1920 : अठारह है उन्नीस-बीस
निर्माता : सुरेन्द्र शर्मा, भागवती गबरानी, अमिता बिश्नोई निर्देशक : विक्रम भट्ट गीत : समीरसंगीत : अदनान सामी कलाकार : रजनीश दुग्गल, अदा शर्मा, राज जुत्शी, विपिन शर्मा, वल्लभ व्यास, आशीष प्रधानरेटिंग : 2.5/5ए-सर्टिफिकेट * 16 रील एक पुरानी किलानुमा हवेली। जिसके आसपास एक भी घर नहीं है। हवेली में मौजूद दो लोग और एक नौकर। चारों तरफ सन्नाटा। समय 1920 का। हवेली में बिजली नहीं है। अंदर से चमचमाती हवेली, फड़फड़ाते परदे और चरमराते दरवाजे-खिड़की। लीजिए साहब, हॉरर िफल्म की रूपरेखा तैयार हो गई। विक्रम भट्ट ने कहानी ढूँढने में ज्यादा माथापच्ची नहीं की। कुछ पुरानी हॉरर फिल्म देखी और तैयार कर दी नई कहानी। ‘1920’ की कहानी वैसी ही है जैसी हम सैकड़ों हॉरर फिल्मों में देखते आए हैं। अर्जुन (रजनीश दु्ग्गल) और लीज़ा (अदा शर्मा) परिवार की मर्जी के खिलाफ शादी कर लेते हैं। शादी के बाद अर्जुन को एक पुरानी हवेली को गिराकर होटल बनाने का काम मिलता है। पति-पत्नी उस हवेली में जाकर रहते हैं और वहाँ पर उनके साथ अजीबोगरीब घटनाएँ घटने लगती हैं। पत्नी के शरीर के अंदर एक आत्मा घुस जाती है और वह अजीबो-गरीब हरकत करने लगती है। डॉक्टर जब नाकाम हो जाते हैं तब पादरी को बुलाया जाता है। पादरी भी असफल हो जाता है तो हनुमान चालीसा का सहारा लिया जाता है। इस आत्मा ने लीज़ा के शरीर में क्यों प्रवेश किया है और उसका मकसद क्या है? यह सस्पेंस है। कहानी में पुनर्जन्म भी आ जाता है। 1920 से फिल्म 1857 में पहुँच जाती है।
कहानी तो घिसी-पिटी है, लेकिन विक्रम ने इसे परदे पर अच्छी तरह पेश किया है। घटना उन्होंने भारत की बताई है, लेकिन शूटिंग की है यार्कशायर में। यार्कशायर में स्थित खूबसूरत हवेली और उसके चारों और छाई खामोशी हॉरर फिल्म के लिए आदर्श है। दर्शकों को डराना निर्देशक विक्रम भट्ट का उद्देश्य है और इसमें वे कुछ हद तक सफल हैं। फिल्म का मध्यांतर के पूर्व वाला हिस्सा बेहद धीमा है। हर घटना होने में बहुत समय लगता है। मध्यांतर के बाद घटनाक्रम में तेजी आती है। कुछ दृश्य ऐसे हैं जो दर्शकों को डराते हैं, खासकर तब जब लीज़ा के शरीर में आत्मा प्रवेश करती है। फिल्म देखते समय ‘भूलभुलैया’, ‘राज’ जैसी फिल्मों की याद आती है। हाल ही में प्रदर्शित ‘फूँक’ और ‘1920’ में भी कुछ समानताएँ हैं। जैसे फिल्म का नायक भगवान को नहीं मानता, लेकिन जब हर तरफ से वह हार जाता है तो भगवान की शरण में जाता है।1920
का समय दिखाने के लिए विक्रम ने कई पुरानी चीजों का सहारा लिया है। फिल्म की पृष्ठभूमि में उन्होंने ऐसी चीजें या लोग बैठाए हैं जो उस समय की याद दिलाएँ। लेकिन फिल्म के नायक-नायिका अपने बोलचाल और शारीरिक हावभाव से 1920 के नहीं लगते।फिल्म के नायक रजनीश दुग्गल के चेहरे पर ठीक से भाव नहीं आते। हर दृश्य में उनका चेहरा लगभग एक-सा रहता है। इस गलाकाट स्पर्धा में उन्हें टिका रहना है तो बहुत मेहनत करना होगी। अदा शर्मा को रजनीश के मुकाबले ज्यादा अवसर मिले और उन्होंने रजनीश से अच्छा अभिनय किया है। सुंदरता के मामले में वे पारंपरिक नायिकाओं की परिभाषा पर खरी नहीं उतरतीं। अंजूरी अलघ ने संक्षिप्त भूमिका अच्छे से निभाई है, लेकिन उनकी भूमिका ठीक से लिखी नहीं गई है। देश की खातिर वह अपने जिस्म का सौदा करती है, जबकि वह देशद्रोही को मार भी सकती थी। पादरी के रूप में राज जुत्शी का अभिनय उम्दा है। राखी सावंत पर फिल्माया हुआ गाना ‘बिछुआ’ ठूँसा हुआ लगता है।
हॉरर फिल्मों में गीत-संगीत की गुंजाइश नहीं रहती है। फिर भी यदि गाने रखे जाते हैं तो वे हिट होना चाहिए। अदनान सामी का संगीत यह आवश्यकता पूरी नहीं करता। प्रवीण भट्ट की फोटोग्राफी उम्दा है। हवेली के साथ-साथ उन्होंने प्राकृतिक सौंदर्य को खूबसूरती से फिल्माया है। दर्शकों को डराने में कैमरावर्क का भी योगदान है। कुल मिलाकर ‘1920’ की कहानी में नयापन नहीं है। यह डराती है, लेकिन टुकड़ों-टुकड़ों में।