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Written By अनहद

तेरे संग : कानून के ऊपर कुदरत का कानून

तेरे संग
IFM
निर्माता : भरत शाह
निर्देशक : सतीश कौशिक
गीत : समीर
संगीत : सचिन, जिगर
कलाकार : रसलान मुमताज, शीना शाहबादी, सतीश कौशिक, सुष्मिता मुखर्जी, रजत कपूर, नीना गुप्ता, अनुपम खेर

सतीश कौशिक की नई फिल्म "तेरे संग" में समाज के सामने एक विचारणीय सवाल खड़ा किया गया है। सवाल यह कि दैहिक संबंध बनाने की उम्र को क्या कानून बनाकर तय किया जा सकता है। खुद सतीश कौशिक का जवाब है - नहीं। मगर इस बात को इतने साफ तरीके से कहने पर लोग भड़क सकते हैं, खुद कानून भड़क सकता है, आरोप लग सकता है कि सतीश कौशिक तो समाज को पूरी तरह बंधन मुक्त करना चाहते हैं। इसलिए सतीश कौशिक ने इस फिल्म में लीपापोती भी बहुत की है।

इस लीपापोती के कारण एक भ्रम पैदा होता है। समझ नहीं आता कि निर्देशक छोटी उम्र में सेक्स का तरफदार है या खिलाफ। एक तरफ तो वह नायिका के मुँह से कहलवाता है कि कुदरत का कानून नहीं बदल सकता, इसलिए हमें अपने कानून के बारे में सोचना चाहिए। मगर वहीं सोलह वर्ष की गर्भवती नायिका और सत्रह साल के नायक को डाँट भी लगाई गई है। अदालत में वकील कहता है कि गलती माता-पिता की है, कि वे अपने बच्चों पर ध्यान नहीं देते, प्यार नहीं देते लिहाजा बच्चे सेक्स की तरफ चले जाते हैं। इस तरह की बातों से बात बिगड़ती है। क्या किशोर बच्चे उपेक्षा के कारण सेक्स में रुचि लेते हैं? यदि बच्चे कुदरत के असर में हैं, तो फिर माँ-बाप पर क्यों तान तोड़ी गई है?

दरअसल साफ सोचना भी बड़ी नियामत है। हर किसी के हिस्से में साफ सोचना नहीं आता। फिर उस सोचे हुए को ठीक से बताना बड़ी झंझट का काम है। फिर उस बताए हुए के पक्ष में ईमानदारी से खड़े रहना और मुश्किल है। सतीश कौशिक ने एक काम की बात सोची जरूर मगर बाद में वे डर गए। उनका कुदरत वाला तर्क तो बहुत ही खतरनाक है। इस तर्क से तो सारे बंधन कट सकते हैं। विवाह, धर्म, दैहिक संबंधों के लिए बनाए गए नैतिक नियम...।

कानून की गर्दन उड़ाने के बाद कुदरत की यह तलवार कहीं नहीं रुकती। यह छोटे मुँह बड़ी बात वाली मिसाल है। सतीश कौशिक का मुँह बहुत छोटा है और बात बहुत बड़ी। बीआर चोपड़ा शायद इसे ठीक से कह पाते। कोर्ट रूम ड्रामा बनाने में उन्हें महारत थी।

सतीश कौशिक अभी तक फ्लॉप डायरेक्टर रहे हैं। उनकी एकमात्र बड़ी हिट फिल्म थी - "हम आपके दिल में रहते हैं"। एक अन्य फिल्म "मुझे कुछ कहना है" ठीक रही थी। "रूप की रानी चोरों का राजा", हिमेश रेशमिया वाली "कर्ज", "हमारा दिल आपके पास है", "बधाई हो बधाई", "शादी से पहले", "मिलेंगे-मिलेंगे...." ज्यादातर फिल्में फ्लॉप...। सतीश कौशिक के सामने तो पहली समस्या एक दिलचस्प फिल्म बना देने की है। संदेश-वंदेश को फिल्म में गूँथना मुश्किल काम है। उस्तादों का काम है।

बहरहाल, फिल्म का पहला आधा हिस्सा बढ़िया है। बाद के आधे हिस्से में फिल्म कुमार गौरव वाली "लव स्टोरी" हो जाती है। वही पहाड़, वही छोटा-सा घर, वही मेहनत-मजूरी करता नायक...। बहुत-सी और फिल्मों में भी यह सब दिखाया गया है। तार्किक गड़बड़ियाँ भी हैं। नायिका जब अबॉर्शन करा सकती है तो फिर भाग क्यों खड़ी होती है? वह यौन स्वतंत्रता के लिए भाषण देती है और अचानक गर्भपात के खिलाफ हो जाती है। समझ नहीं आता कि नायिका ने अबॉर्शन के लिए क्यों इंकार किया। डर के कारण? पिता से नाराजगी के कारण? या गर्भपात के खिलाफ मत रखने के कारण? इसके अलावा भी कई झोल फिल्म में हैं। यह फिल्म अगर कोई बहस भी पैदा कर पाई तो सफल रहेगी।