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Written By ND

जातिवाद की प्रयोगशाला में परीक्षण

जातिवाद की प्रयोगशाला में परीक्षण -
राजस्थान विधानसभा की सभी दो सौ सीटों पर गुरुवार को वोट डाले जाएँगे। जिसमें प्रदेश के तीन करोड़ 62 लाख मतदाता चुनाव मैदान में उतरे 2 हजार 194 उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला करेंगे।

वैसे तो इन चुनावों में मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ भाजपा और प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बीच ही हो रहा है, लेकिन चुनाव मैदान में बडी संख्या में ताल ठोंक रहे दोनों ही दलों के बागियों और उत्तरप्रदेश की चुनावी कामयाबी से उत्साहित बसपा ने इन दोनों ही पार्टियों को खासा परेशानी में डाल रखा है। वहीं विधानसभा के लिए हुए नए परिसीमन ने भी परंपरागत समीकरणों को काफी प्रभावित किया है।

वैसे तो इन चुनावों में सभी दलों के पास मुददों की कोई कमी नही रही। भाजपा आतंकवाद और पाँच सालों में किए गए विकास के कामों के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश करती दिखी तो कांग्रेस ने वसुंधरा राजे के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार को अपने आक्रमण का सबसे धारदार हथियार बनाया। लेकिन चुनावों की जमीन पर जो मुददा सबसे कारगार नजर आ रहा है वह है जातिवाद। हर गली, हर गाँव में जातिवाद के नक्कारे की गूँज कान फोडू हो चुकी है।

राजनीति की बिसात पर इस बार जातिवादी नेता जिस तरह राजनीतिक दलों को आँख दिखाते, धमकाते नजर आए वैसा पहले कभी देखा नहीं गया। पिछले एक दशक से जातिवाद की प्रयोगशाला बनते चले आ रहे राजस्थान में यह चुनाव बड़ा परीक्षण होंगे।

राजस्थान को गुजरात बनाने के संघ परिवार का सपना यहाँ तो साकार नही हो सका, लेकिन भाजपा ने इन दस सालों में राजस्थान को जातिवाद की प्रयोगशाला भर बना दिया। सन 1999 के लोकसभा चुनावों से पहले जाटों को ओबीसी का आरक्षण देकर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेई ने राजस्थान में जातिवाद की जिस विषबेल का बीजारोपण किया था, उसे वसुंधरा राजे ने पहले अपने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और फिर पाँच साल के मुख्यमंत्री के शासनकाल में सींचते हुए फलने-फूलने दिया।

एसटी की माँग को लेकर दो बार हुआ गुर्जरों का आंदोलन,जिसमें 70 से ज्यादा गुर्जर मारे गए, राजस्थान में इन सालों में पनपे उग्र जातिवाद का विदुप चेहरा था। इतने गुर्जरों के मरने के अलावा इस आंदोलन का सबसे बुरा असर यह हुआ कि इसने पूर्वी राजस्थान में सदियों से एक साथ रहते आ रहे गुर्जर और मीणा जातियों के बीच ऐसी गहरी खाई बना दी, जिसके निकट भविष्य में भरने के तो कोई आसार नही है।

यही वजह है कि निर्वाचन आयोग ने उन सभी जिलों को ही सबसे अतिसंवेदनशील माना है जहाँ के गुर्जर और मीणा साथ रहते हैं। इन इलाकों में हिंसा होने की आशंका के चलते यहाँ शांतिपूर्ण चुनाव कराना आयोग के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नही होगा। इसे जानते हुए ही इन इलाको में भारी तादाद में सुरक्षाबलों की तैनाती की गई है।

वसुंधरा राजे सरकार पर जातिवादी की राजनीति करने के आरोपों के चलते ही यह गंभीर आरोप भी लगता रहा है कि गुर्जर आंदोलन के नेता किरोड़ीसिंह बैंसला की पीठ पर उसका ही हाथ था। अब चुनावों की पूर्व संध्या पर बैंसला द्वारा भाजपा के समर्थन की घोषणा के साथ ही यह बात भी साफ हो गई है। वैसे बैंसला ही नही, राजस्थान में जातिवादी राजनीति के जितने चेहरे इन सालों में उभरे उनमे से ज्यादातर का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में भाजपा से संबंध रहा है। फिर वे चाहे किरोड़ीलाल मीणा हों या फिर प्रहलाद गुंजल। विश्वेंद्रसिंह अथवा देवीसिंह भाटी हों या फिर भगवानसिंह रोलसाबसर या फिर ज्ञानप्रकाश पिलानिया। राजनीति के जानकारों का मानना है इस बार चुनावों में बडी संख्या में दोनों ही दलों के बागीयों के उतरने के पीछे एक प्रमुख कारण जातिवाद है। दिलचस्प बात यह है कि बागियों से सबसे ज्यादा आहत भाजपा ही नजर आ रही है।

किरोड़ीलाल मीणा, विश्वेंद्रसिंह, प्रहलाद गुंजल जैसे तगडे़ जातिवादी नेताओं की बगावत ने इस पार्टी की नाक में दम कर रखा है। चुनाव मैदान मे ताल ठोंक रहे बागियों की ताकत के कारण ही सत्तर-अस्सी सीटें ऐसी हैं जिन पर संघर्ष तिकोना अथवा चतुष्कोणीय हो गया है। जातिवाद के बाद इन भ्रष्टाचार इन चुनावों में सबसे बड़ा मुददा बनकर उभरा है।

भाजपा शासन के पाँच सालों में सरकार के मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्री तक पर भ्रष्टाचार के लगे आरोपों को कांग्रेस ने इन चुनावों में अपना सबसे अहम चुनावी हथियार बनाया। उसने इसके साथ ही मुख्समंत्री की कार्यशैली को जोड़ते हुए जिस आक्रामकता के साथ भाजपा पर प्रहार किए उससे सत्तारूढ़ दल एकबारगी तो बैकफुट पर चला गया। उसका विकास का कार्ड कांग्रेस के भ्रष्टाचार के मुददे के सामने टिक नहीं सका। लेकिन इसी बीच मुंबई में हुआ आतंकी हमला भाजपा को कुछ राहत दे गया और उसको कांग्रेस पर वार करने का मौका मिल गया। लेकिन भाजपा के आतंकवाद के कार्ड का असर शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित होकर रह गया।

बागियों के अलावा राजस्थान विधानसभा की दोनों प्रमुख पार्टियों भाजपा और कांग्रेस को दूसरा बड़ा खतरा बसपा से नजर आ रहा है। बसपा ने पिछले विधानसभा चुनावों में चार प्रतिशत वोट हासिल किए थे। इस बार उत्तरप्रदेश में अपनी कामयाबी के साथ ही सबपा ने राजस्थान में अपनी चुनावी तैयारियाँ शुरू कर दी थी। उसने सभी दो सौ सीटों पर अपने प्रत्याशी खडे़ किए हैं।

उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी चार दिन तक राजस्थान में धुँआधार प्रचार करके गई हैं। उप्र की तरह राजस्थान में बसपा का ब्राहमण अथवा अन्य किसी अगड़ी जाति से गठजोड़ नही बन सका, लिहाजा अब उसकी ज्यादातर उम्मीद दलित वोट बैंक पर ही टिकी हैं। वैसे दलित राजस्थान का सबसे बड़ा वोट बैंक हैं। वे यहाँ की कुल आबादी का 17 फीसदी हैं। बसपा का अब तक पूर्वी राजस्थान में ही असर रहा है लेकिन इस बार उसने प्रदेश की दूसरे भागों में भी अपनी जडे़ जमाने की कोशिशें की हैं।

मायावती की बांसवाडा, जोधपुर, बीकानेर आदि जगहों पर हुई कामयाब सभाएँ इसको दर्शाती हैं। हालाँकि भाजपाई यह उम्मीद कर रहे हैं कि बसपा कांग्रेस का नुकसान करेगी, लेकिन जमीनी हकीकत देखें तो बसपा से सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को ही होगा। पिछले चुनावों में भाजपा सरकार बनाने में दलितो की सबसे अहम भूमिका रही थी। अजा, अजजा की तीन चौथाई से ज्यादा सीटों पर भाजपा का कब्जा हुआ था।

चार दिसंबर को होने जा रहे मतदान में भाजपा और कांग्रेस दोनो ही दलों के कई दिग्गजों की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी हुई है। इनमें मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष डॉ सीपी जोशी, विधानसभा की अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रासिंह, भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष सांसद किरण माहेश्वरी, कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हरेंद्र मिर्धा सहित अनेक नेता शामिल हैं।

अपनी सत्ता वापसी की कोशिशों में जुटी भाजपा ने इस बार सघन प्रचार अभियान चलाया मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से लेकर पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी तक ने चुनाव प्रचार में अपने को झोंक दिया। भाजपा ने प्रदेश भर में कुल 236 चुनावी सभाएँ कीं, जिनमे सबसे ज्यादा 67 चुनावी सभाएँ वसुंधरा राजे ने की।

उनके तथा आडवाणी के अलावा पार्टी अध्यक्ष राजनाथसिंह, तीन राज्यो के मुख्यमंत्री और अनेकों दूसरे नेता और पार्टी से जुडे़ अभिनेता प्रचार अभियान में कूद पडे़। जबकि कांग्रेस की ओर से पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी और महासचिव राहुल गाँधी ही स्टार प्रचारक रहे। उनके अलावा प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ ही दूसरे प्रांतों के कई बडे़ कांग्रेसी नेता प्रचार में नजर आए।