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Last Updated : रविवार, 14 जुलाई 2019 (10:28 IST)

राहुल गांधी की कांग्रेस इन वजहों से चरमरा रही है : नज़रिया

राहुल गांधी की कांग्रेस इन वजहों से चरमरा रही है : नज़रिया - Rahul Gandhi Congress
कृष्णा प्रसाद (बीबीसी हिन्दी के लिए)
 
11 सितंबर 2001 को जब अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर चरमपंथी हमला हुआ तब दुनियाभर को सदमा पहुंचा था। उसी शाम एक यूरोपीय नीति-निर्माता भी खबरों में थे जिन्होंने यह सलाह दी कि मौजूदा समय किसी भी अलोकप्रिय फैसले को लागू करने का सबसे बेहतरीन समय है, क्योंकि हर किसी का ध्यान चरमपंथी गतिविधियों की ओर होगा।
 
मतलब अलोकप्रिय फैसले पर किसी का ध्यान नहीं जाएगा। दरअसल, यह भी एक तरह की राजनीतिक रणनीति ही है कि आप संकट के समय कुछ वैसा फैसला कर लें जिसे कर पाना शांति के दौर में संभव ही नहीं होगा। इसी सिद्धांत को 2007 में कनाडाई लेखक नेओमी क्लाइन ने अपनी पुस्तक 'शॉक डॉक्ट्रिन' में विस्तार से समझाया है।
 
कांग्रेस पार्टी के अंदर बीते 23 मई से क्या कुछ चल रहा है, इसे समझने का एक जरिया 'शॉक डॉक्ट्रिन' भी है। 2019 के आम चुनावों में मिली करारी हार और उस हार के सदमे ने कांग्रेस पार्टी को बीते 7 सप्ताह से नेतृत्व के स्तर पर भी भ्रम में डाल दिया है। इस स्थिति के चलते पार्टी के आलोचकों को, चाहे वो पार्टी के भीतर के हों या फिर बाहरी, पार्टी के अस्तित्व पर हमले करने का मौका मिल गया है।
 
हालांकि इस दौरान आम लोगों की इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनका ध्यान दूसरे मुद्दों की ओर है। आप अगर सर्च इंजन में 'कांग्रेस मेल्टडाउन' टाइप करें तो महज 0.3 सेकंड के अंदर तकरीबन 90 हजार लिंक दिखाई देने लगते हैं। हर रात टीवी पर कांग्रेस की स्थिति मांस के उस टुकड़े की तरह हो जाती है जिसे भेड़ियों के आगे फेंका जाना है।
 
बीजेपी का 'कांग्रेसविहीन भारत'
 
विभिन्न राज्यों में कांग्रेस के साथ जो कुछ हो रहा है, उन सबमें एक बात समान है- उसकी स्थिति की वजह भारतीय जनता पार्टी है और स्थिति का फायदा भी बीजेपी को ही हो रहा है। नरेन्द्र मोदी सरकार के पहले 5 साल के शासन के दौरान बीजेपी 'कांग्रेसमुक्त भारत' के अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाई इसलिए मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में 'कांग्रेसविहीन भारत' बनाने की कृत्रिम कोशिश की जा रही है।
 
कर्नाटक, गोवा और तेलंगाना में उन कांग्रेसियों को अपने पाले में लाया जा रहा है जिन्हें लग रहा है कि कांग्रेस एक डूबता हुआ जहाज है। बहरहाल, कांग्रेस की बढ़ती मुश्किलों के बीच 7 चीजें ऐसी हैं जिससे यह समझा जा सकता है कि कांग्रेस इस हाल तक क्यों पहुंची है, इसमें कुछ अप्रत्याशित नहीं हैं लेकिन ये कांग्रेस की चरमराती स्थिति की तस्वीर को पेश करती है।
 
क्या हैं कारण
 
बीजेपी ने हाल के चुनाव में जिस जोरदार अंदाज में जीत हासिल की है, उससे उसे दक्षिणी हिस्सों में अपनी पहुंच को बढ़ाने के लिए नए सिरे से कोशिश करने का उत्साह मिला है। मौजूदा चुनाव में उत्तर भारत में अपनी कामयाबी के बावजूद बीजेपी कर्नाटक को अपवाद मान ले तो दक्षिण भारत में उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं कर पाई।
 
केरल और तमिलनाडु में पार्टी का खाता तक नहीं खुला। आंध्रप्रदेश में पार्टी अपनी 2 सीटें भी नहीं बचा पाई, लेकिन तेलंगाना में उसे 4 सीटें जरूर मिलीं। अब बीजेपी कांग्रेस खेमे को और भी झटका देने की कोशिश कर रही है- अपने दम पर और अप्रत्यक्ष तौर पर भी।
 
जहां-जहां कांग्रेस की यूनिट मजबूत है, वहां उसमें तोड़-फोड़ कर पाने की आशंका कम है। केरल का उदाहरण सामने है, जहां कांग्रेस नेतृत्व वाली यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट 20 लोकसभा सीटों में 19 जीतने में कामयाब रहा। ऐसे में केरल कांग्रेस में कोई हलचल नहीं दिख रही है।
 
वहीं दूसरी ओर कर्नाटक दक्षिण भारत का इकलौता ऐसा राज्य है, जहां कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर गठबंधन की सरकार है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन 28 में महज 2 सीटें जीत पाईं और इसके बाद ही सरकार गिरने की कगार तक पहुंची है।
 
कांग्रेसियों में निश्चित तौर पर पार्टी के भविष्य और अपने भविष्य को लेकर चिंताएं हैं। लेकिन यह भी देखना होगा कि पार्टी में अवसरवाद और निजी महत्वाकांक्षा भी चरम पर है।
 
कर्नाटक में जिन कांग्रेस विधायकों ने इस्तीफा दिया है और मुंबई में ठहरे हुए हैं, उनमें से कई की निष्ठा पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के प्रति रही है, जो राहुल गांधी के इस्तीफे से बिना किसी नेतृत्व के एक बार फिर पार्टी में अपना दबदबा बढ़ाना चाहते हैं। इसके अलावा कांग्रेस आर्थिक मोर्चे पर भी बीजेपी के सामने पिछड़ती जा रही है।
 
साल 2016 से 2018 के बीच बीजेपी को 985 करोड़ रुपए का चंदा कॉर्पोरेट जगत से मिला है। यह कुल कॉर्पोरेट चंदे का 93 प्रतिशत है जबकि कांग्रेस को 5.8 प्रतिशत यानी महज 55 करोड़ रुपए का चंदा मिला है। बेनामी इलेक्ट्रॉल बॉन्ड से भी बीजेपी को ही फायदा पहुंचा। इसके चलते भी बीजेपी वह सब कर पा रही है, जो कांग्रेस नहीं कर सकती।
 
गोवा कांग्रेस के प्रभारी के चेलाकुमार ने ऑन रिकॉर्ड यह कहा कि कांग्रेस विधायकों ने उन्हें बताया कि उन्हें बीजेपी कितना पैसा ऑफर कर रही है?
 
कानून से खिलवाड़
 
इस लड़ाई में कांग्रेस इसलिए भी हार रही है, क्योंकि कानून के जानकार कानून को ठेंगा दिखाने के लिए नए रास्ते तलाश रहे हैं। उदाहरण के लिए तेलंगाना में कांग्रेस के 18 में से 12 विधायक तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल हो गए जिसके चलते उन पर दलबदल कानून लागू नहीं हो पाया। गोवा में भी कांग्रेस के 15 विधायकों में से 10 विधायक बीजेपी में शामिल हुए हैं। यहां भी दो-तिहाई सदस्य होने के कारण कानून लागू नहीं हो सकता।
 
कर्नाटक में कांग्रेसी विधायकों ने केवल विधायकी से इस्तीफा दिया है, पार्टी से इस्तीफा नहीं दिया है ताकि उन्हें अयोग्य नहीं ठहराया जा सके। बीजेपी खुद के लिए 'पार्टी विद ए डिफरेंस' दावा भले करती रही हो, लेकिन वह कांग्रेसियों को अपने पाले में लाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही है।
 
सिद्धारमैया ने आरोप लगाया कि मौजूदा स्थिति में सीबीआई और ईडी जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों का इस्तेमाल भी कांग्रेस विधायकों पर किया जा रहा है ताकि वे पाला बदल सकें। गोवा में बीजेपी ने 1 कांग्रेसी विधायक पर रेपिस्ट होने का आरोप लगाया था, लेकिन उस विधायक को अपनी पार्टी में शामिल करने से पहले पार्टी ने इस आरोप पर विचार करना तक जरूरी नहीं समझा।
 
हालांकि बीते 2 सालों के दौरान कांग्रेस ने गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में प्रभावी प्रदर्शन किया है। बावजूद इसके, पार्टी गुजरात के अल्पेश ठाकोर जैसे महत्वाकांक्षी विधायकों पर अंकुश नहीं रख पाई या फिर राजस्थान में समय-समय पर उभर आने वाले असंतोष पर काबू नहीं कर पाई।
 
कर्नाटक का मौजूदा नाटक जारी है, ऐसे में निश्चित तौर पर जीतने वालों पर भरोसा करके उन्हें उम्मीदवार बनाने की बड़ी कीमत कांग्रेस चुका रही है, वहीं दूसरी ओर आम चुनावों में जोरदार जीत हासिल करने के बाद बीजेपी सत्ता की ठसक में सभी उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल कर रही है और इसके लिए वह किसी राजनीतिक नैतिकता की परवाह भी नहीं कर रही है। ऐसे में तय है कि वह कांग्रेस को और भी ज्यादा नुकसान ही पहुंचाएगी।
 
लेकिन जब मौजूदा उठापठक का दौर थमेगा, स्थिरता का दौर आएगा तब यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि बीजेपी के इस खेल के लिए भारतीय लोकतंत्र को क्या कीमत चुकानी पड़ी?
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