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Last Updated : गुरुवार, 13 अप्रैल 2017 (13:52 IST)

ये 'जासूस' करें महसूस कि दुनिया बड़ी ख़राब है

ये 'जासूस' करें महसूस कि दुनिया बड़ी ख़राब है - Indian smuggler
- सलमान रावी (डाडवां गाँव (गुरदासपुर), पंजाब से)
जासूसी की दुनिया बिलकुल अलग होती है। रोमांचकारी और चुनौती भरी। जासूसी की बात होती है तो अक्सर हम ब्रिटिश जासूस 'जेम्स बॉंड' की फ़िल्मों की तरह जासूसों के जीवन, रहन-सहन और प्रेम कहानियों की कल्पना करते हैं।
 
मगर सवाल उठता है कि क्या सचमुच की ज़िन्दगी में जासूसों का जीवन इतना ही रोमांचकारी है जितना फ़िल्मों में दर्शाया जाता है?

भारत के पंजाब में एक जमात का दावा है कि ऐसा नहीं है। इस जमात का दावा है कि वे सब जासूस हैं। हम बात कर रहे हैं पंजाब के गुरदासपुर ज़िले में बसे डाडवां गाँव की जिसे 'जासूसों के गाँव' के नाम से भी जाना जाता है।
 
यहां के निवासियों का दावा है कि इन्होंने पाकिस्तान जाकर अपने देश के लिए जासूसी की थी। लेकिन इनके पास इसके सबूत नहीं है। इनके पास जो दस्तावेज़ मौजूद हैं वे पाकिस्तान की अदालतों के हैं, जहां इन पर जासूसी के आरोप लगाए गए हैं। इनका यह भी दावा है कि इन लोगों ने कई साल पाकिस्तान की जेलों में काटे हैं, जहाँ इन्हें जासूसी के आरोप में मारा-पीटा गया और यातनाएं दी गईं। पाकिस्तान की जेलों से रिहाई के बाद इनकी वापसी तो हुई, मगर कई ऐसे हैं जो गंभीर रूप से बीमार हैं।
 
'जासूस नहीं तस्कर'
धारीवाल से महज़ दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस गाँव के बारे में कहा जाता है कि यहां से कई लोग सरहद पार कर जासूसी करने के लिए जाते रहे हैं। यूं तो धारीवाल अपने आप में एक छोटा सा कस्बा है और डाडवां एक गाँव है, जो दूसरे गावों से थोड़ा विकसित इस मायने में है कि यहाँ पक्के मकान बने हुए हैं। मगर गंदी नालियां और तंग गलियां इस जगह की नियति है।
 
यहाँ आने वाले हर आदमी को शक़ की नज़र से देखा जाता है। कई निगाहें हैं जो हर आने-जाने वाले के बारे में उत्सुक हैं। और अगर कोई अनजान यहाँ नज़र आए, तो सबके कान खड़े हो जाते हैं। गाँव के ही रहने वाले एक बाशिंदे का कहना था कि यहाँ की हर गतिविधि पर सब की नज़र है। किस की नज़र है? ये कोई नहीं बताता है।
 
मगर लोगों को देख कर समझ में आता है कि इनके अन्दर जासूसी के गुण पहले से ही मौजूद हैं। तो सवाल उठता है कि क्या यह इस वजह से है कि ये सरहद के पास का इलाक़ा है? पता नहीं, मगर कुछ तो ज़रूर है जो इस इलाक़े को और जगहों से अलग बनाता है।

हालांकि भारत सरकार इनके दावों को ख़ारिज करती है। अधिकारियों का कहना है कि ये लोग जासूस नहीं बल्कि 'तस्कर' हैं, जो सरहद पार शराब बेचने जाया करते थे। इसी दौरान इन्हें पकिस्तान की सुरक्षा एजेंसियों ने गिरफ़्तार किया और इन पर जासूसी का आरोप लगाया।
 
'पाकिस्तान की जेलों में'
मेरी मुलाक़ात डेनियल से हुई जो पास ही खाद्य पदार्थों के एक गोदाम में मज़दूरी कर रहे थे। डेनियल का दावा है कि वह पाकिस्तान की सियालकोट, रावलपिंडी, लाहौर, मुल्तान और गुजरांवाला की जेलों में चार साल सज़ा काट कर भारत लौटे हैं। उनका कहना है कि पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट द्वारा सज़ा माफ़ करने के बाद उन्हें जेल से रिहा किया गया।
 
वह कहते हैं, "वहां से मुझे समझौता एक्सप्रेस में बैठा दिया गया। जब मैं अटारी पहुंचा तो फिर गिरफ़्तार कर लिया गया। फिर दो महीने तक मैं अमृतसर की जेल में बंद रहा।" डेनियल का दावा है कि वह पकिस्तान जासूसी करने गए थे। उनका कहना है कि उन्हें वहां नक्शे, ट्रेन की समय सारिणी और तस्वीरें लाने के लिए भेजा गया था।
 
मगर सरकारी सूत्रों ने डेनियल के दावों को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि अब इंटरनेट के ज़माने में इन कामों के लिए किसी आदमी को सरहद पार भेजना बेमानी और बेवकूफी है।
 
डाडवां में ही सुनील का घर भी है जो पिछले साल अक्टूबर में पाकिस्तान की जेल से रिहा होकर लौटे हैं। सुनील के साथ पाकिस्तान की जेलों में हुए कथित अत्याचार की वजह से उनकी तबियत अब ख़राब ही रहती है। बिस्तर पर पड़े-पड़े अब वह अपने परिवार के लोगों पर मानो बोझ बन गए हैं।
 
वह मुझे अपने दोनों हाथ दिखाते हैं, जहाँ उनकी कलाई के नीचे निशान बने हुए हैं, "यह निशान देख रहे हैं आप? ये करंट लगाने के निशान हैं। जब मुझे पकड़ा गया तो वहां काफ़ी यातनाएं दी गईं। मेरा दाहिना हाथ अब काम नहीं करता।"
 
दुश्वार ज़िंदगी
सुनील ने दो अलग-अलग बार पाकिस्तान की जेलों में दस साल से भी ज़्यादा की सज़ा काटी है। मगर उनका कहना है कि वर्ष 2011 में जब वह दूसरी बार पाकिस्तान गए तो बीमार पड़ गए। उन्होंने कहा, "मेरे मुंह से काफ़ी ख़ून निकलने लगा और भीड़ इकट्ठी हो गई। लोग पूछने लगे मैं किस गाँव का रहने वाला हूँ। तब मैंने उनसे कहा कि मैं हिन्दुस्तान के सरहदी गाँव का रहने वाला हूँ और बीमारी की वजह से ग़लती से सरहद पार कर आया हूँ। मैं फिर पकड़ा गया और फिर मुझे छह महीने की क़ैद की सज़ा सुनाई गई।"
 
सुनील की सज़ा थी तो छह महीने की, मगर उन्हें रिहा होते-होते ढाई साल लग गए। उनका कहना था कि पाकिस्तान की जेलों में रहते हुए ही उनकी तबियत काफ़ी ख़राब रही। खांसने पर उनके मुंह से ख़ून आता है। उन्हें अंदेशा है कि उन्हें तपेदिक (टीबी) हो गई है।
 
अब उनके इलाज में काफ़ी पैसे लगते हैं। वह दावा करते हैं कि चूँकि उन्होंने सरकार के लिए काम किया था इसलिए उनको इलाज और भरण-पोषण के लिए सरकारी सहायता मिलनी चाहिए। मगर इस बात के उनके पास भी कोई सबूत नहीं है कि उन्हें जासूसी के लिए भेजा गया था।
 
इसी मोहल्ले में डेविड भी रहते हैं जो अब लाठी के सहारे बमुश्किल चल-फिर पाते हैं। इनकी दास्तां भी बाकियों जैसी ही है, क्योंकि यातनाओं की वजह से अब उनका शरीर टूट चुका है। आवाज भर्राई हुई और निगाहें कमज़ोर हैं। डेविड का आरोप है सरकार अब उनसे अपना पल्ला झाड़ रही है। वह कहते हैं कि अगर उन्हें जासूस न भी स्वीकार किया जाए, मानवता के नाते सरकार उनकी मदद तो कर सकती है। वह कहते हैं, "मगर दुनिया बड़ी ख़राब है।"