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Last Modified: सोमवार, 15 जनवरी 2018 (11:09 IST)

नज़रिया- 'यहूदी-हिंदू राष्ट्र की मुहिम मज़बूत करने की गर्मजोशी'

नज़रिया- 'यहूदी-हिंदू राष्ट्र की मुहिम मज़बूत करने की गर्मजोशी' - benjamin netanyahu india visit
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू अपने पहले दौरे पर रविवार को भारत पहुंचे। अपने दौरे के दौरान इसराइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच कई मुद्दों पर चर्चा होगी।
 
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रोटोकॉल को परे रखते हुए एयरपोर्ट जाकर नेतन्याहू की आगवानी की। दोनों नेता गर्मजोशी के साथ गले मिले। मोदी जब इसराइल गए थे तब भी दोनों नेताओं के बीच ऐसी ही गर्मजोशी नज़र आई थी। बीबीसी संवाददाता संदीप सोनी ने वरिष्ठ पत्रकार सईद नक़वी से बात की और पूछा कि भारत और इसराइल में से इस गर्मजोशी की ज़्यादाज़रूरत किसे दिखती है?
 
भारत और इसराइल दोनों भावनात्मक तौर पर इसका फ़ायदा उठाते हैं। अगर मैं खुलकर आपको बताऊं कि इस गर्मजोशी के पीछे क्या है तो इसका यहां की आंतरिक राजनीति से ताल्लुक़ है। वहां उनके लिए बहुत ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता। वो ये बता सकते हैं कि दुनिया में कि देखिए दुनिया में एक जो हिंदू बहुल लोकतंत्र है वो हमारे कितना हक़ में है।
 
वो यहूदी हैं आप हिंदू हैं। ये पहलू दोनों ज़्यादा उजागर करना चाह रहे हैं। इस तरह वहां पर यहूदी और यहां पर हिंदू राष्ट्र बनाने की जो एक मुहिम है, उसे मज़बूत करते हैं। वो चलेगा या नहीं चलेगा ये मैं नहीं जानता। जो कोशिश है, मैं वो बयान कर रहा हूं।
 
क्या वजह थी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले भारत के कोई प्रधानमंत्री इसराइल नहीं गए थे?
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी करीब 20-25 देशों में गए लेकिन किसी मुस्लिम देश में नहीं गए। लेकिन धीरे-धीरे वास्तविकता सामने आई। फिर जाना शुरू किया। अब ओमान जाएंगे फिर मिस्र जाएंगे।
 
शायद इनकी हिंदुत्व विचारधारा इसकी वजह रही हो। (हो सकता है वो मानते हों) जिस तरह इसराइल एक यहूदी मुल्क है जो मुसलमान मुल्कों में घिरा हुआ है वैसे ही हम एक मुस्लिम चरमपंथ का शिकार हैं, उसको एक प्वाइंट बनाकर अपने रिश्तों को और मज़बूत किया जाए। ये एक विचारधारा बहुत दिनों से चल रही थी।
 
ये सत्तर के दशक की बात है हमारे दोस्त थे मनोहर सोम्बी। एक दफ़ा हम और वो इसराइल में थे, तब उन्होंने कहा था कि हमको इसराइल से रिश्ते बनाने पड़ेंगे। तब कांग्रेस पार्टी के कथित मुस्लिम नेता कहते थे कि इसका मुसलमान वोट के ऊपर फ़र्क पड़ेगा।
 
मेरी राजीव (गांधी) से बातें हुईं। मैंने कहा मुसलमान को नौकरी चाहिए, रोटी चाहिए। इसराइल से रिश्ते या सलमान रश्दी मुद्दे नहीं हैं। आख़िर में रिश्ते जब खुले, कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
 
एक ज़माना वो था कि अमरीका, इसराइल और भारत की विदेश नीति के जो मुद्दे वो उठाएं, उसमें हम साथ दे देते थे। अब वो दुनिया बिखर गई है। एकध्रुवीय दुनिया अब नहीं रही। पश्चिम एशिया में अब कोई सुपर पावर नहीं है।
 
इसलिए हमारे भी विकल्प खुले हैं। मसलन नितिन गडकरी अभी बात कर रहे हैं ईरान के रोडवेज़ मंत्री से। चाबहार का मामला चल रहा है। हालांकि इसराइल के और ईरान के रिश्ते अच्छे नहीं हैं। हमारे रिश्ते इनसे अच्छे से अच्छे होते जाएं उसमें कोई बुराई नहीं है। इसका हमारे दूसरे द्विपक्षीय रिश्तों पर कोई असर न पड़े और वो बात सामने दिखाई दे रही है कि ऐसा नहीं है।
 
भारत और इसराइल के रिश्ते किस तरह विकसित हुए हैं?
इसराइल जब बना तब हमारा रुख़ फ़लस्तीनी मुद्दों पर ज़्यादा था और अगर आपको याद हो उन दिनों में हमारे यहां जो पासपोर्ट जारी होते थे, उसमें तीन मुल्क मना थे। बाक़ायदा ठप्पा लग जाता था। नॉट वैलेड फॉर रिपब्लिक ऑफ साउथ अफ्रीका, सदर्न रुडेशिया और इसराइल।
 
यहां तक इसराइल के ख़िलाफ एक मुहिम थी। वो ज़माना दूसरा था। उसके बाद धीरे-धीरे हमारे रिश्ते खुले। सबसे पहले ये लोग अहमदाबाद और गुजरात में आए। तमाम कांग्रेस की सरकारों के मुख्यमंत्री गए। इसमें चिमन भाई बहुत आगे-आगे रहे।
 
ट्रिप सिंचाई के ज़रिए ये रेगिस्तान को हरा भरा बनाने में लगे थे । ये इनकी शुरू-शुरू की स्कीम थी। उन दिनों इसराइल के अंदर को-ऑपरेटिव सिस्टम था। बड़ा सोशलिस्ट सिस्टम था। लेकिन 1990 में सोवियत यूनियन के गिर जाने के बाद वैश्वीकरण और पूंजीवाद को बढ़ावा मिला तब इसराइल, भारत समेत कई देशों ने आर्थिक नीति बदली।
 
इसके पहले एक प्रवृत्ति यहां पर थी या तो इनसे दोस्ती या फिर उनसे दोस्ती की जाए।
 
लेकिन राजीव गांधी के ज़माने में इसराइल से संबंध बनाने का फ़ैसला लिया गया जिसको पीवी नरसिंह राव ने पूरा किया। उसके बाद इसराइल का डिप्लोमैटिक मिशन दिल्ली में खोला गया और हिंदुस्तान से भी एक राजनयिक गए। फिर भारत अमेरिका के करीब आ गया। लोगों का ये कयास है कि शायद बीजेपी के ज़माने में हिंदुस्तान और इसराइल के रिश्ते ज़्यादा बढ़े हैं। दरअसल, ये रिश्ते सबसे ज़्यादा मनमोहन सिंह के ज़माने में बढ़े।
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