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Written By WD
Last Modified: बुधवार, 22 जनवरी 2014 (16:42 IST)

पर्यावरण प्रदूषण से कश्मीर भी अछूता नहीं

सुरेश एस डुग्गर

पर्यावरण प्रदूषण से कश्मीर भी अछूता नहीं -
अंग्रेजी फिल्म ‘ए डे ऑफ्टर टूमारो’ देखने वालों को इस बात का अहसास जरूर होता होगा कि अगर पृथ्वी के पर्यावण को प्रदूषण से नहीं बचाया गया तो पृथ्वी के अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा। नतीजतन पृथ्वी के प्रदूषित होते वातावरण की चिंता में कश्मीर भी इस प्रदूषण से अछूता नहीं है। जहां पर्यटकों के साथ-साथ अन्य पक्ष भी इसे प्रदूषित करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।
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जम्मू-कश्मीर में तो हाल-ए-प्रदूषण यह है कि पर्यटक जहां वादी-ए-कश्मीर, विश्वप्रसिद्ध डल व मानसर झीलों, अमरनाथ व वैष्णोदेवी के यात्रा मार्गों में पड़ने वाले पहाड़ों को प्रदूषित करने में जुटे हैं वहीं स्थाई रूप से जम्मू-कश्मीर के पहाड़ों पर टिकने वाली भारतीय फौज भी कम दोषी नहीं है इस प्रदूषण के लिए। चौंकाने वाली बात तो इस तेजी से फैलते प्रदूषण के प्रति यह है कि अगर आने वाले दिनों में विश्व के सबसे ऊंचे युद्धस्थल सियाचिन ग्लेशियर के तेजी से पिघलने और वैष्णोदेवी गुफा के ढहने की खबर मिले तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

जब पर्यावरण को प्रदूषित करने की बात आती है तो जम्मू-कश्मीर को एक अपवाद के रूप में लिया जा सकता है। ऐसा इसालिए क्योंकि जम्मू-कश्मीर के पहाड़ों को दूषित करने में प्रतिवर्ष आने वाले लाखों लोग तो शामिल हैं ही वे सैनिक भी हैं जो देश की रक्षा की खातिर कारगिल से लेकर सियाचिन हिमखंड जैसे युद्धस्थल पर तैनात हैं और प्रतिवर्ष टनों के हिसाब से वे वहां कचरा फैला रहे हैं।

जब वर्ष 1984 में वैष्णोदेवी के विश्वप्रसिद्ध तीर्थस्थल पर आने वालों की संख्या मात्र कुछ हजार थी तो पर्यावरण के दूषित होने के प्रति गंभीरता से सोचा नहीं गया था, लेकिन आज जबकि प्रतिवर्ष आने वालों का आंकड़ा एक करोड़ को छूने लगा है, ऐसे में पर्यावरण को खराब करने में अगर इन श्रद्धालुरूपी पर्यटकों का दोष है ही साथ ही तीर्थस्थान की देखभाल करने वाला स्थापना बोर्ड भी बराबर का भागीदार है। उसका दोष मात्र यह है कि आने वालों के लिए सुख-सुविधाओं की पूर्ति के लिए उसने पहाड़ों को बारूद से उड़ाकर कांक्रीट के जंगल तैयार कर दिए तो रास्ते बनाने की खातिर वनों का विनाश कर दिया।

इसी कारण यह एक कड़वी सच्चाई के साथ स्वीकार करना पड़ेगा कि वैष्णोदेवी तीर्थस्थल पर आने वालों के लिए यह खबर बुरी हो सकती है कि अगर किसी दिन उन्हें यह समाचार मिले कि जिस गुफा के दर्शनार्थ वे आते हैं, वह ढह गई है तो कोई अचम्भा उन्हें नहीं होना चाहिए।

ऐसी चेतावनी किसी ओर के द्वारा नहीं बल्कि भू-वैज्ञानिकों द्वारा दी जा रही है जिनका कहना है कि अगर उन त्रिकुटा पहाड़ियों पर, जहां यह गुफा स्थित है, प्रदूषण रूपी विस्फोटों का प्रयोग निर्माण कार्यों के लिए इसी प्रकार होता रहा तो एक दिन गुफा ढह जाएगी।

वार्षिक मानसरोवर यात्रा में होने वाले भूस्खलन के कारण हुई मौतों के बाद इस प्रकार की चेतावनी जोर पकड़ती जा रही है जिस पर कोई वैसे ध्यान देने को तैयार नहीं है जिस कारण इस यात्रा में प्रतिवर्ष शामिल होने वाले एक करोड़ लोगों की जान खतरे में है।

जिस प्रकृति के साथ करीब 29 सालों से खिलवाड़ हो रहा था उसने आखिर अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है। पिछले आठ सालों के भीतर इस तीर्थस्थल के यात्रा मार्ग में होने वाली भूस्खलन की कई घटनाएं एक प्रकार से चेतावनी हैं उन लोगों के लिए जो त्रिकुटा पर्वतों पर प्रकृति से खिलवाड़ करने में जुटे हुए हैं।

यह चेतावनी कितनी है इसी से स्पष्ट है कि भवन, अर्द्धकुंवारी, हात्थी मत्था, सांझी छत और बाणगंगा के रास्ते में होने वाली भूस्खलन की कई घटनाएं अभी तक बीसियों श्रद्धालुओं को मौत की नींद सुला चुकी हैं, जबकि जिन स्थानों पर भूस्खलन हुए हैं और चट्टानें खिसकीं और कई लोग दबकर मर गए उनके पास निर्माण कार्य चल रहे थे।

प्रदूषण और भूस्खलन की इन घटनाओं के बारे में भू-वैज्ञानिक अपने स्तर पर बोर्ड के अधिकारियों को सचेत कर चुके थे कि गुफा के आसपास के इलाके में पिछले कई सालों से जिस तेजी से निर्माण कार्य हुए हैं उससे पहाड़ कमजोर हुए हैं।

इन वैज्ञानिकों ने यह सलाह दी थी कि बोर्ड को सावधानी के तौर पर भू-विशेषज्ञों व अन्य तकनीकी लोगों से पहाड़ों-चट्टानों की जांच करवाकर जरूरी कदम उठाने चाहिए क्योंकि इसे भूला नहीं जा सकता कि हिमालय पर्वत श्रृंखला की शिवालिक श्रृंखला कच्ची मिट्टी (लूज रॉक) से निर्मित है, पर बोर्ड के अधिकारियों ने कथित तौर पर इस चेतावनी पर खास रुचि नहीं दिखाई।

गौरतलब है कि बोर्ड की जिम्मेवारी यात्रा प्रबंधों के साथ-साथ यह भी है कि गुफा के आसपास के वनों व प्राकृतिक खूबसूरती को आंच न आए। आसपास के पहाड़ों और वनों पर राज्य वन विभाग का कोई नियंत्रण नहीं है। वनों को सुरक्षित रखना बोर्ड की ही जिम्मेदारी है।

वर्ष 1986 में तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ने बोर्ड का गठन किया था तो वनों व आसपास की त्रिकुटा पहाड़ियों का नियंत्रण बोर्ड को देने का एकमात्र कारण यह भी था कि विभिन्न एजेंसियों के रहने से गुफा के आसपास के प्राकृतिक सौंदर्य को नुकसान पहुंच सकता है। इसलिए बोर्ड को ही सारा नियंत्रण सौंपा गया, परंतु इस अधिकार का बोर्ड ने गलत मतलब निकाला और जब चाहा वनों के साथ-साथ त्रिकुटा पहाड़ियों को नुकसान पहुंचाया। अगर ऐसा न होता तो गुफा के आसपास का इलाका जो कुछ साल पहले संकरा था, वह आज मैदान जैसा कैसे बन गया?

यही नहीं वैष्णोदेवी तीर्थस्‍थान में विस्फोटकों के इस्तेमाल का नतीजा अगर भूस्खलन रूपी प्रदूषण है तो साथ ही प्रतिवर्ष आने वाले एक करोड़ श्रद्धालुओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाला प्लास्टिक का कचरा भी है। हालांकि वैष्णोदेवी के तीर्थस्थान में अब प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है, लेकिन यह ठीक उसी प्रकार नजरअंदाज कर दिया जा रहा है जिस प्रकार जम्मू-कश्मीर के पर्वतीय रमणीय स्थलों पर बढ़ती पर्यटकों की संख्या के कारण वहां पैदा हो रही पर्यावरण की समस्या को नजरअंदाज किया जा रहा है।

वर्ष 1989 में आतंकवाद की शुरुआत से पूर्व भी पर्यावरण को प्रदूषित करने की समस्या थी लेकिन इतनी गंभीर इसलिए नहीं थी क्योंकि वनप्रेमी पर्यावरण को बचाने की खातिर वनों के विस्तार की योजनाओं में भी हिस्सा लेते रहे, परंतु अब स्थिति यह है कि वन क्षेत्र तेजी से कम हो रहे हैं। खास कारण कश्मीर समेत पहाड़ी इलाकों में लकड़ी का अधिक मात्रा में इस्तेमाल तो है ही साथ ही सभी कार्यों में लकड़ी को ही प्रयोग में लाया जा रहा है।

अब जबकि कश्मीर में पर्यटन का एक बार फिर विस्तार होने लगा है पर्यावरणविदों की चिंता पर्यटकों के कारण बढ़ता प्रदूषण भी है। यही प्रदूषण आज अगर विश्वप्रसिद्ध डल झील के सिकुड़ने का मुख्य कारण है तो वार्षिक अमरनाथ यात्रा के दौरान प्राकृतिक तौर पर बनने वाले हिमलिंग के जल्द पिघलने के लिए भी दोषी है। मानसर झील में प्रतिवर्ष लाखों की तादाद में होने वाली मछलियों की मौत को भी अब उसी प्रदूषण के साथ जोड़ा जाने लगा है जो वहां आने वाले हजारों पर्यटकों द्वारा फैलाया जाता है।

असल में पहाड़ों तथा पर्यटन स्थलों पर लोगों द्वारा जमा किए जाने वाला प्लास्टिक कचरा पर्यावरण के लिए एक गंभीर खतरा बनता जा रहा था जिससे निपटने के लिए सरकार के पास प्रतिबंध के सिवाय कोई विकल्प नहीं था, लेकिन प्रतिबंध कितने कामयाब हो पाए हैं वैष्णोदेवी यात्रा मार्ग और अमरनाथ यात्रा मार्ग पर लगे हुए प्लास्टिक के कचरे के ढेरों को देखकर पता लगाया जा सकता है।

हालांकि वैष्णोदेवी के यात्रा मार्ग पर प्लास्टिक कचरे को एकत्र करने के लिए थोड़ी-बहुत व्यवस्था की गई है, मगर अमरनाथ यात्रा मार्ग पर ऐसा कुछ नहीं है। नतीजतन भाग लेने वाले श्रद्धालु उसे पहाड़ों पर ही इधर-उधर फेंकते आ रहे हैं जिस कारण प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है।

अभी तक यही होता था कि अमरनाथ यात्रा के दौरान लगाए जाने वाले लंगरों में थालियां तथा गिलास भी प्लास्टिक के ही इस्तेमाल होने लगे थे। नतीजतन प्लास्टिक का कचरा इन स्थलों पर ढेर बनता जा रहा है जिससे छुटकारा पाने का कोई उपाय सरकार के पास अभी तक नहीं है। अमरनाथ यात्रा के दौरान प्लास्टिक का प्रयोग और ज्यादा इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि भार में हल्का होने के कारण लोग इसके प्रयोग को अहमियत देते रहे हैं।

यहां तक कि गुफा के भीतर टपकते पानी से बचाव के लिए भी प्लास्टिक की शीटों का इस्तेमाल हो रहा है, तो तंबू भी प्लास्टिक के प्रयोग में लाए जाते हैं, लेकिन अब जब पर्यावरण को बचाने की खातिर प्रतिबंध का कदम उठाया गया है कि अमरनाथ यात्रा के दौरान इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लागू कर दिया जाएगा तो अमरनाथ यात्रा में भाग लेने तथा लंगर लगाने वालों को अपनी व्यवस्थाओं पर पुनर्विचार करना पड़ रहा है।

उनकी समस्या अब प्लास्टिक के स्थान पर किस विकल्प को चुनें वह है। उन्हें प्लास्टिक का विकल्प स्टील दिख तो रहा है मगर वह उनके बजट पर बोझ डाल रहा है। माना कि स्टील के बर्तनों को खरीदना एक ही बार पड़ता है लेकिन ढुलाई महंगी पड़ेगी। इसके प्रति सरकार ने अनुग्रह ठुकरा दिया है कि लंगरवालों को प्लास्टिक के इस्तेमाल की अनुमति दी जाए।
जम्मू-कश्मीर में इस प्रदूषण की मार सिर्फ पहाड़ ही नहीं झेल रहे हैं बल्कि कश्मीर की निशानियां झीलें भी इससे प्रताड़ित हो रही हैं। हालात तो यहां तक गंभीर है कि विश्वप्रसिद्ध डल झील के अस्त्तिव पर ही खतरा पैदा हो गया है जो प्रदूषण के कारण दिन-ब-दिन सिकुड़ती जा रही है, तभी तो धरती का स्वर्ग कश्मीर अपनी जिस पहचान डल झील के कारण विश्वभर में पहचाना जाता है आज वही झील, जिसके चमचमाते बेदाग आइने से साफ पानी में खुद प्रकृति मानो झुककर अपना प्रतिबिंब निहारती थी, आज अपने वजूद के लिए संघर्षरत है।

स्थिति यह है कि यदि तत्काल कुछ ठोस उपाय नहीं किए गए तो अगले कुछ वर्षों में इस झील का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। असल में झल झील जिसके सतह पर तैरते शिकारे पर्यटकों को लुभाते, जिसके बीचोंबीच स्थित चार चिनार के पेड़ ठंडी छांव की सुखद अनुभूति देते, वही डल झील आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है। झील के किनारों पर बढ़ते अतिक्रमण, कूड़ा कचरा फेंके जाने और गंदा पानी बहाए जाने से डल झील धीरे-धीरे विनाश की ओर अग्रसर है। विशेषज्ञों का मानना है कि झील में तैरते बगीचों और जलग्रहण क्षेत्रों में खेती जारी रहने, अवैध अतिक्रमण और चारों ओर हो रहे निर्माण कार्य के कारण डल झील में पानी लगातार कम होता जा रहा है।

सतही तौर पर झल झील भले ही सुंदर प्रतीत होती हो मगर वास्तविकता यह है कि इसका पानी अब सड़ने लगा है। इस झील का स्वच्छ और निर्मल पानी अब लाल नजर आता है। इस लाल पानी के कारण झील का पानी इतना प्रदूषित हो चुका है कि वहां एक मछली का जीवित रहना भी असंभव हो गया है।

कश्मीर में स्थित यह झील अब पर्यटन का केंद्र नहीं रह गई है। झील के आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले इस बात को लेकर चिंतित हैं कि क्या डल दुबारा अपना खोया हुआ गौरव पा सकेगी। स्थिति यह है कि पर्यावरणविदों की ओर से यह आग्रह भी किया जा रहा है कि पर्यटन के तौर पर न सही, राष्ट्रीय विरासत के तौर पर इस झील की सुरक्षा के लिए आपात कदम उठाए जाने चाहिए जो अब अस्तित्व की लड़ाई से जूझ रही है।

इस झील के लिए सबसे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि उसमें तैरने वाले हाउस बोटों, आसपास की बस्तियों तथा होटलों आदि की करीब 1000 टन गंदगी प्रतिवर्ष डल के बीच समा दी जाती है और बावजूद इसके यह कहा और प्रचारित किया जाता है कि आप उस डल झील को देखने के लिए कश्मीर में आएं जो लेखकों, कलाकारों, कवियों आदि को 250 ईपू से ही प्रेरणा देती रही है और अब शायद अतीत की कथा में बदलने जा रही है।

वर्ष 1931 में 35 वर्ग किमी के क्षेत्रफल में फैली विश्वप्रसिद्ध डल झील अब सिकुड़कर 10.4 वर्ग किमी रह गई है। हालांकि कई पर्यावरणविदों का कहना है कि 1891 में इसका क्षेत्रफल 50 वर्ग किमी के लगभग था और 1992 में यह 19.5 वर्ग किमी रह गई थी। अर्थात् 1891 से लेकर 1992 तक के एक सौ साल के सफर के दौरान डल झील मात्र 31 वर्ग किमी सिकुड़ गई थी तो अब छह सालों के अंतराल के दौरान यह दस वर्ग किमी कम हो गई है।

प्रति वर्ष झील एक वर्ग किमी के हिसाब से सिकुड़ रही है। इसे सिकुड़ने को मजबूर करने वाले कोई और नहीं, वे लोग हैं जो इसके सहारे अपनी झोलियों को नोटों से भर चुके हैं और अगर यही रफ्तार रही इसकी कम होने की तो अगले कुछ सालों में न ही इसमें चलने वाले शिकारे मिलेंगें और न ही हाऊस बोट जबकि यह सब इसलिए नहीं दिखेगा क्योंकि डल झील जिस तेजी से सिकुड़ती जा रही है मानवीय तथा प्राकृतिक कारणों से उसके चलते यह एक तालाब में बदल जाएगी।

हालांकि पर्यावरणविद कहते हैं कि पानी को लगी हुई बीमारी अंतिम स्तर पर नहीं बल्कि मध्यम स्तर पर है जिससे छुटकारा पाया जा सकता है और लोककथाओं, साहित्य, कविताओं, कहानियों, गीतों आदि में स्थान पाने वाली इस झील को बचाया जा सकता है जो न सिर्फ उन दो हजार के करीब परिवारों के 16000 सदस्यों के लिए रोजगार का प्रमुख साधन है, जो हाउस बोटों तथा शिकारे वालों का व्यवसाय करते हैं बल्कि वह कश्मीर के पर्यटन का प्रमुख आकर्षण भी है, जिसके खत्म होने का सीधा अर्थ है कश्मीर के पर्यटन व्यवसाय का अनंतकाल के लिए गहरी गर्त में चले जाना।
डल के प्रति किसी को कितनी चिंता है इसी से स्पष्ट है कि सरकारी असमर्थता पर चिल्लाने वाले हाऊस बोट तथ शिकारे वाले आज आप ही इस झील को मौत की ओर धकेल रहे हैं इसमें गंदगी फैला कर जबकि वे इस सच्चाई से भी वाकिफ हैं कि इस झील का अस्तित्व इतना ही आवश्यक है जितना कश्मीर का क्योंकि इसके बिना कश्मीर को कोई नहीं जानता।

देखा जाए तो असल मायनों में लोगों के लिए डल झील के मायने ही कश्मीर हैं। और अब अधिकारियों को झील की बर्बादी के प्रति की कोई चिंता नहीं, क्योंकि उनकी प्राथमिकताएं कहीं और जुड़ी हैं। जाहिर है कि संकटग्रस्त राज्य पर अपनी पकड़ बनाए रखना, जो हाल के वर्षों में भारत विरोधी मुहिम का शिकार हो कर रह गया है, में कार्यरत अधिकारी अब जहां तक कह उठते हैं 'डल जाए भाड़ में, इसे बचाने का कोई रास्ता नहीं है।’

चौंकाने वाला तथ्य जम्मू कश्मीर में तेजी से बढ़ते सभी प्रकार के प्रदूषणों का यह है कि इससे इंसान ही नहीं बल्कि प्रकृति भी ग्रस्त और त्रस्त हो गई है। तभी तो किसी कस्बे में झील का पानी प्रदूषित हो रहा है, जो नई बीमारी के रूप में सामने आता है तो किसी कस्बे में झील में लाखों की तादाद में मछलियां मर रही हैं।

इतना ही नहीं प्रकृति पर प्रदूषण का जो सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है उसने जम्मू कश्मीर में मौसम को भी बदल कर रख दिया है। मौसम विज्ञानी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जम्मू कश्मीर में फैले प्रदूषण के परिणामस्वरूप ही इस बार जम्मू कश्मीर में भयानक सर्दी पड़ी थी। भयानक सर्दी और वह भी बिना किसी बर्फबारी के।

हालांकि वे बिना बर्फ के होने वाली भयानक सर्दी के लिए पश्चिमी गड़बड़ियों को भी दोषी ठहराते थे मगर इन पश्चिमी गड़बड़ियों का मुख्य कारण भी उनकी नजर में प्रदूषण ही था जो जम्मू कश्मीर के आसपास के क्षेत्रों में फैला हुआ है।

इन वैज्ञानिकों के अनुसार, प्रदूषण बढ़ाने में सिर्फ वाहनों की ही अधिक भूमिका नहीं है क्योंकि यह मात्र शहरी क्षेत्रों में ही चलते हैं बल्कि जम्मू कश्मीर जैसे पहाड़ी क्षेत्रों की जनता द्वारा सर्दी से बचने तथा खाना पकाने का कोई अन्य साधन नहीं होने के कारण इस्तेमाल किए जाने वाला ईधन भी प्रदूषण के बढ़ावे में एक बड़ा कारक है।

सनद रहे कि सिर्फ कश्मीर के लोग सर्दियों के दिनों में दो लाख टन लकड़ी और इससे कई गुणा अधिक कोयले का इस्तेमाल प्रत्येक सर्दी में करते आ रहे हैं। जबकि सारे राज्य में कितनी लकड़ियों व कोयले का इस्तेमाल हो रहा है कोई सर्वेक्षण और कोई आंकड़ा ही उपलब्ध नहीं है।

प्रदूषण फैलाने में सिर्फ वाहन, कोयला व लकड़ी ही मुख्य भूमिका नहीं निभा रहे बल्कि रासायनिक खादें भी इसमें अहम भूमिका निभा रही हैं जिनका इस्तेमाल कश्मीर के किसान कितनी मात्रा में कर रहे हैं यह इसी से स्पष्ट है कि सारे हिन्दुस्तान में जितनी मात्रा में रासायनिक खादों का इस्तेमाल हो रहा है, उसका 20 प्रतिशत सिर्फ कश्मीर घाटी में प्रयोग हो रहा है जबकि इसमें जम्मू व लद्दाख के क्षेत्रों में इस्तेमाल हो रही खादों की मात्रा को जोड़ना बाकी है।

बेहिसाब और बिना किसी जांच परख के इस्तेमाल होने वाली रासायनिक खादें खेतों में फसलों को लाभ तो नहीं पहुंचा रही लेकिन इतना अवश्य है कि वे वातावरण में विष को अवश्य घोल रही हैं।
रोचक बात यह है कि देशभर में कई प्रतिबंधित खादें, रासायनिक पदार्थ आदि कश्मीर में धड़ल्ले के साथ बिक रहे हैं जिनके व्यापार पर कोई रोक इसलिए भी नहीं है क्योंकि आतंकवाद का भय है। नतीजतन लोगों द्वारा उनका प्रयोग कर मौत को बुलावा दिया जा रहा है। खेतीबाड़ी के नए तरीकों से अनभिज्ञ होने के परिणाम में किसानों द्वारा जानबूझ कर वातावरण को दूषित किया जा रहा है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, जितनी खाद तथा रसायनों की आवश्यकता खेतों में उगाई गई फसलों, सेेब की पैदावार तथा केसर के लिए होती है, उससे अधिक का इस्तेमाल कर कश्मीर के किसान न सिर्फ अपने खेतों की उर्वरता को क्षति पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं बल्कि इन पदार्थों का अधिक इस्तेमाल उनकी उपयोगिता को भी खत्म कर रहा है।

हालांकि नदी-नालों व झीलों के पानी को प्रदूषित करने में वह गंदगी भी सहायता कर रही है जिसे जानबूझ कर इनमे फैंका जाता है। डल झील और मानसर झीलों को ही लें। डल झील में उसके आसपास के सभी होटलों की गंदगी ही नहीं बल्कि उसमें चलने वाले हजारों हाऊसबोटों व शिकारों का मल-मूत्र भी फैंका जाता है तो ठीक इसी प्रकार मानसर झील, जिसे धार्मिक दृष्टि से भी भी पवित्र माना जाता है, में मल-मूत्र ले जा रही पाइपें सरकारी दावों की पोल अवश्य खोलती हैं।

इन सबका परिणाम यह है कि इन झीलों, नदियों के किनारे रहने वाले लोगों को इनका दूषित पानी पीने को मजबूर होना पड़ रहा है क्योंकि उनके पास पानी का कोई और स्रोत्र नहीं है तथा उन्हें इनका पानी बिना फिल्टर के पीने को मजूबर होना पड़ रहा है।

फिलहाल जम्मू कश्मीर में फैलते प्रत्येक किस्म के प्रदूषण की रोकथाम के लिए कोई आवश्यक पग नहीं उठाए गए हैं। हालांकि प्रदूषण के कारण होने वाले नुक्सानों से सरकार भी आप भली भांति परिचित है तो उसके प्रति भाषण झाड़ने के अतिरिक्त इतना कार्य अवश्य कर रही है कि योजनाएं कागजों पर अवश्य बना रही है।

जबकि अगर मौसम वैज्ञानिकों पर विश्वास करें तो अगर बढ़ते प्रदूषण की रफ्तार को थामा नहीं गया तो जल्द ही जम्मू कश्मीर का प्रत्येक नागरिक प्रदूषण से होने वाली बीमारी से त्रस्त तो होगा ही झीलें खत्म हो जाएंगी तथा शुष्क सर्दी का सामना करना पड़ा करेगा लोगों को जिसमें बर्फ नहीं हुआ करेगी।

और जब जम्मू कश्मीर में पर्यावरण के प्रदूषित होने की बात आती है तो उस पक्ष को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता जो स्थाई रूप से पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा है। यह पक्ष भारतीय फौज का है जिसने आज विश्व के सबसे ऊंचे युद्धस्थल सियाचिन हिमखंड को अगर कभी क्षरित न होने वाले कचरे का ढेर बना दिया है तो करगिल के पहाड़ों पर फैलती गंदगी को हटाने की खातिर कोई उपाय अभी तक नहीं हुआ है।

हालांकि फौज ने रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन अर्थात डीआरडीओ से सियाचिन हिमखंड को कचरे से मुक्त करने की योजनाओं को तैयार करने का आग्रह किया था लेकिन कोई नतीजा सामने नहीं आया है। इस हिमखंड की दशा यह है कि यहां पर सिर्फ डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का इस्तेमाल होता है और उनका लाखों टन कचरा प्रतिवर्ष वहीं फेंक दिया जाता है जो हिमखंड के शून्य से कई डिग्री नीचे के तापमान में प्राकृतिक रूप से क्षरित ही नहीं हो पाता।

परिणाम भी सामने है। इसे आधिकारिक तौर पर माना जा रहा है कि वर्ष 1984 से जो हिमखंड विश्व का सबसे ऊंचा युद्धस्थल बना हुआ है वहां कचरे के ढेर व हेलिपैड बनाने के लिए जलाए जाने वाले कचरे के कारण हिमखंड सिकुड़ता जा रहा है और यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अगर यही स्थिति रही तो आने वाले समय में दोनों देशों की फौजों को पिघलते हुए हिमखंड में लड़ाई लड़नी होगी। सिर्फ सैनिकों से नहीं बल्कि एक नए प्राकृतिक खतरे से भी जो कचरे के कारण पैदा हो रहा है।