वह व्यक्ति है विचित्र जिसका नहीं है कोई मित्र
अत्यंत गरीबी में दिन गुजार रहे सुदामा के परिवार को कई बार भूखे पेट ही सोना पड़ता था। इसके बावजूद वे किसी से कुछ नहीं माँगते थे। एक बार उनकी पत्नी हिम्मत करके बोली- स्वामी, द्वारिकाधीश कृष्ण आपके मित्र हैं। उनके पास जाकर तो देखें, वे जरूर हमारी सहायता करेंगे। सुदामा- तुम्हारी बात सही है, लेकिन अब वह बचपन के सखा को पहचानेगा भी या नहीं। बाद में पत्नी के जोर देने पर वे इस शर्त पर जाने के लिए तैयार हो गए कि वे माँगेंगे कुछ नहीं। जाते समय पत्नी ने कृष्ण को भेंट करने के लिए थोड़ा-सा चिवड़ा एक पोटली में बाँधकर सुदामा को दे दिया। उसे लेकर वे द्वारिका पहुँच गए। राजमहल पहुँचकर उन्होंने कृष्ण से मिलने की इच्छा द्वारपाल को बताई तो उसे विश्वास नहीं हुआ कि यह फटेहाल ब्राह्मण कृष्ण का मित्र हो सकता है। फिर भी उसने कृष्ण को जब यह खबर दी तो वे सुध-बुध खोकर नंगे पाँव द्वार की ओर भागे और सुदामा को हृदय से लगा लिया। बाद में खुद अपने हाथों से सुदामा के फटे पैर धोकर उनकी थकान मिटाने के बाद बोले- मित्र, मेरे लिए क्या भेंट लाए हो? इस पर सुदामा पोटली छिपाने लगे। बालसखा का ऐश्वर्य देखकर उन्हें वह भेंट देने की उनकी हिम्मत ही नहीं हो रही थी। लेकिन कृष्ण ने उस पोटली को देख लिया और उसे छीनकर उसमें से एक मुट्ठी चिवड़ा लेकर खाने लगे। दूसरी मुट्ठी खाने से पहले ही रुक्मिणी ने उन्हें रोक दिया क्योंकि एक मुट्ठी से ही सुदामा के दोनों लोक सुधर चुके थे। अगले दिन सुदामा कृष्ण से बिना कुछ माँगे घर लौट गए। जब वे घर पहुँचेतो वहाँ अपनी कुटिया की जगह एक महल खड़ा देखकर उन्हें समझते देर न लगी कि उनके मित्र ने बिना कुछ माँगे ही बहुत कुछ दे दिया है।
दोस्तो, यदि दोस्त को भी यह बताना पड़े कि आपके मन में क्या चल रहा है तो फिर काहे की दोस्ती। वह तो आपके चेहरे को देखकर बिना कुछ बताए ही आपके सुख-दुःख को जान-समझ लेता है, जैसे कि कृष्ण ने समझ लिया। इस तरह कृष्ण मित्रता की कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरे, क्योंकि मित्र वही है, जो मुसीबत में काम आए। वह अपना हाथ आगे बढ़ाए, हाथ छुड़ाकर भागे नहीं। वो कहते हैं न कि 'वक्त पड़े पर जानिए, को बैरी, को मीत।' दोस्ती का यह कायदा भी है कि जब भी दोस्त को कुछ जरूरत हो, तो उसे कल पर न टाला जाए। उसकी माँग को अपनी क्षमता के अनुरूप तुरंत पूरा करना चाहिए। ऐसे में टालमटोल वे लोग करते हैं, जिनकी दोस्ती सिर्फ नाम की होती है। दूसरी ओर, दोस्ती में अमीरी-गरीबी नहीं देखी जाती। आप कितने ही बड़े आदमी हों या बन जाएँ, आपके दोस्त के लिए तो आप वही रहेंगे और रहना भी चाहिए। एक दोस्त ही तो होता है जिसके कि सामने व्यक्ति अपने असली रूप में रहता है, क्योंकि उसके सामने उसे कोई अभिनय या दिखावा जो नहीं करना पड़ता, बोलते समय आगा-पीछा नहीं देखना-सोचना पड़ता। इसलिए कहा गया है कि वह व्यक्ति विचित्र है, जिसका कोई मित्र नहीं है। यदि आप अपनी असलियत जानना चाहते हैं तो असली या सच्चे मित्र बनाएँ, क्योंकि तब आपको किसी आईने की जरूरत नहीं होगी। अपने मित्र की आँखों में आपको अपना असली रूप दिखाई दे जाएगा या फिर वह दिखा देगा। तभी तो दोस्त को आईने की संज्ञा दी गई है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि आप भी सच्चे दिल से अपनी दोस्ती को निभाएँ। और अंत में, आज 'फ्रेंडशिप डे' है। कहते हैं- मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु। यदि आप अपना भला चाहते हैं तो खुद से दोस्ती करें। तब आप कभी ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे आपका नुकसान हो और दुश्मन का काम बैठे-बिठाए ही बन जाए। खुद से सच्ची दोस्ती निभाने के लिए जरूरी है कि दुर्गुणों और दुर्व्यसनों से बचकर रहा जाए। कुल मिलाकर आप बुराइयों से दुश्मनी रखेंगे, तो आपका बुरा चाहने वाले आपका कभी कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगे। खैर, आज का दिन आपने अपने दोस्तों के नाम कर रखा होगा। और यदि नहीं किया है, तो कर दें। अरे भई, दुश्मनों में भी दोस्तों जैसी बात होती है, जिनके कारण हम हमेशा सावधान रहकर गलतियाँ करने से बच जाते हैं।