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Written By BBC Hindi
Last Updated : सोमवार, 10 अक्टूबर 2022 (19:06 IST)

मुलायम सिंह यादव : सियासी अखाड़े के बड़े खिलाड़ी, जिन्होंने कई सरकारें बनाईं और बिगाड़ीं

मुलायम सिंह यादव : सियासी अखाड़े के बड़े खिलाड़ी, जिन्होंने कई सरकारें बनाईं और बिगाड़ीं - Samajwadi Party leader mulayam singh yadav Passes away
-रेहान फ़ज़ल
समाजवादी पार्टी के संस्थापक और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का निधन हो गया है। वे पिछले कई दिनों से बीमार थे और गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में भर्ती थे।
 
कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव की जवानी के दिनों में अगर उनका हाथ अपने प्रतिद्वंदी की कमर तक पहुंच जाता था, तो चाहे वो कितना ही लंबा या तगड़ा हो, उसकी मजाल नहीं थी कि वो अपने-आप को उनकी गिरफ़्त से छुड़ा ले। आज भी उनके गांव के लोग उनके 'चर्खा दांव' को नहीं भूले हैं, जब वो बिना अपने हाथों का इस्तेमाल किए हुए पहलवान को चारों ख़ाने चित कर देते थे।
 
मुलायम सिंह यादव के चचेरे भाई प्रोफ़ेसर राम गोपाल ने एक बार बीबीसी को बताया था, 'अखाड़े में जब मुलायम की कुश्ती अपने अंतिम चरण में होती थी तो हम अपनी आंखें बंद कर लिया करते थे। हमारी आंखें तभी खुलती थीं जब भीड़ में से आवाज़ आती थी, 'हो गई, हो गई' और हमें लग जाता था कि हमारे भाई ने सामने के पहलवान को पटक दिया है।'
 
अध्यापक बनने के बाद मुलायम ने पहलवानी करनी पूरी तरह से छोड़ दी थी। लेकिन अपने जीवन के आख़िरी समय तक वो अपने गांव सैफई में दंगलों का आयोजन कराते रहे। लेकिन उत्तर प्रदेश पर नज़र रखने वाले कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कुश्ती के इस गुर की वजह से ही मुलायम राजनीति के अखाड़े में भी उतने ही सफल रहे, जबकि उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी।
 
मुलायम सिंह की प्रतिभा को सबसे पहले पहचाना था प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक नेता नाथू सिंह ने, जिन्होंने 1967 के चुनाव में जसवंतनगर विधानसभा सीट का उन्हें टिकट दिलवाया था। उस समय मुलायम की उम्र सिर्फ़ 28 साल थी और वो प्रदेश के इतिहास में सबसे कम उम्र के विधायक बने थे। उन्होंने विधायक बनने के बाद अपनी एमए की पढ़ाई पूरी की थी।
 
जब 1977 में उत्तर प्रदेश में रामनरेश यादव के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी, तो मुलायम सिंह को सहकारिता मंत्री बनाया गया। उस समय उनकी उम्र थी सिर्फ़ 38 साल।
 
मुख्यमंत्री की दौड़ में अजीत सिंह को हराया : चौधरी चरण सिंह मुलायम सिंह को अपना राजनीतिक वारिस और अपने बेटे अजीत सिंह को अपना क़ानूनी वारिस कहा करते थे। लेकिन जब अपने पिता के गंभीर रूप से बीमार होने के बाद अजीत सिंह अमेरिका से वापस भारत लौटे, तो उनके समर्थकों ने उन पर ज़ोर डाला कि वो पार्टी के अध्यक्ष बन जाएं।
 
इसके बाद मुलायम सिंह और अजीत सिंह में प्रतिद्वंद्विता बढ़ी। लेकिन उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का मौक़ा मुलायम सिंह को मिला। 5 दिसंबर, 1989 को उन्हें लखनऊ के केडी सिंह बाबू स्टेडियम में मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई और मुलायम ने रुंधे हुए गले से कहा था, 'लोहिया का ग़रीब के बेटे को मुख्यमंत्री बनाने का पुराना सपना साकार हो गया है।'
 
परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा : मुख्यमंत्री बनते ही मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में तेज़ी से उभर रही भारतीय जनता पार्टी का मज़बूती से सामना करने का फ़ैसला किया। उस ज़माने में उनके कहे गए एक वाक्य 'बाबरी मस्जिद पर एक परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा' ने उन्हें मुसलमानों के बहुत क़रीब ला दिया।
 
यही नहीं, जब दो नवंबर, 1990 को कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद की तरफ़ बढ़ने की कोशिश की, तो उन पर पहले लाठीचार्ज फिर गोलियां चली, जिसमें एक दर्जन से अधिक कार सेवक मारे गए। इस घटना के बाद से ही बीजेपी के समर्थक मुलायम सिंह यादव को 'मौलाना मुलायम' कह कर पुकारने लगे।
 
चार अक्तूबर, 1992 को उन्होंने समाजवादी पार्टी की स्थापना की। उन्हें लगा कि वो अकेले भारतीय जनता पार्टी के बढ़ते हुए ग्राफ़ को नहीं रोक पाएंगे। इसलिए उन्होंने कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया। कांशीराम से उनकी मुलाक़ात दिल्ली के अशोक होटल में उद्योगपति जयंत मल्होत्रा ने करवाई थी।
 
1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को 260 में से 109 और बहुजन समाज पार्टी को 163 में से 67 सीटें मिलीं थीं। भारतीय जनता पार्टी को 177 सीटों से संतोष करना पड़ा था और मुलायम सिंह ने कांग्रेस और बीएसपी के समर्थन से राज्य में दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी।
जब कांशीराम ने मुलायम को चार घंटे तक इंतज़ार करवाया : लेकिन यह गठबंधन बहुत दिनों तक नहीं चला, क्योंकि बहुजन समाज पार्टी ने अपने गठबंधन सहयोगी के सामने बहुत सारी मांगें रख दीं। मायावती मुलायम के काम पर बारीक नज़र रखतीं और जब भी उन्हें मौक़ा मिलता, उन्हें सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने से नहीं चूकतीं। कुछ दिनों बाद कांशीराम ने भी मुलायम सिंह यादव की अवहेलना करनी शुरू कर दी।
 
उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव रहे टीएस आर सुब्रमण्यम अपनी किताब 'जरनीज़ थ्रू बाबूडम एंड नेतालैंड' में लिखते हैं, 'एक बार कांशीराम लखनऊ आए और सर्किट हाउस में ठहरे। उनसे पहले से समय लेकर मुलायम सिंह उनसे मिलने पहुंचे। उस समय कांशीराम अपने राजनीतिक सहयोगियों के साथ मंत्रणा कर रहे थे। उनके स्टाफ़ ने मुलायम से कहा कि वो बग़ल के कमरे में बैठ कर कांशीराम के काम से ख़ाली होने का इंतज़ार करें।'
 
'कांशीराम की बैठक दो घंटे तक चली। जब कांशीराम के सहयोगी बाहर निकले तो मुलायम ने समझा कि अब उन्हें अंदर बुलाया जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक घंटे बाद जब मुलायम ने पूछा कि अंदर क्या हो रहा है तो उन्हें बताया गया कि कांशीराम दाढ़ी बना रहे हैं और इसके बाद वो स्नान करेंगे। मुलायम बाहर इंतज़ार करते रहे। इस बीच कांशीराम थोड़ा सो भी लिए। चार घंटे बाद वो मुलायम सिंह से मिलने बाहर आए।'
 
'वहां मौजूद मेरे जानने वालों का कहना है कि इस बात का तो पता नहीं कि उस बैठक में क्या हुआ लेकिन ये साफ़ था कि जब मुलायम कमरे से बाहर निकले तो उनका चेहरा लाल था। कांशीराम ने ये भी मुनासिब नहीं समझा कि वो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को बाहर उनकी कार तक छोड़ने आते।'
 
उसी शाम कांशीराम ने बीजेपी नेता लालजी टंडन से संपर्क किया और कुछ दिनों बाद बहुजन समाज पार्टी ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इससे पहले दो जून को जब मायवती लखनऊ आईं, तो मुलायम के समर्थकों ने राज्य गेस्ट हाउस में मायवती पर हमला किया और उन्हें अपमानित करने की कोशिश की। इसके बाद इन दोनों के बीच जो खाई पैदा हुई, उसे दो दशकों से भी अधिक समय तक पाटा नहीं जा सका।
 
मुलायम सिंह और अमर सिंह की दोस्ती : 29 अगस्त 2003 को मुलायम सिंह यादव ने तीसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस बीच उनकी अमर सिंह से गहरी दोस्ती हो गई। मुलायम ने अमर सिंह को राज्यसभा का टिकट दे दिया और बाद में उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया। जिसकी वजह से पार्टी के कई बड़े नेताओं ने, जिनमें बेनीप्रसाद वर्मा भी शामिल थे, मुलायम सिंह यादव से दूरी बना ली।
 
एक बार बीबीसी से बात करते हुए बेनी प्रसाद वर्मा ने कहा था, 'मैं मुलायम सिंह को बहुत पसंद करता था। एक बार रामनरेश यादव के हटाए जाने के बाद मैंने चरण सिंह से मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री बनाए जाने की सिफ़ारिश की थी। लेकिन चरण सिंह मेरी सलाह पर हंसते हुए बोले थे इतने छोटे क़द के शख़्स को कौन अपना नेता मानेगा। तब मैंने उनसे कहा था, नेपोलियन और लाल बहादुर शास्त्री भी तो छोटे क़द के थे। जब वो नेता बन सकते हैं तो मुलायम क्यों नहीं। चरण सिंह ने मेरा तर्क स्वीकार नहीं किया था।'
 
प्रधानमंत्री पद से चूके : मुलायम सिंह यादव 1996 में यूनाइटेड फ़्रंट की सरकार में रक्षा मंत्री बने। प्रधानमंत्री के पद से देवेगौड़ा के इस्तीफ़ा देने के बाद वो भारत के प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए। शेखर गुप्ता ने इंडियन एक्सप्रेस के 22 सितंबर, 2012 के अंक में 'मुलायम इज़ द मोस्ट पॉलिटिकल' लेख में लिखा, 'नेतृत्व के लिए हुए आंतरिक मतदान में मुलायम सिंह यादव ने जीके मूपनार को 120-20 के अंतर से हरा दिया था।'
 
'लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वी दो यादवों लालू और शरद ने उनकी राह में रोड़े अटकाए और इसमें चंद्रबाबू नायडू ने भी उनका साथ दिया, जिसकी वजह से मुलायम को प्रधानमंत्री का पद नहीं मिल सका। अगर उन्हें वो पद मिला होता तो वो गुजराल से कहीं अधिक समय तक गठबंधन को बचाए रखते।'
 
विश्वसनीयता पर सवाल : मुलायम सिंह भारतीय राजनीति में कभी भी विश्वसनीय सहयोगी नहीं माने गए। पूरी उम्र चंद्रशेखर उनके नेता रहे, लेकिन जब 1989 में प्रधानमंत्री चुनने की बात आई तो उन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह का समर्थन किया। थोड़े दिनों बाद जब उनका वीपी सिंह से मोह भंग हो गया, तो उन्होंने फिर चंद्रशेखर का दामन थाम लिया।
 
वर्ष 2002 में जब एनडीए ने राष्ट्रपति पद के लिए एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे किया, तो वामपंथी दलों ने उसका विरोध करते हुए कैप्टन लक्ष्मी सहगल को उनके ख़िलाफ़ उतारा। मुलायम ने आख़िरी समय पर वामपंथियों का समर्थन छोड़ते हुए कलाम की उम्मीदवारी पर अपनी मोहर लगा दी।
 
वर्ष 2008 में भी जब परमाणु समझौते के मुद्दे पर लेफ़्ट ने सरकार से समर्थन वापस लिया, तो मुलायम ने उनका साथ न देते हुए सरकार के समर्थन का फ़ैसला किया जिसकी वजह से मनमोहन सिंह की सरकार बच गई। 2019 के आम चुनाव में भी उन्होंने कई राजनीतिक विश्लेषकों को आश्चर्यचकित कर दिया, जब उन्होंने कहा कि वो चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनें।
 
सोनिया गांधी को मना करने के पीछे की कहानी : 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के गिरने के बाद मुलायम सिंह ने कांग्रेस से कहा कि वो उनका समर्थन करेंगे। उनके इस आश्वासन के बाद ही सोनिया गांधी ने कहा था कि उनके पास 272 लोगों का समर्थन है। लेकिन बाद में वो इससे मुकर गए और सोनिया गांधी की काफ़ी फ़ज़ीहत हुई।
 
लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री, माई लाइफ़' में इस प्रकरण का ज़िक्र करते हुए लिखा है, '22 अप्रैल की देर रात मेरे पास जॉर्ज फ़र्नांडीस का फ़ोन आया। उन्होंने मुझसे कहा, लालजी मेरे पास आपके लिए अच्छी ख़बर है। सोनिया गांधी सरकार नहीं बना पाएंगी। उन्होंने कहा कि विपक्ष का एक महत्वपूर्ण व्यक्ति आपसे मिलना चाहता है। लेकिन ये बैठक न तो आपके घर पर हो सकती है और न मेरे घर पर। ये बैठक जया जेटली के सुजान सिंह पार्क के घर में होगी। जया आपको अपनी कार में लेने आएंगीं।'
 
आडवाणी आगे लिखते हैं, 'जब मैं जया जेटली के घर पहुंचा तो वहां फ़र्नांडीस और मुलायम सिंह यादव पहले से ही मौजूद थे। फ़र्नांडीस ने कहा, 'हमारे दोस्त का वादा है कि उनकी पार्टी के 20 सदस्य किसी भी हालत में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की मुहिम को समर्थन नहीं देंगे।' मुलायम सिंह यादव ने फ़र्नांडीस की कही बात दोहराते हुए कहा कि 'आपको भी मुझसे एक वादा करना होगा कि आप दोबारा सरकार बनाने का दावा पेश नहीं करेंगे। मैं चाहता हूं कि चुनाव दोबारा हों।' मैं इसके लिए फ़ौरन राज़ी हो गया।'
 
दो शादियां की थीं मुलायम सिंह यादव ने : 1957 में मुलायम सिंह यादव का विवाह मालती देवी से हुआ। 2003 में उनके देहावसान के बाद मुलायम सिंह यादव ने साधना गुप्ता से दूसरी शादी की। इस संबंध को बहुत दिनों तक छिपाकर रखा गया और शादी में भी बहुत नज़दीकी लोग ही सम्मिलित हुए।
 
इस शादी के बारे में लोगों को पहली बार तब पता चला जब मुलायम सिंह यादव ने आय से अधिक धन मामले में सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा देकर कहा कि उनकी एक पत्नी और हैं। जब मुलायम ने 2003 में साधना गुप्ता से शादी की तो पहली पत्नी से उनके पुत्र अखिलेश यादव की न सिर्फ़ शादी हो चुकी थी बल्कि उनको एक बच्चा भी हो चुका था।
परिवारवाद बढ़ाने के आरोप : मुलायम सिंह यादव पर परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोप भी लगे। 2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में कुल पांच सीटें मिलीं और ये पांचों सांसद यादव परिवार के सदस्य थे। 2012 का विधानसभा जीतने के बाद उन्होंने अपने बेटे अखिलेश यादव को अपना उत्तराधिकारी बनाया। लेकिन मुलायम द्वारा सरकार को 'रिमोट कंट्रोल' से चलाने के आरोपों के बीच अखिलेश 2017 का विधानसभा चुनाव हार गए।
 
चुनाव से कुछ दिनों पहले अखिलेश ने उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से हटा दिया। मुलायम ने चुनाव प्रचार में भाग नहीं लिया और हार का ठीकरा अपने बेटे पर फोड़ते हुए कहा कि अखिलेश ने मुझे अपमानित किया है। अगर बेटा बाप के प्रति वफ़ादार नहीं है तो वो किसी का भी नहीं हो सकता।
 
मुलायम की इच्छा के ख़िलाफ़ अखिलेश ने मायावती के साथ मिलकर 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा। एक साल पहले तक इस गठबंधन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। ये अलग बात है कि इस गठबंधन को मुंह की खानी पड़ी और कुछ दिनों के भीतर ये गठबंधन भी टूट गया।