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Written By भाषा
Last Modified: लखनऊ , बुधवार, 8 सितम्बर 2010 (21:23 IST)

अयोध्या विवाद पर फैसला 24 सितंबर को

अयोध्या विवाद पर फैसला 24 सितंबर को -
अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवादित स्थल के स्वामित्व विवाद संबंधी दीवानी दावों पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ 24 सितंबर को अपराह्न अपना फैसला सुनाएगी।

पिछली 26 जुलाई को न्यायमूर्ति एसयू खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा की विशेष पूर्ण खंडपीठ ने चारों दीवानी दावों पर विस्तृत सुनवाई के बाद निर्णय सुरक्षित कर लिया था। इनमें पहला दावा करीब 60 वर्ष पूर्व 1950 में दायर हुआ था।

वर्ष 1989 तक के दावे पहले फैजाबाद की दीवानी अदालत में विचाराधीन रहे। इसके बाद राज्य सरकार की ओर से तत्कालीन महाधिवक्ता के आग्रह पर इन्हें उच्च न्यायालय स्थानांतरित किया गया।

उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में इन दावों पर सुनवाई चल रही थी। वर्ष 1995 से इन दावों में गवाही शुरू हुई। जनवरी 2010 से इनकी प्रतिदिन सुनवाई चल रही थी। पहला दावा 1950 में गोपालसिंह विशारद ने दायर कर पूजा की अनुमति देने का आग्रह किया। 1959 में निर्मोही अखाड़े ने दावा दायर कर ‘रिसीवर‘ से प्रभार दिलाने का आग्रह किया।

1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने घोषणात्मक वाद दायर कर विवादित स्थल का कब्जा दिलाए जाने का आग्रह किया। चौथा दावा 1989 में भगवान श्रीराम लला विराजमान के नाम से ‘नेक्स्ट फ्रेंड’ के जरिए दायर किया गया।

सुन्नी बोर्ड के अधिवक्ता जफरयाब जिलानी ने बताया कि अदालत ने इस मामले को 24 सितंबरम को अपराह्न 3.30 बजे फैसला सुनाए जाने के लिए सूचीबद्ध करने के आदेश दिए हैं।

रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवादित परिसर में ताला पड़ने के बाद सबसे पहले अयोध्या के गोपालसिंह विशारद द्वारा दीवानी अदालत में दाखिल याचिका पर अदालत ने 19 जनवरी 1950 को आदेश दिया कि अब न तो उस जगह से मूर्तियाँ हटाई जाएँगी और न ही पूजा-अर्चना से किसी को रोका जाएगा।

इसके बाद बाबरी मस्जिद पक्ष के लोगों ने 21 फरवरी 1950 को अदालत में अपील की और माँग की कि चूँकि सन 1528 में बाबर के सेनापति मीर बाकी ने इस मस्जिद को बनवाया था। इसलिए इसे मुस्लिम समुदाय को सौंप दिया जाए, जिसके विरोध में हिन्दू संगठनों ने अदालत के बाहर जमकर प्रदर्शन किया।

इसी बीच, तत्कालीन राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष रामचन्द्र परमहंस ने 5 दिसंबरम 1950 को रामजन्म भूमि को छोड़ने हेतु एक याचिका न्यायालय में दाखिल की, लेकिन यह याचिका अदालत के दाव-पेंच में ही फँसकर रह गई और देखते-देखते लगभग पाँच वर्ष बीत गए।

28 मार्च 1955 बाबरी मस्जिद के पक्षकारों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसमें विवादित परिसर से मूर्ति को हटाकर मस्जिद को मुसलमानों को सौंपने की अपील की गई, जबकि हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही अपने-अपने हिस्से में पूजा-अर्चना कर रहे थे।

दिसंबरम 1959 में एक नया मोड़ आया जब निर्मोही अखाड़े के महंत रामेश्वर दास ने रिसीवर को हटाकर राम जन्मभूमि की देखरेख अपने हाथ में लेने की याचिका दायर कर दी। दूसरी ओर, मस्जिद की जमीन को अपने कब्जे में लेने के लिए सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने 1961 में न्यायालय में वाद दाखिल किया, जिससे विवाद और उलझता ही चला गया।

मंदिर और मस्जिद समर्थक विवादित स्थल एक दूसरे से मुक्त कराने के लिए गणित में लगे रहे, लेकिन नतीजा ‘ढाक के तीन पात’ ही रहा और देखते ही देखते तीन दशक बीत गए। मुकदमे में उस समय मोड़ आया जब एक फरवरी 1986 को जनपद न्यायाधीश केएम पांडेय ने मंदिर के पक्षकार उमेशचन्द्र पांडेय की याचिका पर मंदिर का ताला खोलने का आदेश दे दिया।

उस समय प्रदेश में कांग्रेस और केन्द्र में राजीव गाँधी की सरकार थी, जो मस्जिद के समर्थकों को अच्छा नहीं लगा और जिला न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ सबसे पहले अयोध्या निवासी मोहम्मद हाशिम ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दायर की। इसके बाद मई 1986 में सुन्नी वक्फ बोर्ड ने भी उच्च न्यायालय में ताला खोले जाने के विरुद्ध याचिका दायर की।

हालाँकि उच्च न्यायालय ने जिला न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा, तब से पूजा लगातार हो रही है। 6 दिसंबर 1992 को कार सेवकों द्वारा कारसेवा के दौरान विवादित ढाँचा गिराए जाने के बाद नए युग की शुरुआत हो गई। देश सांप्रदायिकता की आग में जलता रहा और राजनीतिक लोग इसका फायदा उठाते रहे।

मध्यप्रदेश पुलिस सतर्क : प्रदेश के पुलिस महानिदेशक एसके राउत ने कहा कि हमें आशंका है कि इस मामले (राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद प्रकरण) में निकट भविष्य में संभावित फैसला आने पर दोनों में से एक गुट अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है। लिहाजा हमारी हालात पर लगातार निगाह बनी हुई है। पुलिस अफसरों को निर्देश दिए गए हैं कि सांप्रदायिक सद्भाव का माहौल बिगाड़ने वालों पर शून्य सहिष्णुता की नीति अपनाई जाए। (भाषा)