बशीर मंज़र (वरिष्ठ पत्रकार)
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अप्रैल में हुई मुलाकात के बाद जम्मू एवं कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने दोहराया था कि कश्मीर पर अटल बिहारी वाजपेयी की रणनीति को अपनाने की ज़रूरत है, डोर के सिरे को वहीं से पकड़े जाना चाहिए जहां वाजपेयी ने उसे छोड़ा था।
कश्मीर के ज्यादातर राजनेता इन दिनों वाजपेयी की कश्मीर नीति की चर्चा करते हैं और उसे अपनाने पर ज़ोर देते हैं। लेकिन अहम सवाल ये है कि वाजपेयी ने ऐसा कौन सा ज़ादू किया था कि जो उनके बाद के प्रधानमंत्री नहीं कर सके। हालांकि वास्तविकता ये है कि वाजपेयी जी ने कश्मीर की समस्या को सुलझाने के लिए कुछ ख़ास नहीं किया था, लेकिन उनकी छवि ऐसी है कि ढेरों कश्मीरी ये कहते नजर आते हैं कि कश्मीर को लेकर वाजपेयी की नीति सही थी।
दरअसल कश्मीर में जब भी कोई संकट बढ़ता है तो लोगों को वाजपेयी के नारे कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत की याद आती है। वाजपेयी कश्मीर को शांत रखने का तरीका जानते थे और ये तरीका था पाकिस्तान के साथ बातचीत जारी रखा। उन्होंने अपने प्रधानमंत्री के कार्यकाल में पाकिस्तान से लगातार बातचीत जारी रखी।
वाजपेयी ये समझते थे कि कश्मीर में शांति बनाए रखने के लिए पाकिस्तान के साथ कुछ ना कुछ बातचीत ज़रूरी है। यही वजह है कि कारगिल युद्ध और संसद पर हमले के बाद भी उन्होंने पाकिस्तान के साथ बातचीत का रास्ता खुला रखा। इसके अलावा वाजपेयी ये भी जानते थे कि कश्मीर को लेकर केंद्र सरकार के कई फ़ैसले ग़लत रहे हैं और कोई भी राष्ट्रीय स्तर का नेता कश्मीरियों के दुख को नहीं समझ सका है।
'दिलों के दरवाज़े खुले हैं'
उन्होंने 18 अप्रैल, 2003 को श्रीनगर में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए कहा था, "हम लोग यहां आपके दुख और दर्द को बांटने आए हैं। आपकी जो भी शिकायतें हैं, हम मिलकर उसका हल निकालेंगे। आप दिल्ली के दरवाजे खटखटाएं। दिल्ली की केंद्र सरकार के दरवाजे आपके लिए कभी बंद नहीं होंगे। हमारे दिलों के दरवाजे आपके लिए हमेशा खुले रहेंगे।"
उनके इस बयान ने ही ज़ादू का काम किया। कश्मीरियों को पहली बार लगा कि कोई भारतीय प्रधानमंत्री उनके दुखों की बात कर रहा है, उसे मान रहा है। अपनी इसी सभा में वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ उतार चढाव भरे संबंधों और संसद पर हमले के बाद भी पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था।
उन्होंने जम्मू एवं कश्मीर के लोगों को भरोसा दिलाया था कि वे हर समस्या का हल बातचीत से करना चाहते हैं- घरेलू भी और बाहरी भी। इसी यात्रा में उन्होंने अलगाववादियों सहित सभी कश्मीरियों से इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के दायरे में बातचीत की पेशकश की थी।
शब्दों की जादूगरी
उससे पहले जितनी बार भी केंद्र सरकार ने अलगाववादियों के साथ बातचीत की पेशकश की थी, उसमें भारतीय संविधान के दायरे की बात कही गई थी, जिसपर अलगाववादी कभी सहमत नहीं हुए। लेकिन शब्दों की जादूगरी के साथ वाजपेयी अलगावादियों को बातचीत तक लाने में कामयाब रहे।
उन्होंने संविधान के दायरे के अंदर बातचीत की पेशकश नहीं की। इस तरीके से उन्होंने अलगावादियों के साथ बातचीत का रास्ता खोला और दूसरी तरफ़ पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया।
ऐसे उन्होंने ये सुनिश्चित कर दिया कि पाकिस्तान अलगाववादियों को बातचीत करने से नहीं रोकेगा। उनकी इस पेशकश के बाद अलगाववादी नेताओं ने तत्कालीन उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी से मुलाकात की थी और कश्मीर में हालात सामान्य हुए थे। लेकिन केवल इतना ही हुआ था, इससे ज़्यादा कुछ नहीं।