस बात पर फिर से भरोसा कर लेना है कि इस सब कुछ भुला दिए जाने वाले संसार में अभी भी सब कुछ याद कर लिया जाना भी शेष है। सब कुछ खत्म हो जाने के बावजूद माँ के जरिये, माँ की यादों के जरिये सब कुछ बचा लिया जाना भी बचा रहेगा।
माँ से जुड़ी हर छोटी-बड़ी यादों को बचा लिया जाना एक मूल्य को भी बचा लिया जाना है। एक रिश्ते के त्याग और तपस्या को ऊँचा स्थान देना या कि माँ की कविताएँ पोस्ट कर माँ के रचनाकर्म को सम्मान देना है। इस ब्लॉग के पीछे जो भाव और श्रद्धा छिपी है वह बताती है कि अपनी माँ को किस तरह से बेटे-बेटी याद करते हैं और उन यादों को अपनी मन-मंजूषा में सँजोए हुए हैं। अनुराग अपनी एक पोस्ट में लिखते हैं कि - शायद कुछ और लिखने के इरादे से यह लेख शुरू किया था, मगर कुछ और लिखता चला गया। माँ तक पहुँचने की कोशिश कई बार की, मगर हर बार डर गया। उसके आसपास से, अगल-बगल से निकल गया। क्या ऐसा ही होता है? जिसे हम जानते हैं, उसके बारे में बताना मुश्किल होता है। क्योंकि जानना शायद शब्दों से परे की क्रिया है। या मन के कई दरवाजे ऐसे होते हैं, जिनकी कुंजी शब्दों के पास भी नहीं होती। शब्द दस्तक देते हैं, और लौट आते हैं।माँ.. बस... माँ... है। इससे ज्यादा बताना मेरे लिए मुमकिन नहीं! और वे अपने पराग भइया (प्रियदर्शन) के संस्मरण भी पोस्ट करते हैं। एक पोस्ट में प्रियदर्शन ने अपनी माँ पर मार्मिक संस्मरण लिखे हैं।
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इस ब्लॉग पर जाना ऐसा लगता है जैसे हम अपनी ही माँ के उस कमरे में से होकर आ रहे हैं जो उनके जाने के बाद अक्सर ही अंधेरे में बंद रहता है। और हम इसमें जाकर एक बार फिर अपनी माँ को पा लेते हैं, उसकी यादों के आँचल में मचल जाते हैं। |
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वे लिखते हैं- मेरे भीतर एक दरवाजा बार-बार खुलने को होता है और बार-बार मैं उसे बंद करना चाहता हूँ।इस दरवाजे के भीतर की दुनिया में माँ है। वह बाहर की दुनिया छोड़ गई है। हालाँकि अब भी मुझे यकीन नहीं होता। या मैं यकीन करना नहीं चाहता। इसीलिए वह दरवाजा खोलने से डरता हूँ। लगता है भीतर एक पानी का रेला है जो मुझे बहाकर ले जाएगा। इसके अलावा अनुराग अपनी बहन रेमी (अनामिका ) के संस्मरण भी देते हैं और और पिता के भी। लेकिन इस ब्लॉग का खास आकर्षण है उनकी माँ श्रीमती शैलप्रिया की कविताएँ। अपने लिए, चाँदनी आग है, घर की तलाश में यात्रा और शेष है अवशेष संग्रह की चुनिंदा कविताएँ इस ब्लॉग पर पढ़ी जा सकती हैं। यहाँ अनियतकालीन पत्रिका प्रसंग के उस अंक से सामग्री भी दी गई है जो श्रीमती शैलप्रिया पर एकाग्र है। उनकी एक कविता पर गौर करें- साक्षी जिस अग्नि को साक्षी मान करशपथ लेते हैं लोग,उस पर ठंडी राख की परतेंजम जाती हैं।मन की गलियों मेंभटकती हैं तृष्णाएँ।मगर इस अंधी दौड़ मेंकोई पुरस्कार नहीं।उम्र की ढलती चट्टान परसुनहरे केशों की मालाटूटती है।आँखों का सन्नाटापर्वोल्लास का सुखनहीं पहुँचाता।मगर एक अजन्मे सुख के लिएमरना नादानी है,जिंदगी भँवर में उतरतीनाव की कहानी है।जाहिर है इस जैसी कई कविताएँ एक स्त्री के सुख-दुःख को बहुत ही बेलौस ढंग से व्यक्त करती हैं। उनकी कविताएँ मन की बात कहने की बेचैनी है। इसके लिए वे कोई कटी-छँटी मुद्राएँ नहीं अपनाती बल्कि अपनी पीड़ा को, दुःख को कहीं भीतरी परतों में बहते छल-छल सुख को बहुत ही सादा ढंग से अभिव्यक्त कर जाती हैं। इन कविताओं को पढ़ना एक स्त्री के आत्मसंघर्ष से रूबरू होना भी है।
अनुराग अपने परिचय में कहते हैं कि -हमेशा कोशिश होती है कि कुछ नया करूँ, कुछ अलग करूँ। कुछ ऐसा रचूँ, जो ख़ुद के जी के साथ-साथ दूसरों के मन को भी भाए। मुझे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह कविता बेहद लुभाती है : '
लीक पर वे चलें जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं। हमें तो जो हमारी यात्रा से बने ऐसे अनिर्मित पथ प्यारे हैं।' जाहिर है, मेरा मन हमेशा अपने अनगढ़ तरीके से बनाए रास्ते को पसंद करता है पर दूसरों की कोई सलाह या सुझाव रास आ जाए तो उसे स्वीकार भी करता है और उस पर अमल भी। शायद उनका यह ब्लॉग उनके नई राह और अलग राह पर चलने की जिद का एक सार्थक परिणाम है। इसी पर उन्होंने अपनी माँ की एक और मार्मिक कविता पोस्ट की है। -कैसे बीत जाते हैं! प्यार और खुमार में डूबे हुए,मीठे मनुहारों-से रूठे हुए,उजले फव्वारों-से भीगे हुए,कैसे बीत जाते हैं वर्ष!चक्की के पाटों में पिसे हुए,जिंदगी के जुए में जुते हुए,भारी चट्टानों से दबे हुए,कैसे बीत जाते हैं वर्ष!मौसम की चौरंगी चादर-सेबोरों में भरे हुए दुःख,मुट्ठी भर हर्षविजय पराजय के नाम के संघर्ष,कैसे बीत जाते हैं वर्ष!टूटे संबंधों के धागे-से,दूर की यात्रा में संगी-से,कैसे बीत जाते हैं वर्ष!कितनी मार्मिक और जीवन रस से छल-छल कविता है यह। इस ब्लॉग पर जाना ऐसा लगता है जैसे हम अपनी ही माँ के उस कमरे में से होकर आ रहे हैं जो उनके जाने के बाद अक्सर ही अंधेरे में बंद रहता है। और हम इसमें जाकर एक बार फिर अपनी माँ को पा लेते हैं, उसकी यादों के आँचल में मचल जाते हैं, उसके स्नेहाशीष में भीग जाते हैं। किसी भी माँ से मिलना अपनी माँ से मिलने जैसा लगता है। क्या आप भी अपनी माँ से मिलना नहीं चाहेंगे। यदि हाँ, तो यहाँ जरा धैर्य के साथ हो आइए। ये रहा माँ का पता-http://shailpriya.blogspot.com