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Written By BBC Hindi
Last Updated : मंगलवार, 28 जुलाई 2020 (12:33 IST)

कहानी उन डॉक्टरों की जो कोरोना की चपेट में आ गए

कहानी उन डॉक्टरों की जो कोरोना की चपेट में आ गए - The story of Corona's doctors
कोरोना काल के पहले टेस्ट सीरिज की प्रैक्टिस के दौरान इंग्लैंड के कप्तान बेन स्टोक्स ने एक भारतीय डॉक्टर विकास कुमार के नाम की टीशर्ट पहनी थी। स्टोक्स इसके ज़रिए इंग्लैंड के डॉक्टरों के जज़्बे को सलाम कर रहे थे। इंग्लैंड ही नहीं, पूरी दुनिया में डॉक्टर दिन रात एक करके लाखों की तादाद में कोरोना के मरीज़ों को ठीक करने के काम में जुटे हैं।
 
डॉक्टरों के कठिन और कर्मठ प्रयास से भारत भी अछूता नहीं है। लगातार कोरोना के मरीज़ों के इलाज में जुटे ये डॉक्टर सबसे अधिक एक्सपोज्ड हैं और इसके चलते कोरोना से संक्रमित भी हो रहे हैं। देश के कई इलाकों से कुछ डॉक्टरों के मौत की भी ख़बरें आई।
(डॉ. विकास कुमार)
 
हम आज यहां उन 5 डॉक्टरों की बात कर रहे हैं जो खुद नॉटआउट रहते हुए कोरोना संक्रमण की बाउंड्री पार करके वापस अस्पताल के मैदान में बैटिंग करने उतरे हैं या उतरने ही वाले हैं। 'मैं कोरोना पॉज़िटिव थी, ये मालूम है मुझसे इलाज कराने वाले मरीज़ों को।
 
बिहार से बीबीसी की सहयोगी सीटू तिवारी ने डॉक्टर प्रतिमा से बात की जो मुज़फ़्फ़रपुर के केजरीवाल अस्पताल में स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं और रोगियों का इलाज करते करते खुद ही मरीज़ बन बैठीं। पढ़ें क्या है डॉक्टर प्रतिमा का कहना। मेरे पति डॉ. संजय कुमार भी पेशे से डॉक्टर हैं और मेरा बेटा भी एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहा है। इसलिए हमारा परिवार अच्छी तरह जानता है कि संकट की इस घड़ी में डॉक्टरों की प्रतिबद्धता के क्या मायने हैं।
 
23 जून को मेरे सिर में दर्द शुरू हुआ। मुझे लगा कि ये मेरी माइग्रेन का दर्द है। मुझे बुख़ार, खांसी जुक़ाम की कोई समस्या नहीं थी। 28 जून को मेरे एक सीनियर सहकर्मी की कोरोना टेस्ट रिपोर्ट पॉज़िटिव आ गई। उनकी हालत सीरियस हो गई और उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया।
(डॉक्टर प्रतिमा)
 
इससे थोड़ी घबराहट महसूस हुई। मैंने अपना कोरोना टेस्ट कराया। मैं पॉज़िटिव थी। जिसके बाद दो जुलाई को मुझे पटना के एम्स में भर्ती कराया गया। इस बीच मेरे पति की रिपोर्ट तो नेगेटिव आई लेकिन बेटे की रिपोर्ट पॉज़िटिव आई। मरीज़ों को देखने के दौरान मैं संक्रमित हुई थी और मुझसे मेरा बेटा संक्रमित हुआ था।
 
अस्पताल में भर्ती रहने के दौरान मैंने सोशल मीडिया और अन्य ज़रियों से ढूंढ ढूंढ कर अपने एमबीबीएस के पुराने दोस्तों से बात की। हम लोगों की बातचीत इस बात से शुरू होती कि 'आप ठीक है', और उसके बाद हंसी मज़ाक़ और दुनियाभर की दूसरी बातें। लेकिन कोरोना के बारे में कोई बात नहीं करते थे। हमने ये नियम बना लिया था।
 
इस दौरान मुझे सांस की तकलीफ़ शुरू हो गई। थोड़ा सा चलने पर ही सांस उखड़ने लगती थी। लेकिन अस्पताल में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हुई। एम्स, पटना में साफ़ सफ़ाई का ख्याल रखा जाता था और समय पर सादा खाना मिलता था।
अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद भी कमज़ोरी महसूस होती थी। इधर सोशल मीडिया और दूसरे संचार माध्यमों से मेरे कोरोना पॉज़िटिव होने की ख़बर फैल चुकी थी। मुझे सिंगापुर में रहने वाली मेरी बहुत पुरानी दोस्त तक ने फ़ोन करके पूछा। हालांकि अब सब कुछ सामान्य है।
 
मैंने कुछ दिन पहले से ही फिर से मरीज़ों को देखना शुरू कर दिया। मेरे मरीज़ जानते हैं कि मैं कोरोना पॉज़िटिव थी। लेकिन वो बेहिचक आते हैं। गर्भवती महिलाएं आती हैं, डिलिवरी केस भी आते हैं। मेरी इच्छा शक्ति, परिवार, समाज और ख़ास तौर पर मेरे मरीज़ों के विश्वास ने मेरे जीवन में नई ऊर्जा भर दी है।
(डॉ. केजी सुरेश)
 
डॉक्टर का वीडियो हुआ वायरल
 
बेंगलुरु से बीबीसी के सहयोगी इमरान क़ुरैशी ने मल्लेश्वरम में केसी जनरल हॉस्पिटल के 53 वर्षीय फिजीशियन और सीनियर स्पेशलिस्ट डॉ. के जी सुरेश से बात की जो कोविड19 पॉजिटिव होने के बाद होम क्वारंटीन में हैं और जिन्हें हाल ही में एक ऐसी घटना से गुज़रना पड़ा जिससे जुड़ा वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल था।
 
उस घटना का ज़िक्र और डॉक्टर सुरेश क्या सोचते हैं। पढ़ें खुद उनके ही शब्दों में। मेरा हॉस्पिटल विक्टोरिया हॉस्पिटल या बोरिंग हॉस्पिटल की तरह से टर्शरी हॉस्पिटल (ऐसे हॉस्पिटल जो आमतौर पर आईपीडी या रेफरल मरीज़ों को स्पेशलाइज्ड कंसल्टेटिव हेल्थकेयर मुहैया कराते हैं) नहीं है।
केसी जनरल हॉस्पिटल एक सेकंडरी लेवल हॉस्पिटल है यानी कि यह एक ज़िला अस्पताल जैसा है। इस अस्पताल में फिलहाल 100 बेड्स ख़ासतौर पर कोविड के मरीज़ों के लिए रखे गए हैं। लेकिन, हमारी दिक़्क़त कोविड मरीज़ों की नहीं है क्योंकि इसके लिए एक तय प्रोटोकॉल है और हम आईसीएमआर से आने वाले सभी निर्देशों का पालन करते हैं।
 
हमारी चुनौती दोगुनी है। पहली हमारे हॉस्पिटल में आने वाले एसएआरआई केसों की संख्या की है। और दूसरी, मरीज़ों और उनके परिजनों से निबटने की है। मरीज़ जब हमारे पास आते हैं तो उनकी स्थिति का पता नहीं होता। वे कोविड पॉज़िटिव हैं या नहीं, हम नहीं जानते। ऐसे में जब तक हमें यह नहीं पता चलता कि वे किस बीमारी से जूझ रहे हैं, उनके परिजनों से निबटना बड़ा ही तनावपूर्ण होता है। हमारे ज़्यादातर मरीज़ मध्यम वर्ग या कम आमदनी वाले तबके से आते हैं।
चूंकि, ये काफ़ी बेचैन होते हैं, ऐसे में ये लोग मास्क पहनने या सामाजिक दूरी जैसी आम चीज़ों का ख्याल नहीं रखते। जब हम उन्हें दूरी बनाए रखने के लिए बोलते हैं तो उन्हें बुरा लगता है। ऐसा ज़्यादातर वैसे मरीज़ों के साथ होता है जो कि शहरी इलाकों से आते हैं। ग्रामीण इलाके के लोग हमारी बात को एक बार में ही मान जाते हैं। साथ ही वे बड़ी उम्मीदों के साथ आते हैं। वे कोविड के डर से काफ़ी भावुक हो जाते हैं।
 
इसी तरह की चिंता के चलते हॉस्पिटल में एक घटना हुई। इस मरीज़ को मेरे सहयोगी ने 19 जुलाई को भर्ती किया था। दो दिन बाद मुझे एक कॉल आई और मैं भागकर पहुंचा तो पता चला कि मरीज़ को आईसीयू ले जाना होगा। लेकिन, हमारे यहां आईसीयू की सुविधा नहीं है।
 
मरीज़ के रिश्तेदार निजी अस्पताल जाने के लिए राज़ी थे। जब तक वे किसी अस्पताल की तलाश कर पाते, मरीज़ की मौत हो गई। हमने रिश्तेदारों को समझाया कि चूंकि मरीज़ एंटीजन टेस्ट में कोरोना संक्रमित पाया गया था ऐसे में पार्थिव शरीर को केवल बीबीएमपी (बंगलुरू महानगरपालिका) को ही सुपुर्द किया जा सकता है।
 
रिश्तेदार इसे लेकर काफ़ी भावुक हो गए और उन्होंने सवाल उठाने शुरू कर दिए। हमने उन्हें समझाने की पूरी कोशिश की। जिस वक्त मैं दूसरे मरीज़ों को देख रहा था तब मुझे पता चला कि वे बातचीत को रिकॉर्ड कर रहे हैं। तब मैंने मेरा मोबाइल फ़ोन निकाला और जो कुछ भी वे कर रहे थे उसे रिकॉर्ड करना शुरू कर दिया।
उनमें से कुछ लोगों ने फ़ोन छीनने की कोशिश की और यह नीचे गिर गया। यह केवल भावनात्मक स्थिति को दिखाता है। मैं उन्हें कसूरवार नहीं मानता हूं। लेकिन, पूरी गंभीरता से कहूं तो घुटन पैदा करने वाले पीपीई सूट को पहनकर काम करने को छोड़ दिया जाए तो क्लिनिकल मैनेजमेंट पर उतना बुरा असर नहीं होता है जितनी बड़ी चुनौती आज के वक्त में मरीज़ों के रिश्तेदारों के साथ भावनात्मक रूप से पैदा हालात से निबटने की होती है।
 
डॉक्टरों के सामने आज यही सबसे बड़ी चुनौती है। इसका असर हम सभी डॉक्टरों पर पड़ रहा है। कोविड वॉर्ड में मेरे दो फिजीशियन सहयोगी पॉज़िटिव पाए गए। अब हमारे एक प्रोफ़ेसर पॉज़िटिव निकले हैं। पिछले हफ़्ते मैं कोविड ड्यूटी पर था क्योंकि हमारे सीनियर रेजिडेंट इससे पिछले हफ़्ते काम करने के चलते अनिवार्य छुट्टी पर थे। कोविड वॉर्ड में ड्यूटी कर रहे डॉक्टरों को एक हफ़्ते का ऑफ़ दिया जाता है और उसके बाद ही वे ड्यूटी पर लौट सकते हैं।
 
महज दो दिन बाद मैं कोविड पॉज़िटिव निकला हूं। फ़िलहाल मैं होम क्वारंटीन में हूं और मौजूदा मानव संसाधन पर इस वक्त भारी तनाव है। हालांकि ठीक होकर मैं एक बार फिर अस्पताल में मरीज़ों के इलाज में जुट जाऊंगा।
(डॉ. मालविका बर्मन)
 
डॉक्टर जो नहीं डरती कोरोना से
 
असम से बीबीसी के सहयोगी दिलीप कुमार शर्मा ने उस महिला डॉक्टर डॉ. मालविका बर्मन से बात की जिनकी कहानी कोरोना से संक्रमित होने और उस पर जीत के बाद एक नए जज़्बे के साथ वापस काम पर लौटने की है। पढ़ें क्या बताया डॉक्टर मालविका ने।
 
मार्च में जब कोविड लेकर चीन के कुछ वीडियो सामने आए थे तब मुझे डर लगा था। मुझे पूरा अनुमान था कि ये असम तक भी ज़रूर पहुंचेगा। और जब असम में पहला मरीज मिला तो बतौर डॉक्टर मेरे दिमाग में सिर्फ़ एक ही बात थी कि हमें इससे हर हाल में निबटना है।
 
मैं गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज ऐंड हॉस्पिटल के जैव रसायन विभाग की लेबोरेटरी में काम करती हूं। कोरोनो संक्रमित मरीज़ों का संक्रमित ख़ून बायो केमिकल एनालिसिस के लिए हमारे लेबोरेटरी में आता है।
 
इस बीच रोटेशन के तहत मेरी ड्यूटी गुवाहाटी के महेंद्र मोहन चौधरी अस्पताल में लगी थी जो पूरी तरह कोविड अस्पताल है। यह जून के महीने की बात है। अब चूक कहां हुई ये तो पता नहीं लेकिन मैं उसी दौरान संक्रमित हुई।
 
मैं सिंगल मदर हूं और मेरी 10 साल की एक बेटी है। मेरे 83 वर्षीय पिता और 70 साल की मां दोनों डायबिटीज और उच्च रक्तचाप से ग्रस्त है। दोनों मेरे साथ रहते हैं। माता-पिता और बेटी को हाई रिस्क होने के कारण मैंने खुद को चार महीने सेल्फ़ आइसोलेशन में रखा। मार्च से ही जब भी मैं अस्पताल से घर लौटती थी तो मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि मैं शायद कोविड पॉज़िटिव हो गई हूं। इसलिए घर पर मेरी बेटी और माता-पिता अलग फ्लोर पर रहते थे और मैं अलग। हम ज़्यादातर वीडियो कॉलिंग पर ही बातें करते थे।
 
लेकिन 27 जून की रात हमें अस्पताल से पता चला कि हम सभी कोविड पॉज़िटिव हो गए हैं तो कुछ देर के लिए चिंतित ज़रूर हुई लेकिन मेरे साथ अस्पताल में काम करने वाले चिकित्सकों और बाक़ी साथियों ने काफ़ी साथ दिया। सबसे राहत की बात तो ये थी कि मेरे वृद्ध माता-पिता के शरीर में वायरल लोड कम था।
 
मैं अस्पताल में काम कर रही थी तो मुझे हमेशा यह लगता था कि कभी न कभी कोविड तो होगा ही इसलिए मैंने खुद को आइसोलेशन में रखा था लेकिन परिवार के बाक़ी सदस्यों को ये कैसे हुआ तो इस पर मुझे ये लगता है कि सबसे पहले हमारे घर का जो मुख्य हेल्पर है वह बीमार पड़ा। ये हेल्पर ही मुझे हर ज़रूरत के सामान लाकर देता था और बाक़ी के सदस्यों को भी घर के काम में मदद करता था। शायद यहीं चूक हुई होगी।
 
जब वह कोविड पॉज़िटिव पाया गया तो हम सभी ने जांच करवाई और हमारा भी रिजल्ट पॉज़िटिव आया। मैं अस्पताल में भर्ती हुई और वहां पहले से इलाज करा रहे स्वास्थ्यकर्मियों और अन्य विभाग के लोगों को देखा जो ड्यूटी के दौरान संक्रमित हुए थे तो मेरे अंदर बहुत शक्ति आ गई।
 
मैंने ठान लिया कि मुझे जल्द ठीक होकर काम पर लौटना है। क्योंकि मानव सेवा करने का इससे बड़ा मौका जीवन में फिर नहीं आ सकता। ठीक होने के अगले दिन ही मैंने ड्यूटी ज्वाइन कर ली।
(डॉक्टर समीरन डे)
 
'कोरोना से डरें नहीं, जीतना मुश्किल नहीं'
 
कोलकाता से बीबीसी के सहयोगी प्रभाकर मणि तिवारी ने कोरोना मुक्त होने वाले सरकारी अस्पताल के डॉक्टर समीरन डे से बात की। डॉक्टर समीरन बताते हैं कि उन्होंने कोरोना को कैसे हराया और साथ ही वो इससे जूझ रहे लोगों को सलाह भी देते हैं।
 
मेरा नाम समीरन डे है। मैं कोरोना से जीत कर दोबारा अपने काम पर लौट चुका हूं। कोरोना होने और इसके ख़िलाफ़ जीत की कहानी लंबी तो है। लेकिन कोरोना को हराना मुश्किल नहीं है। यह बीमारी हमेशा जानलेवा नहीं होती। हम कुछ एहतियात और सावधानियों के साथ इस पर जीत हासिल कर सकते हैं।
 
बीती 27 मई को ड्यूटी ख़त्म करने के बाद मुझे महसूस हुआ कि अचानक स्वाद की अनुभूति ख़त्म हो गई है। बार-बार छींक आ रही थी, लेकिन बुख़ार नहीं था। एक जून को मुझे अस्वस्थता महसूस हुई और साथ ही हल्का बुख़ार (99 डिग्री फॉरेनहाइट) भी था। अगले दिन यानी दो जून को मुझे कमज़ोरी महसूस होने लगी और बुख़ार 100 से 101 डिग्री तक पहुंच गया।
उसके बाद मैं मेटियाबुर्ज स्थित अपने अस्पताल में ही भर्ती हो गया। मुझे पैरासिटामोल टेबलेट के साथ ही विटामिन सी के कैप्सूल और एजिथ्रोमाइसिन 500 टेबलेट दिए गए। लेकिन हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन नहीं दी गई।
 
उसी दिन मेरा नमूना लेकर जांच के लिए एसएसकेएम मेडिकल कॉलेज अस्पताल भेजा गया। चार जून तक बुख़ार कम हो गया था लेकिन कमज़ोरी जस की तस थी। उधर एसएसकेएम से आरटीपीसीआर (RTPCR) रिपोर्ट मिलने में देरी हो रही थी। इस वजह से अस्पताल के अधिकारियों ने दक्षिण कोलकाता के बांगुर ज़िला अस्पताल में दोबारा जांच के लिए मेरा नमूना भेजा।
 
चार जून को ही वहां ट्रूनेट (Truenat) और आरटीपीसीआर (RTPCR) के लिए मेरा नमूना भेज दिया गया। उस दिन मेरे ट्रूनेट (Truenat) टेस्ट की रिपोर्ट पॉज़िटिव आई। उसके बाद मुझे अपने अस्पताल के आइसोलेशन वार्ड में शिफ़्ट कर दिया गया।
 
6 जून को एसएसकेएम अस्पताल से आरटीपीसीआर (RTPCR) की रिपोर्ट नेगेटिव आई थी और अगले दिन यानी 7 जून को बांगुर जिला अस्पताल से भी यह रिपोर्ट नेगेटिव ही आई। उसके बाद मुझे 7 दिनों तक होम आइसोलेशन में रहने की सलाह देकर अस्पताल से छोड़ दिया गया। आठ जून को मैं पूरी तरह सामान्य था। न तो बुख़ार था और न ही कमज़ोरी।
 
मैं लोगों को यही सलाह दूंगा कि संक्रमित होने की स्थिति में डरें नहीं। कोरोना हमेशा जानलेवा नहीं होता। संक्रमण के बाद ठीक होने तक मसालेदार भोजन की जगह ऊर्जा से भरपूर खाद्य पदार्थों का सेवन कें। इससे मुझे कमज़ोरी पर शीघ्र काबू पाने में सहायता मिली।
 
मेरी सलाह है कि आइसोलेशन में रहने के दौरान गाने सुनें, फ़िल्में देखें और किताबें पढ़ें। इससे तनाव पर काबू पाने में सहायता मिलेगी। मेरी वजह से तनाव के कारण मेरे माता-पिता को भी काफ़ी मुश्किलें उठानी पड़ी। मां को बुख़ार और डायरिया हो गया और पिता को भी बुख़ार हो गया था। लेकिन वह लोग मेरी बताई दवाओँ के सेवन से ही ठीक हो गए थे।
 
मैं पहले जैसी ऊर्जा के साथ ही दोबारा काम पर लौट आया हूं। हम जिन हालात में काम कर रहे हैं उनमें तमाम सावधानियों के बावजूद कभी भी किसी को संक्रमण हो सकता है। लेकिन इससे हारने और डरने की बजाय आत्मविश्वास बनाए रखें। तमाम एहतियाती उपायों का पालन करते रहें। आख़िर में जीत तय है।
 
'डर बना रहता, कहीं दोबारा कोरोना संक्रमित न हो जाउं'
 
राजस्थान में बीबीसी के सहयोगी मोहर सिंह मीणा ने जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में डॉक्टर नवलीन खुराना से बात की जो खुद कोरोना से संक्रमित हुईं। अस्पताल में भर्ती हुईं फिर होम क्वारंटीन किया और वापस मरीज़ों के इलाज में जुट गई हैं।
 
कोरोना के मरीज़ों के इलाज से लेकर खुद रोगी बनने और फिर मरीज़ों के पास वापसी की कहानी खुद डॉक्टर नवलीन खुराना की जुबानी। जब कोरोना स्टार्ट हुआ था, तब तो केस कम थे। उस दौरान मैं ऑपरेशन थिएटर (ओटी) में पोस्टेड थी। यह नया नया स्टार्ट हुआ था, तो किसी को भी पीपीई किट्स और एन-95 की अवेयरनेस नहीं थी और न ही यह आसानी से उपलब्ध थे।
 
अप्रैल में मेरी ड्यूटी इमरजेंसी ऑपरेशन थिएटर में थी। तब शायद एक अनजान मरीज़ का इलाज करते हुए ही मैं कोरोनावायरस से संक्रमित हुई और मेरी कोविड-19 रिपोर्ट पॉज़िटिव आई। रिपोर्ट आने के बाद 4 दिन मुझे आईसोलेशन वार्ड में रखा गया, मेरी अगली रिपोर्ट नेगेटिव आई तो मुझे डिस्चार्ज कर दिया गया।
 
डिस्चार्ज होने के बाद मैं 14 दिन के लिए होम क्वारंटीन में रही और फिर से सैंपल लिया गया। इस बार भी रिपोर्ट नेगेटिव आई, जिसके बाद फिर मैं मरीज़ों का इलाज करने के लिए ड्यूटी पर लौट आई। वो आप्रवासी डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी, जो ब्रिटेन में लोगों की मदद करते हुए जान गंवा रहे।
इमरजेंसी ओटी में आने वाले पेशेंट पॉज़िटिव हैं या नेगेटिव, यह मालूम नहीं होता। इसलिए पूरी सावधानी बरतते हुए अब मरीज़ों का इलाज कर रहे हैं।
 
पहले तो पीपीई किट और एन-95 मास्क भी जल्दी नहीं मिल रहे थे, लेकिन अब सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं। अभी मेरी ड्यूटी सवाई मानसिंह अस्पताल (एसएमएस) के रुटीन और इमरजेंसी ओटी में है और एसएमएस को कोरोना फ़्री कर दिया गया है। सभी कोरोना पेशेंट का इलाज आरयूएचएस में चल रहा है।
 
आरयूएचएस अस्पताल के कोविड वार्ड में जो मेरे सीनियर्स डॉक्टर में ड्यूटी कर रहे हैं, उनके लिए बहुत ज़्यादा हेक्टिक है। वह 7 दिन ड्यूटी करते हैं और फिर 7 दिनों के लिए क्वारंटीन में रहते हैं। अपने अस्पताल से कोरोना पॉज़िटिव होने वाली मैं दूसरी डॉक्टर थी।
 
मेरी कोविड-19 रिपोर्ट पॉज़िटिव आई तो पहले तो कुछ समझ ही नहीं आया। फिर धीरे धीरे स्थितियां सही होती गईं। रिस्क अब भी बहुत है क्योंकि फिर से इंफ़ेक्शन के चांस रहते हैं। इसलिए यह डर बना रहता है कि कहीं कोरोना वापस न हो जाए। घर वालों से भी डिस्टेंस मेंटेन करती हूं। (फोटो सौजन्य : बीबीसी)
 
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