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Last Modified: शुक्रवार, 8 जनवरी 2021 (10:53 IST)

किसान आंदोलन: किसानों की रणनीति से मोदी सरकार पसोपेश में

किसान आंदोलन: किसानों की रणनीति से मोदी सरकार पसोपेश में - farmers protest, Modi government and farmers planning
अरविंद छाबड़ा, ख़ुशहाल लाली, चंडीगढ़ और दिल्ली से
केंद्र सरकार के साथ आठवें दौर की बातचीत से एक दिन पहले किसान अपना आंदोलन तेज़ करने की तैयारी करते दिखे। उनकी मांग है कि सरकार तीनों कृषि कानूनों को वापस ले।
 
सरकार अब बाबा लखा सिंह को मध्यस्थ बनाने की कोशिश कर रही है लेकिन किसानों की रणनीति लगातार आंदोलन को धार देने वाली साबित हो रही है। ऐसे में मोदी सरकार नहीं समझ पा रही है कि अब क्या किया जाए। 26 जनवरी को किसान ट्रैक्टर परेड निकालने की तैयारी कर रहे हैं। इसमें महिलाएं भी ट्रैक्टर लेकर चलाएंगी।
 
चार जनवरी को हुई पिछली बैठक में गतिरोध नहीं सुलझ पाया था। सरकार ने दोहराया कि वो क़ानूनों के संशोधनों पर विचार के लिए तैयार है, लेकिन किसान इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि क़ानूनों को रद्द करने से कम कुछ भी स्वीकार नहीं होगा।
 
पंजाब और हरियाणा में महीनों से कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ आंदोलन करने के बाद, इन दोनों राज्यों के हज़ारों किसान और कई अन्य लोग पिछले 40 दिनों से बढ़ती सर्दी के बावजूद दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाले हुए हैं।
 
किसान यूनियनों, पुलिस और राज्य के नेताओं के अनुसार आंदोलन के शुरू होने के बाद से अभी तक इसमें भाग ले रहे 50 से अधिक आंदोलनकारी किसानों की मृत्यु हो चुकी है।
 
आंदोलन तेज़ क्यों कर रहे हैं किसान?
गुरुवार को, किसानों ने दिल्ली के बाहरी इलाक़ों कुंडली-मानेसर-पलवल और कुंडली-ग़ाज़ियाबाद-पलवल बाइपास पर "ट्रैक्टर मार्च" किया।
 
किसान संघ के नेता दर्शन पाल के मुताबिक़, "यह पहले से ही प्रस्तावित योजना के अनुसार हुआ और पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से आए ट्रैक्टरों ने इसमें भाग लिया।"
 
हरियाणा के जींद के पास एक हाइवे पर अपने ट्रैक्टर-ट्रॉली को चला रहीं महिला एकता मोर्चा की डॉ। सीकिम ने कहा कि किसानों की मांगें नहीं मानी गईं तो "दिल्ली में ट्रैक्टर चलाकर, गणतंत्र दिवस में भाग लेकर 26 जनवरी को महिलाएं इस साल इतिहास बनाएंगीं।"
 
किसानों का मानना है कि गुरुवार के मार्च से शुक्रवार को होने वाली बैठक से पहले सरकार दबाव बनेगा। मांग पूरी नहीं होने पर ट्रैक्टर मार्च के अलावा कई दूसरे आयोजन की तैयारियां भी की जा रही हैं।
 
इन घटनाओं के माध्यम से न केवल सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है, बल्कि उन हज़ारों किसानों को प्रोत्साहन देने की कोशिश की जा रही है, जो ठंड का सामना करते हुए छह हफ़्तों से सड़क पर डेरा डाले हुए हैं।
 
ज़्यादा आयोजनों की घोषणा से सरकार को संदेश जाता है कि किसान लंबे समय के लिए तैयार हैं। दर्शन पाल ने बीबीसी न्यूज़ पंजाबी को बताया कि 9 जनवरी को स्वतंत्रता से पहले किसान नेता रहे चौधरी छोटूराम की पुण्यतिथि पर दिल्ली की सीमाओं पर कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे।
 
उन्होंने कहा कि देश के किसानों की दिल्ली के लिए यात्रा जारी है, महाराष्ट्र के सत्यशोधक समाज के हजारों किसान जयपुर-दिल्ली राजमार्ग पर पहुंचने के लिए तैयार हैं।
 
किसान अपनी मांगों पर अड़े हैं, लेकिन उनके पास क्या विकल्प हैं?
सिंघु बॉर्डर पर एक शिविर में हाल ही में एक सार्वजनिक संबोधन में एक वृद्ध किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल ने आंदोलनकारी किसानों से कहा था, "अगर कोई एक नेता मांगों को हल्का करने की कोशिश करता है, तब भी, आप (आंदोलनकारी किसान) उसे यह करने की अनुमति नहीं दें। यह अब सिर्फ़ यूनियन नेताओं की पसंद के बारे में नहीं है। आप सभी को बिना क़ानून रद्द करवाए संतुष्ट नहीं होना चाहिए।"
 
कुछ किसान नेताओं ने संकेत दिया है कि वो क़ानून के निलंबन को लेकर विचार कर सकते हैं।
 
सड़क पर कब तक खड़े रहेंगे किसान? दर्शन पाल कहते हैं, 'यह इस बात पर निर्भर करेगा कि देशव्यापी संघर्ष कब तक चलेगा। यह वास्तव में सरकार को सोचना पड़ेगा।
 
क्या कोई दूसरा विकल्प मौजूद है?
सेंटर फ़ॉर रिसर्च इन रूरल एंड इंडस्ट्रियल डिवेलपमेंट (सीआरआरआईडी) के प्रोफेसर आर एस गुमान और वरिष्ठ पत्रकार जगतार सिंह का मानना है कि क़ानूनों के दो साल के निलंबन से कुछ राहत मिल सकती है।
 
प्रो. गुमान कहते हैं कि इस समय का उपयोग भारत में कृषि संकटों के समाधान पर आम सहमति बनाने में किया जाना चाहिए। प्रो. गुमान और जगतार सिंह दोनों मानते हैं कि किसान प्रतिनिधियों, राज्य सरकारों सहित सभी स्टेक होल्डर को मिलकर कमिटी बनानी चाहिए जो सरकार को अपनी सिफ़ारिश दे।
 
एक और सुझाव जो दिल्ली के सत्ता के गलियारों में घूम रहा है कि क़ानून को लागू करने का फ़ैसला राज्य सरकारों पर छोड़ देना चाहिए। एक सुझाव यह भी है कि केंद्र राज्यों को सब्सिडी दे और राज्य न्यूनतम समर्थन मूल्य देकर फसलों की ख़रीद करें।
 
हालाँकि, ये महज़ सुझाव हैं जो कि दिल्ली में सत्ता के गलियारों में घूम रहे हैं। केंद्र सरकार कि स्थित अभी ये है कि वो कृषि क़ानूनों में संशोधन के लिए तैयार है, लेकिन क़ानून बने रहेंगे, वापस नहीं लिए जाएंगे।
 
इस संकट का एक पहलू और है। किसान आंदोलन से जुड़ी एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है जिसे 11 जनवरी को सुना जा सकता है। इसके पहले हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि विरोध प्रदर्शन किसानों का अधिकार है।
 
अदालत ने सरकार से यह भी पूछा था कि क्या क़ानून को कुछ समय के लिए रोका जा सकता है? सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी।
 
कुछ किसानों और सरकार के कुछ लोगों का मानना है कि इस विवाद का समाधान अदालत के हस्तक्षेप से हो सकता है क्योंकि दोनों ही पक्ष अपनी बात से हटने के लिए तैयार नहीं हैं।
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