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Last Updated : मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021 (15:25 IST)

उत्तराखंड : तबाही में ऋषि गंगा और तपोवन जैसे पावर प्रोजेक्ट्स का कितना हाथ?

उत्तराखंड : तबाही में ऋषि गंगा और तपोवन जैसे पावर प्रोजेक्ट्स का कितना हाथ? Uttarakhand News In Hindi/ DEHRADUN News In Hindi | Tapovan Power Project
सरोज सिंह
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
 
"हाइड्रो-पॉवर परियोजनाएं आर्थिक रूप से ज़्यादा ख़र्चीला सौदा है। ऐसी परियोजनाओं से जो बिजली बनती है, उसकी लागत 6 रुपए प्रति यूनिट पड़ती है जबकि विंड और सोलर एनर्जी से बिजली पैदा करने में 3 रुपए प्रति यूनिट का ख़र्चा आता है तो फिर क्यों हाइड्रो-पॉवर परियोजनाओं को एक के बाद एक मंजूरी दी जा रही है? वो भी तब, जब 7 साल पहले ऐसा ही भयानक मंज़र उत्तराखंड में एक बार पहले भी देख चुके हैं।
 
उत्तराखंड में रविवार को मची तबाही पर बीबीसी से बात करते हुए साउथ एशिया नेटवर्क्स ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल के संयोजक हिमांशु ठक्कर इसी तथ्य के साथ अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हैं। रविवार के हादसे के बाद क़रीब 200 लोग लापता बताए जा रहे हैं। इस सब नुक़सान के पीछे उत्तराखंड के चमोली में चल रहे हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स को एक बड़ी वजह बताया जा रहा है।
 
जानकारों को कहना है कि इनकी वजह से जंगल काटे जा रहे हैं, नदी-नाले के बहाव को रोका जा रहा है। प्रकृति से जब इस तरह से छेड़छाड़ होती है, तो वो अपने तरीक़े से बदला लेती है। केदारनाथ में हुए 2013 के हादसे के बाद वहां चार धाम परियोजना पर काम शुरू है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक़ इस परियोजना में 56 हज़ार पेड़ काटे जाने हैं। ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि परियोजनाओं की वजह से पर्यावरण को हो रहे नुक़सान की अनदेखी की जा रही है।
 
केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने रविवार को ट्वीट के ज़रिए इसी बात को दोहराया। उन्होंने लिखा- "इस संबंध में मैंने, जब मैं मंत्री थी, तब अपने मंत्रालय के तरफ़ से हिमालय उत्तराखंड के बांधों के बारे में जो एफ़िडेविट दिया था, उसमें यही आग्रह किया था कि हिमालय की पहाड़ियां बेहद संवेदनशील हैं, इसलिए गंगा और उसकी मुख्य सहायक नदियों पर पावर प्रोजेक्ट नहीं बनने चाहिए।"
रविवार दोपहर 1 बजे के उनके इस ट्वीट पर सबकी नज़र गई, लेकिन सालों से वो जिन प्रोजेक्ट्स के बारे में जो कह रही थीं, उस पर किसी का ध्यान नहीं गया। इसलिए अब इस पर बहस चल रही है कि क्या उत्तरखंड में आई त्रासदी मानव निर्मित है या फिर प्राकृतिक आपदा। अभी तक इस बात पर पुख्ता तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता कि त्रासदी कैसे शुरू हुई है। लेकिन जानकार इस बात पर एक राय ज़रूर रखते हैं कि त्रासदी प्राकृतिक है, लेकिन मानव निर्मित कार्यों ने इसे ज़्यादा भायवह बना दिया है।
 
कैसे हुआ हादसा?
अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, उत्तराखंड के निदेशक प्रोफ़ेसर महेंद्र प्रताप सिंह बिष्ट कहते हैं- "एक हफ़्ते पहले तक वहां के जो डेटा हमारे पास उपलब्ध हैं, उसमें ऐसा कोई डेटा नहीं है जो यह बताता हो कि वहां कोई ग्लेशियर लेक यानी ग्लेशियर की झील हो। वैसे तो ऐसी झील कुछ घंटों में भी बन सकती है, कई बार कई साल भी लग जाते हैं।" लेकिन वो मानते हैं कि ऋषि गंगा प्रोजेक्ट के ऊपर कहीं कोई अवरोध तो बना है, जो दो-चार घंटे तक रहा है। इसके पीछे दो वजहें हो सकती है - हिमस्खल या भूस्खलन।
 
पूरी प्रक्रिया को समझाते हुए वो कहते हैं, "ऊपर से या तो किसी तरह से भूस्खलन हुआ हो और नीचे का इलाक़ा सीधे में गहरा है, तो बांध उसे रोक ना पाया हो और बांध को तोड़ते हुए पानी तेज़ी से ब्लास्ट करते हुए नीचे गया हो।"
 
दूसरा कारण ग्लेशियर हो सकता है। उस इलाक़े में दो ग्लेशियर हैं रामणी और हनुमान बांक, जो ऋषि गंगा के दाएं और बाएं छोर पर तीव्र ढलान पर हैं। इसके अलावा त्रिशूल पर्वत से आने वाले ग्लेशियर में भी मलबा ज़्यादा रहता है। ऐसी सूरत में हो सकता है कि ऊपर हिमस्खलन हुआ हो, तो वो अपने साथ बड़ा मलबा लेते हुए नीचे आया हो।
 
ऋषि गंगा हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट मुख्य रूप से रैणी गांव में चलाया जा रहा है, वहीं उसका जलग्रहण क्षेत्र यानी कैचमेंट एरिया है, जो धौली गंगा में जाकर मिलता है। ऊपर से आए भूस्खलन या हिमस्खलन के पानी ने रैणी गांव के बैरियर को तोड़ा और पानी की बाढ़-सी आई और मलबे के साथ पानी नीचे तपोवन प्रोजेक्ट के टनल के अंदर तक घुस गया। इसका मतलब यह कि त्रासदी की शुरुआत तो प्राकृतिक तौर पर हुई, लेकिन उसमें तेज़ी और गति बांध की वजह से आई।
 
वैसे तो बांध पानी की गति को रोकने के लिए बनाए जाते हैं, इस मामले में वो बांध पानी की गति को नहीं रोक पाया और इसके टूटने से तबाही ज़्यादा हुई।  इसलिए सवाल उठ रहे हैं कि ऐसी जगह पर हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट को मंज़ूरी क्यों दी गई, जहां हिमस्खलन और भूस्खलन के ख़तरे के बारे में पहले से पता था। यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि परियोजना नंदा देवी नेशनल पार्क के मुहाने पर बना है, जिसे वैश्विक धरोहर घोषित किया गया है।
 
ग्लेशियर लेक से कितना नुक़सान?
पद्मश्री से सम्मानित और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में ग्लेशियरोलॉजी के प्रोफ़ेसर रहे सईद इक़बाल हसनैन कहते हैं कि उत्तराखंड के ग्लेशियर और कश्मीर में मिलने वाले ग्लेशियर बिलकुल अलग किस्म के होते हैं। कश्मीर के 'नार्थ फ़ेसिंग ग्लेशियर' में मलबा नहीं होता है। वे तेज़ी से आगे बढ़ते हैं और कई बार रास्ते में आने वाले मलबे को हटाते हुए आगे निकल जाते हैं, वहीं उत्तराखंड के 'साउथ फ़ेसिंग ग्लेशियर' मलबे से लदे होते हैं और धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। इस वजह से रास्ते में जो मलबा मिलता है, वो उस पर ठहर-सा जाता है।
 
ग्लेशियर के आख़िरी प्वाइंट (टोंग) पर आकर ये मलबा जब जमा हो जाता है, तो नीचे की तरफ़ एक बांध सा रूप ले लेता है। तापमान कम होने की वजह से उस मलबे के नीचे बर्फ़ भी होती है। उसके पीछे जो पानी जमा होता है, उसे ग्लेशियर लेक कहते हैं। जब ये ग्लेशियर लेक फटते हैं (हिमस्खलन या भूंकप या किसी और वजह से), तो उसमें चूंकि बहुत मलबा होता है, तो वो 'वॉटर कैनन' की तरह काम करते हैं और तबाही काफ़ी अधिक होती है।
 
सईद इक़बाल हसनैन कहते हैं कि "2004 में उत्तरांचल के ग्लेशियर लेक्स पर वाडिया इंस्टीट्यूट ने एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें उस इलाक़े में 1400 ऐसे 'ग्लेशियर लेक्स' होने का ज़िक्र किया था। 16 साल बाद, आज ज़ाहिर है ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज़ की वजह से इनकी संख्या ज़रूर बदली होगी।
 
इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि अगर आप ग्लेशियर वाले क्षेत्र में नीचे की तरफ़ बांध बना रहे हैं तो उसकी मॉनिटरिंग करते रहें। इसके लिए हाई क्वालिटी सैटेलाइट इमेज की ज़रूरत पड़ती है ताकि पता लगाया जा सके कि उस क्षेत्र के ग्लेशियर में किस तरह के बदलाव हो रहे हैं।
अगर शुरुआत से इसे मॉनिटर किया जाता, तो पता चलता कि वो ग्लेशियर किस तरफ़ बढ़ रहे हैं या सिकुड़ रहे हैं या पानी निकल रहा है या नहीं। अगर पहले पता चल सकता कि किस ख़तरनाक स्तर तक पानी बढ़ गया है, तो पानी को कृत्रिम तरीक़े से निकालने की व्यवस्था की जानी चाहिए थी। हसनैन कहते हैं कि दरअसल सरकार से चूक यहीं हुई है।
 
हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट की वजह से नुक़सान ज़्यादा
हिमांशु ठक्कर साउथ एशिया नेटवर्क्स ऑन डेम्स, रिवर्स एंड पीपल के संयोजक हैं। बांध नदियों और उनके असर पर उन्होंने बहुत काम किया है। बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि इस त्रासदी की शुरुआत के लिए ऋषि गंगा हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट को ज़िम्मेदार नहीं माना जा सकता। इसकी शुरुआत पावर प्रोजेक्ट के ऊपर से कहीं हुई है. लेकिन इन प्रोजेक्ट की वजह से नुक़सान ज़्यादा ज़रूर हुआ है।"
 
इस इलाक़े में न सिर्फ़ ऋषि गंगा, बल्कि उसके नीचे एक साथ कई प्रोजेक्ट बन रहे हैं। तपोवन प्रोजेक्ट पर भी काम चल रहा है, उसके नीचे विष्णु प्रयाग प्रोजेक्ट है, उसके नीचे विष्णु प्रयाग-पीपल कोठी हाइड्रो प्रोजेक्ट चल रहा है। ये कुछ ऐसे ही हैं, जैसे बंपर से बंपर मिलाकर गाड़ियां चलती हुई दिखती है, एक ख़त्म हुआ नहीं, दूसरा प्रोजेक्ट शुरू है।
 
इन परियोजना की वजह से पर्यावरण को कितना नुक़सान होता है, इस बारे में कोई विश्वनीय एजेंसी से रिपोर्ट नहीं तैयार करवाई जाती। इसके अलावा इस ओर भी ध्यान नहीं दिया जाता कि इनके कैचमेंट एरिया में किस तरह का ख़तरा है। वैसे भी उत्तराखंड के इस इलाक़े में पहले से हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट बनाने के रिस्क ज़्यादा हैं। उसके ऊपर से जब हम एक के बाद एक इस तरह की परियोजनाओं को मंजूरी देते जाते हैं, तो ख़तरा ज़्यादा बढ़ जाता है।
 
जैसे कि शुरुआती रिपोर्ट से पता चलता है कि पहले हिमस्खलन/भूस्खलन हुआ, उससे ग्लेशियर फटा और फिर वो तेज़ गति से नीचे हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट पर कहर बन कर टूटा। इन बांधों की वजह से पहले एक अवरोध पैदा होता, लेकिन जब वो बांध भी ऊपर से आ रहे ग्लेशियर के पानी की गति को नहीं रोक पाते और टूट जाते हैं तो पानी की गति दोगुनी होती है और उससे नुक़सान और ज़्यादा होता है. साथ में बांध टूटने की वजह से मलबा और ज़्यादा बढ़ जाता है।
 
..ताकि आगे ऐसे हादसे न हों
हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि आगे ऐसे हादसे न हों इसके लिए ज़रूरत है कि जब कभी ऐसे बिजली उत्पादन करने वाली परियोजनाएं बनाई जाएं तो उसके लिए मॉनिटरिंग की व्यवस्था भी अच्छी की जाए। हादसे के 24 घंटे बाद भी हमारे पास हादसा क्यों और कैसे हुआ, इसके बारे में स्पष्ट कारणों का पता नहीं है. ये बताता है कि हमारी मॉनिटरिंग सिस्टम सही नहीं है।
 
वो कहते हैं- मॉनिटरिंग ऐसी हो, जिससे आपको 24 घंटे पहले ही एडवांस में उसके बारे में पता चल सके। 2013 जैसे पुराने हादसों से सबक लेते हुए इन हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट पर अस्थायी रोक लगाई जाए। उसके बाद इन परियोजनाओं का रिव्यू एसेसमेंट, एक्सपर्ट से कराया जाए।
 
ऐसे किसी हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट में डायनमाइट जैसे विस्फोटक का इस्तेमाल वर्जित है। ये बात ख़ुद उत्तराखंड के डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी ने कहा है, लेकिन फिर भी बेधड़क उनका इस्तेमाल हो रहा है, इससे भी बचने की ज़रूरत है।
 
"इतना ही नहीं, इलाक़े में एक परियोजना को मंज़ूरी मिलती है तो उसका असर पर्यावरण पर अलग होता है, लेकिन अगर एक साथ कई परियोजनाओं को इलाक़े में मंजूरी मिल जाती है तो उसके ख़तरे का असर और बढ़ जाता है. सरकार और प्रशासन को इसका ख़याल रखना होगा।