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Written By ND

लौटा धमाकेदार खलनायकों का दौर

लौटा धमाकेदार खलनायकों का दौर - लौटा धमाकेदार खलनायकों का दौर
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हिन्दी सिनेमा का यदि इतिहास लिखा जाए तो हरेक दशक में फिल्मों में कुछ नए ट्रेंड्‌स नजर आएँगे। पिछले दशक में प्रेम, उदारता और सकारात्मकता फिल्मों का मूल-स्वर रहा था। नई शताब्दी के दूसरे दशक में सफल हुईं फिल्मों में (हालाँकि दूसरे दशक का यह तीसरा ही साल है, फिर भी) हिन्दी फिल्मों का पुराना खलनायक एक नए रूप में जिंदा हुआ नजर आने लगा है।

पहले इक्का-दुक्का फिल्मों में यदि खलनायक होता भी था तो भी दबा हुआ-सा। ऐसा भी नहीं है कि उस दौर की फिल्मों में सब कुछ अच्छा-अच्छा ही हुआ करता था, लेकिन बुरा इतना बुरा नहीं हुआ करता था कि पूरी फिल्म अच्छाई-बुराई की लड़ाई की कहानी ही हो जाए। लेकिन इस दशक में फिर से फिल्म में अच्छाई-बुराई का अनुपात सम पर आ गया लगता है। फिर से पत्थर दिल, भय और जुगुप्सा जगाने वाले गेटअप और पंचिंग डायलॉग के साथ अच्छे डीलडौल वाले खलनायक हिन्दी फिल्म के पर्दे पर नजर आने लगे हैं।

पिछली तीन-चार फिल्मों में खलनायकों ने जिस तरह से नायक के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर फिल्म को संभाला, उसने प्राथमिक तौर पर हिन्दी फिल्मों में परंपरागत विलेन के लौटने के संकेत दिए हैं। हमारी फिल्मों की शुरुआत नायक-खलनायक के द्वंद्व के साथ ही हुई है।

एक लंबा अरसा फिल्मों में दमदार खलनायकों के नाम रहा। इसी परंपरा से कन्हैयालाल, केएन सिंह, प्राण, प्रेम चोपड़ा, बाद के दौर में मदन पुरी, अमरीश पुरी, सदाशिव अमरापुरकर, कादर खान, शक्ति कपूर, अनुपम खेर, गुलशन ग्रोवर, कुलभूषण खरबंदा और इस लिस्ट में सबसे टॉप पर अमजद खान निकले और फिल्मों में हीरो के बराबर भूमिकाएँ हासिल कीं। आज भी 'शोले' में गब्बरसिंह के डायलॉग सबसे ज्यादा याद किए जाते हैं।

प्रेम कहानियों के दौर में परंपरागत विलेन की जरूरत और प्रासंगिकता दोनों ही कम हो चली थीं, इसलिए फिल्मी पर्दे से 'विलेन' की तरह के विलेन गायब-से हो गए थे।

इस दौर में सूरज बड़जात्या, करन जौहर और आदित्य चोपड़ा जैसे नए फिल्मकारों ने पारिवारिक सिनेमा की रचना की, जिसमें उस तरह के खलनायकों की न तो जरूरत थी और न ही गुंजाइश...। लेकिन 'गजनी', 'सिंघम', 'दबंग', 'वांटेड' और हालिया रिलीज 'अग्निपथ' ने एक बार फिर से पारंपरिक खलनायक को जीवित कर दिया है।

विशेषज्ञों का कहना है कि क्रॉसओवर सिनेमा के दौर के जाने के बाद एक बार फिर सॉफ्ट, पारिवारिक और भावनात्मक फिल्मों के बजाय दर्शकों का ध्यान फिल्मों के पारंपरिक ढाँचे 'हीरो-हीरोइन और खलनायक' की तरफ गया। 'गजनी' का गजनी, 'सिंघम' का जयंत शिक्रे और 'दबंग' के छेदीसिंह के बाद अब 'अग्निपथ' में कांचा चीना ने सिहराने, डराने और उत्तेजना जगाने वाले खलनायकों के दौर को पुनर्जीवित कर दिया है।

हालाँकि समय-समय पर खलनायकों के रूप बदलते रहे हैं। शुरुआती दौर में जमींदार और महाजन किस्म के खलनायक हुआ करते थे। बाद में उद्योगपति, स्मगलर और जिस दौर में पंजाब-कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था, उस वक्त खलनायक आतंकवादी के रूप में फिल्म का हिस्सा हुआ करते थे।

इस बीच जब मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश आदि डाकू समस्या से जूझ रहे थे, उस दौर में खलनायक और कई फिल्मों में नायक भी डाकू के तौर पर फिल्मों में नजर आए। बीच-बीच में सॉफ्ट और प्रेम कहानियों पर आधारित फिल्मों में संपन्ना पिता (चाहे वो हीरोइन का हो या फिर हीरो का) खलनायक की भूमिका में रहा है, लेकिन 'गजनी', 'सिंघम', 'वांटेड', 'दबंग' और 'अग्निपथ' में खलनायकी प्रवृत्तियों वाले खलनायकों का पुनरागमन हुआ है।

वैसे अब ऐसा भी हो रहा है कि हीरो भी खलनायक की भूमिका करने का चैलेंज ले रहे हैं। शाहरुख खान ने सबसे पहले यह चुनौती ली, उसके बाद आमिर खान, अजय देवगन, जॉन अब्राहम, संजय दत्त और सलमान खान भी इस चुनौती को स्वीकार कर रहे हैं।

कुल मिलाकर फिर से 70-90 के दौर के खलनायकों की हिन्दी फिल्मों में वापसी हो रही है, जिसकी बदौलत हिन्दी फिल्मों को अमरीश पुरी, सदाशिव अमरापुरकर, अनुपम खेर, अमजद खान, कुलभूषण खरबंदा जैसे कलाकार मिले हैं। फिर अब तो नायकों की भूमिका करने वाले स्टार्स भी खलनायक बनने के लिए तैयार हैं। देखना होगा कि इस सिलसिले में अगला साहसी स्टार कौन होगा...!

 

- राधिका कौशल