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Written By ND

द आर्टिस्ट : फिल्म समीक्षा

- ज्योत्स्ना भोंडवे

द आर्टिस्ट
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जिंदगी में कई बार ऐसा होता है, जब इंसान अपनी कामयाबी और शोहरत के नशे में आसपास के लोगों को नजरअंदाज कर जाता है और जिंदगी के कहीं किसी मोड़ पर वही शख्स ...। और ऐसी सच्चाई की महीन डोर को ले उम्दा कहानी, निर्देशन और अदाकारी की पेशकश देखने का सुकून भी कुछ अलहदा होता है जिसने मूक फिल्मों से थ्रीडी तक का पूरा सफर तय किया है।

शायद तब निर्देशक मिशेल अजानेविसयुस को भी डर रहा होगा कि इसे देखेगा कौन? लेकिन इशारों और फेस एक्सप्रेशन पर बेस्ड इस फिल्म को लोगों ने न सिर्फ देखा बल्कि सलाम किया। फिल्म थी सर्वश्रेष्ठ ऑस्कर विजेता "द आर्टिस्ट"।

साइलेंट फिल्म के कामयाब हीरो जॉर्ज (ज्याँ डूज्यारडिन) के लिए अपने और अपने कुत्ते से अधिक कुछ भी मायने नहीं रखता। लेकिन एक प्रीमियम के दौरान जमा भीड़ की गहमागहमी में फैन पेपी (बेरॉनिस बिजाँ) की ऑटोग्राफ बुक नीचे गिरती है और धक्के के चलते ऑटोग्राफ बुक उठाने के चक्कर में वे जॉर्ज पर जा गिरती हैं।

उस पल गुस्से के बावजूद जॉर्ज कामयाब हीरो इमेज को न भूलते उसके साथ सलीके से पेश आते फोटोग्राफर्स को पोज देता है। पसंदीदा हीरो की उस आत्मीयता से पेपी अभिभूत होती हैं। दूसरे दिन के तमाम अखबारों में फोटो छपती है। एक्स्ट्रा के बतौर काम की तलाश में भटक रही पेपी अखबार ले ऑडिशन पर पहुँचती हैं।

फोटो देख उसे न पहचानने के बावजूद उसका नृत्य देख चुन लिया जाता है और जिस फिल्म में चयन होता है, उसका हीरो है जॉर्ज। लेकिन एक छोटे से शॉट में बार-बार रिटेक के चलते दोनों में अनजान रिश्ता बनता है। इधर छोटे-छोटे किरदार करते पेपी कामयाब हीरोइन बन जाती हैं। उधर जॉर्ज भी अपनी मस्ती में जिंदगी जीता है। लेकिन एक दिन स्टूडियो का संचालक अगली बोलफिल्म की घोषणा करता है और तब जॉर्ज "आज तक लोग मुझे देखने आते थे, मैं क्या बोलता हूँ , यह सुनने कौन आएगा?" इन लफ्जों से इंकार के साथ स्टूडियो छोड़ता है। फिल्म छोड़ते ही पत्नी भी साथ छोड़ देती है।

अकेलेपन, मुफलिसी में जॉर्ज खुद को शराब के नशे में डुबो लेता है और साइलेंट फिल्मों का दौर भूतकाल में जमा हो गया। अब युवाओं को मौका मिलना चाहिए, पेपी के इस कथन से निराश अपनी तमाम फिल्मों की प्रिंट जला देता है जिसके चलते घर भी जल जाता है। जख्मी जॉर्ज को पेपी अपने घर लाती हैं और फिर एक बार फिल्म में काम करने के लिए मनाती हैं।

फिल्म का अंत जॉर्ज की नई पारी से होता है, सो श्वेत-श्याम के साथ कलर से फिल्म का मिजाज बदलता है। जॉर्ज का चेहरा, भौं, आँखें और बॉडी लैंग्वेज तो कमाल की हैं। फिल्म में संवाद नहीं, सिर्फ संगीत है तब भी फिल्म हमसे बात करती है।

पेपी का अव्यक्त प्यार, असिस्टेंट का मुफलिसी के दौर में बिना वेतन साथ देना, शराब की खातिर कोट बेचना, ज्यादा पैसों के लिए चख-चख करना और उतने पैसे न मिलने पर भी टिप देना। तमाम प्रसंगों में ज्याँ डूज्यारडिन की अदाकारी लाजवाब रही। पेपी और जॉर्ज के दो मिनट के टॅप डांस का तो जवाब नहीं! फिल्म निश्चित ही लाजवाब इंसानी अहसास के चलते देखने से ताल्लुक रखती है।