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Written By ND

तिपिटक में बुद्ध की धर्मवाणी संग्रहित

तिपिटक में बुद्ध की धर्मवाणी संग्रहित -
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तिपिटक में मुख्यतया भगवान बुद्ध की धर्मवाणी संग्रहित है, जो साधारणतया मानव मात्र के लिए और विशेषतया विपश्यी साधकों के लिए प्रभूत पावन प्रेरणा और महामांगलिक मार्गदर्शन लिए हुए है। संपूर्ण तिपिटक में 84,000 धर्म शिक्षापद (धर्म स्कंध) हैं जिनमें 82,000 भगवान बुद्ध के और 2,000 उन भिक्षुओं के हैं, जो भगवान के परम शिष्य थे।

महास्थविर आनंद ने कहा है- मैंने 82,000 उपदेश भगवान से ग्रहण किए हैं और 2,000 भिक्षुओं से। इस प्रकार मुझे 84,000 उपदेश याद हैं, जो मुझे धर्म की ओर प्रवृत्त करते हैं।

- भिक्षुओं की वाणी में भी भगवान की वाणी ही समाई हुई है। उन्होंने जो कुछ कहा, भगवान से सीखकर ही कहा। इस विषय में आयुष्मान उत्तर का कथन है- हे देवेन्द्र जो सुभाषित हैं, वे सब उन भगवान अरहंत सम्यक संबुद्ध के हैं। उन्हीं से ले-लेकर हम तथा अन्य बोलते हैं।

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- उन्होंने जो कुछ भगवान से सुना, सीखा और अपने अनुभव पर उतारा, वही कहा। जिस प्रकार भगवान तथागत 'यथावादी तथा कारी' थे, वैसे ही उनके ये प्रबुद्ध शिष्य भी थे। इसलिए इन संतों की वाणी भी बुद्ध वाणी के सदृश्य ही अत्यंत गरिमामयी है। स्वयं अनुभूत सत्य वाणी है अतः सारे तिपिटक को बुद्ध-वाणी कहना समीचीन ही है।

तिपिटक का संपादन, संगायन : तथागत द्वारा उपदेशित सद्धर्म को शुद्ध रूप में चिरस्थायी रखने के लिए स्वयं तथागत ने यह आदेश दिया था- ...जिन धर्मों को मैंने स्वयं अभिज्ञात करके तुम्हें उपदेशित किया है, तुम सब मिल-जुलकर बिना विवाद किए अर्थ और व्यंजन सहित उनका संगायन करो जिससे कि यह धर्माचरण चिरस्थायी हो...।

अतः भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात देर-सबेर बुद्ध-वाणी का संपादन, संगायन तो होता ही, परंतु उसे इतना शीघ्र आयोजित किए जाने का एक विशेष कारण उपस्थित हुआ।

वृद्धावस्था में प्रवजित हुए एक नए भिक्षु सुभद्र ने अपनी बाल बुद्धि के कारण भगवान के महापरिनिर्वाण की सूचना पाने पर हर्ष प्रकट करते हुए यह घोर अमांगलिक घोषणा की।

-हम बिलकुल मुक्त हो गए उन महाश्रमण से। उनके ऐसे आदेशों से सदा पीड़ित रहा करते थे कि 'यह उचित है, यह अनुचित है।' अब हमारी जो इच्छा होगी वह करेंगे, जो इच्छा नहीं होगी वह नहीं करेंगे। कीचड़ में से कमल की भाँति कभी-कभी घोर अमंगल में से भी महामंगल का प्रादुर्भाव हो जाता है यही हुआ।

सुदूरदर्शी महास्थविर महाकश्यप ने भिक्षु सुभद्र के इन अभद्र शब्दों को सुनकर तत्क्षण यह निर्णय किया कि लोक कल्याणार्थ बुद्धवाणी को चिरकाल तक अविकल रूप में सुरक्षित रखने के लिए शीघ्र ही संगायन का आयोजन करना चाहिए अन्यथा इस प्रकार के अपरिपक्व स्वार्थी लोग इसमें से अपनी अनचाही बातें निकाल देंगे और मनचाही जोड़ देंगे।

इसलिए उन्होंने हम पर अनुकंपा करके पाँच सौ सत्य साक्षी महास्थविरों को एकत्र कर तीन महीने के भीतर ही राजग्रह में प्रथम संगायन का आयोजन किया जिसमें सारी बुद्धवाणी अपने शुद्ध रूप में संपादित एवं संग्रहित की गई।