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Last Modified: मंगलवार, 9 अप्रैल 2019 (14:28 IST)

वायनाड से चुनाव लड़ना राहुल गांधी का दक्षिण भारत में मास्टर स्ट्रोक: नज़रिया

वायनाड से चुनाव लड़ना राहुल गांधी का दक्षिण भारत में मास्टर स्ट्रोक: नज़रिया - rahul gandhi wayanad seat
- कृष्णा प्रसाद (वरिष्ठ पत्रकार)
 
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी के साथ साथ उत्तरी केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ रहे हैं। उनके यहां से चुनाव लड़ने पर उम्मीद के मुताबिक ही काफी प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं। बीजेपी यह कह रही है कि वे हिंदू मतदाताओं से भाग रहे हैं हालांकि 2011 की जनगणना के मुताबिक अमेठी में मुस्लिम आबादी 33.04 फीसदी है, जबकि वायनाड में 28.65 फ़ीसदी मुसलमान हैं।
 
 
वहीं वामपंथी दल ये मान रहे हैं कि राहुल गांधी उन्हें चुनौती दे रहे हैं जबकि दस साल पहले बनी इस संसदीय सीट पर कांग्रेस ने अब तक हुए दोनों चुनाव में सीपीआई को हराया है। हालांकि 2014 में कांग्रेस की जीत का अंतर बेहद कम रह गया था। वहीं कांग्रेस को भरोसा है कि वायनाड से राहुल गांधी के चुनाव लड़ने से केरल के अलावा तमिलनाडु और कर्नाटक की सीटों पर भी साकारात्मक असर होगा।
 
 
कांग्रेस के तर्क को आत्म संतुष्टि वाला आकलन कह सकते हैं। क्योंकि वायनाड की सात विधानसभा सीटों में से चार सीटों पर सीपीएम और सीपीएम समर्थित एक निर्दलीय का कब्जा है। वहीं तमिलनाडु की थानी सीट से एआईएडीएमके ने उप-मुख्यमंत्री ओ. पनीरसेल्वन के बेटे को उम्मीदवार बनाया है जिनका मुकाबला कांग्रेस के उम्मीदवार ईवीकेएस इलनगोवान है। इलनगोवान पेरियार के पोते हैं। कर्नाटक के चमराजनगर में कांग्रेस के ध्रुव नारायण मौजूदा सांसद हैं, उन्हें 16वीं लोकसभा के सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले सांसदों में शामिल हैं, वो भी तब जब राहुल गांधी बगल वाली सीट से चुनाव नहीं लड़े थे। जाहिर है, सच इन सबके बीच कहीं होगा।
 
 
कांग्रेसी परंपरा
ऐतिहासिक तौर पर, गांधी परिवार रायसीना की सत्ता को हासिल करने के लिए दक्षिण में नीचे का रास्ता पकड़ती रही है। आपातकाल में हार के बाद, इंदिरा गांधी ने संसद में वापसी के लिए 1978 में चिकमंगलूर का रास्ता चुना था, साथ में 1980 में इंदिरा गांधी मेढ़क से चुनाव जीतने में कामयाब रही। 1999 में, उनकी पुत्रवधू सोनिया गांधी ने बेल्लारी से अपनी शुरुआत की थी।
 
 
अपनी दादी और मां की तरह, राहुल गांधी ने दक्षिण भारत से चुनाव लड़ने का सुरक्षित रास्ता अपनाया है। पुलवामा हमले के बाद 'डेली थांती' में एक सर्वे छपा था, जिसमें यह दिखा था कि राहुल गांधी की लोकप्रियता बीते एक महीने में बढ़ी थी जो 41 फीसदी थी, जबकि मोदी की लोकप्रियता 26 फीसदी थी।
 
 
एक अन्य सर्वे इंडिया टुडे में प्रकाशित हुआ था, जिसके मुताबिक केरल के 64 फीसदी लोग राहुल गांधी को अगले प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं जबकि मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर देखने वाले लोगों की आबादी 22 फीसदी है। लेकिन 2019 में कांग्रेस की कहानी में कई और पेंच भी हैं। कर्नाटक अब उतना सुरक्षित नहीं रह गया है, जबकि आंध्र प्रदेश, अब आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, दो राज्यों में बंट चुका है और तमिलनाडु किसी बाहरी के लिए अभी भी अनुकूल नहीं रह गया है।
 
 
इसलिए राहुल ने केरल को चुना है, शायद
पिछले सप्ताह नामांकन पत्र दाखिल करने के बाद राहुल गांधी ने कहा, "दक्षिण भारत के लोगों को अपनी भाषा, संस्कृति और इतिहास, को लेकर आरएसएस, बीजेपी और नरेंद्र मोदी से ख़तरा महसूस हो रहा है। मैं दक्षिण भारत के लोगों को बताना चाहता हूं कि मैं उनके साथ खड़ा हूं। कांग्रेस पार्टी उनके साथ खड़ी है।"
 
 
इसके बाद से कई कांग्रेसी नेताओं ने बताया कि राहुल गांधी की वायनाड से उम्मीदवारी, मोदी सरकार के दक्षिण भारत की उपेक्षा का जवाब है। कांग्रेसी सांसद शशि थरूर ने द प्रिंट में लिखा है, "केंद्र में बीजेपी नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दौर में दक्षिण भारतीय राज्यों और केंद्र सरकार के आपसी संबंध ख़राब हुए हैं।"
 
 
वहीं कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरेजवाला ने कहा, "राहुल गांधी उत्तर और दक्षिण भारत के आपसी रिश्तों को मजबूत करेंगे।" दूसरे शब्दों में, जब नरेंद्र मोदी और बीजेपी राष्ट्रवादी राष्ट्रवाद का पैरोकार कर रही है जिसमें मजबूत नेता, मजबूत सीमा और सुरक्षित राष्ट्र की बात कही जा रही है। इसके जवाब में कांग्रेस दक्षिण भारत की क्षेत्रीय अस्मिता को मज़बूत करके वैकल्पिक राष्ट्रवाद के नैरेटिव को बढ़ा रही है।

 
कांग्रेस की रणनीति का दमखम
वैसे आंकड़ों में कांग्रेस की इस रणनीति में दम दिख रहा है। मोदी लहर पर सवार होने के बाद भी 2014 के चुनाव में बीजेपी को पांच दक्षिण भारतीय राज्यों की 112 सीटों में 20 सीटें हासिल हुई थीं। जिसमें 17 समुद्रतटीय और उत्तरी कनार्टक में हासिल हुए थे। बीजेपी ने इन राज्यों की 67 सीटों पर चुनाव लड़ा था। जहां देश भर में बीजेपी की स्ट्राइक रेट 60 फीसदी थी वहीं दक्षिण भारतीय राज्यों में ये महज 19 फ़ीसदी था।
 
बीजेपी की सरकार ने बीते पांच सालों में आपसी तालमेल वाले संघीय ढांचे की बात जोरशोर से भले उठायी हो लेकिन उसने दक्षिण भारत को कांग्रेस, वामपंथी दलों और क्षेत्रीय दलों के लिए खुला छोड़ दिया है।

 
उदाहरण के लिए
मोदी सरकार ने आंध्र प्रदेश के लिए स्पेशल पैकेज की घोषणा करने के बाद कदम पीछे खींच लिए, जिसके चलते तेलगूदेशम एनडीए से अलग हो गई। संयुक्त अरब अमीरात ने केरल को बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए 700 करोड़ रुपए मदद देने की घोषणा की थी लेकिन इसे केंद्र सरकार ने रोक दिया था।
 
 
तमिलनाडु में साइक्लोन गांजा से बेघर लोगों को मदद पहुंचाने में नाकाम रही, जिसके बाद गोबैक मोदी ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा था। केंद्र सरकार ने सूखा से प्रभावित कर्नाटक के लिए केवल 950 करोड़ रुपए जारी किए जबकि आधिकारिक प्रावधानों के तहत 4,500 करोड़ रुपए दिए जाने थे। इतना ही नहीं मनरेगा के अधीन 70 फीसदी फंड को जारी नहीं किया गया।
 
 
इस बात पर लोगों को अचरज हुआ जब 15वीं वित्त आयोग ने 2011 के जनगणना के आंकड़ों का आधार किया है, जबकि 14वीं वित्त आयोगम 1971 के आंकड़े लिए गए थे। इस वजह से कहीं ज्यादा शिक्षित दक्षिण भारतीय राज्यों को बेहतर परिवार नियोजन और कम आबादी के चलते कम अनुदान भी मिला।
 
 
बीजेपी इन सवालों के जवाब को पैसों के आवंटन से जोड़ती रही है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कहते रहे हैं कि जबसे एनडीए की सरकार बनी है तबसे दक्षिण भारतीय राज्यों को कहीं ज्यादा पैसा मिला है। हालांकि वे ऐसा कहते वक्त ये भूल जाते हैं कि दक्षिण भारतीय राज्य राष्ट्रीय राजस्व में कितना योगदान देते हैं। कर्नाटक और तमिलनाडु देश के आयकर जुटाने वाले देश के शीर्ष चार राज्यों में शामिल हैं।
 
 
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस स्टडीज के प्रोफेसर नरेंद्र पानी कहते हैं, "15वीं वित्त आयोग उत्तर ङाकच तो ज्यादा तरजीह दी गई क्योंकि वहां आबादी बहुत ज्यादा है। इसलिए भी दिल्ली की उपेक्षा के बाद भी दक्षिण भारतीय राज्यों के बेहतर करने की सोच को बढ़ावा मिला।"
 
 
दक्षिण भारतीय राज्यों के साथ भेदभाव
इसके अलावा दक्षिण भारतीय राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी कई बार अहम मुद्दों पर बातचीत के लिए प्रधानमंत्री से समय नहीं मिलने की शिकायत की। इसके अलावा केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल और लेफ्टिनेंट गवर्नर भी केंद्र सरकार के इशारों पर काम कर रहे होते हैं।
 
 
इसके अलावा अलग अलग राज्यों के अपने मसले भी रहे हैं। तमिलनाडु में एनईईटी, जलीकट्टू और स्टारलाइट, केरल में सबरीमला मंदिर में प्रवेश और कथित तौर पर आरएसएस कार्यकर्ता की हत्याएं, गोवा, कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच मांडवी और कावेरी नदी के पानी का बंटवारे के मुद्दों से बीजेपी के एंटी साउथ सेंटीमेंट को ही बढ़ावा दिया है।
 
 
कर्नाटक के ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री कृष्णा बायरे गौड़ा कहते हैं, "प्रधानमंत्री द्वारा कमतर आंके जाने का भाव रहा है।" जाहिर है कि पांचों दक्षिण भारतीय राज्यों के ये असमान मुद्दों की भूमिका विभिन्न स्तरों पर रही हैं, जो एक दूसरे से जुड़े भी नजर आते हैं। लेकिन सवाल वही है कि क्या राहुल गांधी की वायनाड से उम्मीदवारी कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के लिए मैजिक का काम कर पाएगी जो बीजेपी के अभियान को टक्कर दे पाएगी।
 
 
कांग्रेस ने इस तरह की क्षेत्रीयता और भाषाई रूढ़िवाद का सहारा कर्नाटक के विधानसभा चुनावों के दौरान लिया था। मेट्रो ट्रेन स्टेशनों में हिंदी भाषा का इस्तेमाल और कर्नाटक में कन्नड़ बोलने वालों को नौकरी में प्राथमिकता देने की मांग, एक तरह से स्मार्ट रणनीति का हिस्सा था।
 
 
लेकिन आख़िरकार, कर्नाटक में कांग्रेस 120 से एक तिहाई घटकर 80 सीट पर आ गई थी। वायनाड से उम्मीदवारी के बाद भी राहुल गांधी मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए विपक्षी दलों को दक्षिण भारत विरोधी के तौर पर प्रचारित करना जारी रखेंगे।
 
 
वहीं नरेंद्र मोदी, को चेन्नई एयरपोर्ट से आईआईटी मद्रास तक की पांच किलोमीटर की दूरी हेलिकॉप्टर से तय करनी पड़ी। उन्होंने काले झंडो के विद्रोह से बचने के लिए ऐसा किया था लेकिन उन्हें हेलिकॉप्टर में में काले बैलून देखने पड़ गए। बहरहाल, भारत के दोनों बड़े राजनीतिक दल इस बात को भूल रहे हैं कि दक्षिण भारत ही नहीं पूरे भारत के बहुत बड़े हिस्से में 'न्यूनतम आय' और 'संकल्पित भारत, सशक्त भारत' का कोई प्रभाव नहीं है।
 
 
(कृष्णा प्रसाद आउटलुक साप्ताहिक के पूर्व एडिटर इन चीफ़ हैं और भारतीय प्रेस काउंसिल के पूर्व सदस्य हैं)
 
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