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Written By WD

चीन को देना होगा कड़ा संदेश, छोड़ना होगी कायरता...

चीन को देना होगा कड़ा संदेश, छोड़ना होगी कायरता... -
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इसी वर्ष 15 अप्रैल को करीब तीस चीनी सैनिक भारत-चीन सीमा के अरक्षित हिस्से से घुसकर वास्तविक नियंत्रण रेखा (लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल-एलएसी) के 19 किमी अंदर तक घुस गए और उन्होंने वहां अपना एक शिविर भी स्थापित कर लिया। यह ऐसी घटना नहीं थी जिसके बारे में जानकारी न हो और भारतीय सीमा में घुसपैठ की निश्चित तौर पर पहली घटना भी नहीं थी

इस घटना के बाद एक भारतीय समाचार पत्र ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि वर्ष 2012 में ही भारतीय सीमा में चीनी घुसपैठ की चार सौ से ज्यादा घटनाएं हुई हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि इनमें से 90 फीसदी घटनाएं लद्‍दाख क्षेत्र में हुईं थीं और यह घटना भी लद्दाख क्षेत्र में ही हुई। इस बार चीनी सैनिकों ने विवादित क्षेत्र में अपना शिविर तक स्थापित कर लिया था और वर्ष 1986 के बाद यह ऐसी पहली घटना थी।

भारत और चीन की सेनाओं के मिलिटरी प्रतिनिधियों की एक फ्लैग मीटिंग बुलाई गई, लेकिन इस समस्या का कोई हल नहीं निकला। बाद में कई बैठकें की गईं और राजनयिक चैनलों, जनता और जन संचार माध्यमों से दबाव बनाया गया और भारत ने चीन से कहा कि वह अपने सैनिकों को वापस बुलाए और उसके सैनिक अपनी पुरानी पोजीशन्स पर लौट जाएं। तब चीन ने भारत से कहा कि वह एलएसी पर बने उन सभी पक्के निर्माण कार्यों को ध्वस्त कर दे जिन्हें भारतीय सैनिकों ने बना लिया है। उन्होंने इन्हें फोर्टीफाइड पोजीशन्स (मजबूत बना लिए गए मोर्चों) का नाम दिया। इस मुद्‍दे को लेकर भारत, चीन और शेष विश्व में बहुत चर्चा हुई और इस तरह अपने देश के भूभाग का विस्तार करने की चीनी नेताओं की मंशा पर सवाल खड़े किए गए।

1962 युद्ध को छोटी सी घटना मानता है चीन, क्यों... पढ़ें अगले पेज पर....


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विचार-विमर्श के इस दौर में चीन के एक जानकार विद्वान डॉ. लियू जोंगयी ने चीन के सरकारी दैनिक ग्लोबल टाइम्स में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था- इंडिया स्टिल कंजरव्स फ्रंटियर मेंटलिटी ओवर 1962 बॉर्डर वार विद इंडिया। यानी मोटे तौर पर भारत की मानसिकता अभी भी वैसी है ‍जैसी कि 1962 के युद्ध के समय पर थी। इस लेख के शुरुआत में ही चीनी विद्वान ने इस बात को आपत्तिजनक बताया कि भारत 1962 के सीमा युद्ध की पचासवीं वर्षगांठ मना रहा है और अभी भी 1962 में युद्ध जैसी घटना (याद रखें युद्ध नहीं युद्ध जैसी छोटी घटना) की मानसिक ग्रंथि से उबर नहीं सका है। लियू का कहना है कि इसके लिए चीन को दोष देना गलत है और उससे यह उम्मीद करना गलत होगा कि वह इस छोटी घटना के लिए भी माफी मांगे।

लियू ने लिखा है कि भारत और चीन के बीच सीमा तो क्या वास्तविक नियंत्रण रेखा भी तय नहीं है। इसके अलावा इनको तय करने वाली जिस मैकमोहन लाइन का जिक्र किया जाता है वह भारत और चीन पर ब्रिटिश शासकों ने थोप दी थी। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश शासकों ने आधुनिक अर्थों में किसी सीमा का निर्धारण नहीं किया था क्योंकि ब्रिटेन को यह सीमांकन तब विरासत में मिला था जब चीन में पूर्व क्विंग राजवंश (1644-1911 ) का शासन था और भारत में सत्ता पुराने मुगल राजवंशों (1526-1707) के हाथों में थी। उन्होंने कहा कि यह स्थिति विशुद्ध रूप से औपनिवेशिक इतिहास की व्याख्या भर थी। उनका दावा है कि अब तो ब्रिटेन के विदेशी मामलों का मंत्रालय भी मानता है कि मैकमोहन लाइन ही अवैध थी।

लियू का कहना है कि भारत ने दलाई लामा की बगावत का न केवल समर्थन किया वरन उन्हें अपने देश में शरण भी दी। उनका कहना है कि चीन को यह मामला सामरिक तरीके से यानी लड़ाई से हल कर लेना चाहिए था, ले‍किन चीन सरकार हमेशा ही इस मुद्दे को बातचीत से हल करना चाहती है। अप्रैल 1960 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने सीमा मुद्‍दे पर समझौता करना चाहा, लेकिन घरेलू राजनीति के दवाबों के चलते जवाहरलाल नेहरू ने समझौते से इनकार कर दिया।

चीनी विशेषज्ञ का कहना है कि 1962 में चीन को जवाबी हमला करने के लिए मजबूर होना पड़ा और इस बात को पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी कीसिंगर जैसे जानकार लोग भी मानते हैं। उनका दावा है कि 1959 में पहली बार भारत और चीन की सीमांत इलाके में पहली भिड़ंत हुई थी और तब चीन सरकार ने लड़ाई टालने के लिए अपनी फौजों को सीमा से बीस किमी पीछे हटा लिया था लेकिन भारत ने सीमा पर सैनिकों का जमावड़ा जारी रखा और विवादित क्षेत्र में गश्त बढ़ा दी। इसलिए चीन को यह भारतीय अतिक्रमण रोकने के लिए 1962 में हमला करना पड़ा ताकि भारत को बातचीत की मेज पर ला सके।

क्या सीमा समस्या को ठंडे बस्ते में डाल देना चाहिए... पढ़ें अगले पेज पर....


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लियू ने 1962 के युद्ध को चीन का पैसिव (निष्क्रिय) जवाबी हमला बताते हुए कहा है कि यह भारतीय सैनिकों द्वारा किए जा रहे चीनी सैनिकों के उत्पीड़न और दोनों पक्षों के टकराव को टालने के लिए था। वह आरोप लगाते हैं कि इससे चीन को उसकी जमीन नहीं मिली और भारत ने सतत टकराव का रास्ता अपना लिया। उनके इस ज्ञान गणित का सार यह है कि अगर सीमा समस्या सुलझाई नहीं जा सकती तो कम से कम इसे अस्थायी तौर पर ठंडे बस्ते में तो डाल ही देना चाहिए ताकि कारोबार को ही बढ़ावा देने में कोई समस्या न आए। उन्होंने भारत को अपनी नसीहत में लिखा है कि भारत को अपनी सैन्य कमजोरियों, विकास और गरीबी पर ध्यान देना चाहिए।

कुल मिलाकर लियू के लेख से भारत के बारे में चीनी दृष्टिकोण को समझा जा सकता है और यह जाना जा सकता है कि चीन, भारत के बारे में क्या सोचता है। चीन का मानना है ‍कि भारत और चीन के बीच कोई सीमारेखा या एलएसी नहीं है जिन्हें ‍नए सिरे से निर्धा‍रित करने की जरूरत है। उसका मानना है कि हिमालय प्राकृतिक सीमा का निर्धारण नहीं करता है क्योंकि यहां नदियों और झीलों के चलते सीमा का निर्धारण नहीं हो सका है। चीन का यह भी मानना है कि सिक्किम और ‍‍‍तिब्‍तत की सीमा को छोड़कर समूची भारत-चीन सीमा क्षेत्र विवादित है।

संभवत: इसी का नतीजा है कि भारत भी मानता है कि अक्साई चिन का इलाका उसका है लेकिन इस पर चीन ने अवैध कब्जा कर रखा है और इसका एक बड़ा भाग पाकिस्तान को सौंप रखा है। इसी तरह से चीन अरुणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा नहीं मानता है। इसलिए हमें यह महसूस करने की जरूरत है कि विवादित भारत-चीन सीमा पर लद्दाख में होने वाली घुसपैठ एक सरकारी नीति का हिस्सा है। इस घटना का एक‍ निष्कर्ष यह भी निकलता है कि सीमा पर दोनों देशों के संवाद और वर्तमान सैन्य स्तर पर विश्वास बहाली के उपायों की बहुत सीमित उपयोगिता रह गई है। या यह भी कह सकते हैं कि यह उपाय इतने सफल नहीं रहे हैं कि चीनी घुसपैठ पर लगाम लगा सकें।

ऐसी घुसपैठों को अगर सरकारी संरक्षण न मिला होता तो चीनी सैनिकों को भारतीय भूभाग से हटने में तीन सप्ताह का समय नहीं लगता। यह घटना भी उस समय हुई थी जबकि अगले ही माह चीनी प्रधान मंत्री को भारत की सरकारी यात्रा पर आना था। इसका एक निष्कर्ष यह भी है कि हम चीन जैसे देश पर भरोसा करने का एक मानक स्तर भी तय कर लें क्योंकि उससे अधिक भरोसा करने पर हमें भयानक ‍परिणामों का भी सामना करना पड़ सकता है। इस घुसपैठ की प्रकृति भी ऐसे पिछले उदाहरणों से अधिक उग्र थी क्योंकि चीनी येन केन प्रकारेण भारत के साथ एक सीमा समझौता करना चाहते हैं कि जिसकी आड़ में वे नए भूभागों पर अपने दावे पेश कर सकें।

क्या कहते हैं चीन की रणनीतिकार.... पढ़ें अगले पेज पर....


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चीन के रणनीतिकार यह मानते हैं कि इस तरह की घुसपैठों से भारत पर दबाव बनाया जा सकता है। सीमा और एलएसी पर निर्माण को लेकर चीनी आपत्तियों का अर्थ यह है कि वे नहीं चाहते कि हम सीमा, एलएसी पर इतनी मजबूत स्थिति में आ सकें कि उनके साम, दाम, दंड और भेद के उपायों से जमीन हथियाने की कोशिशों पर रोक लगा सकें। जबकि सीमा पर पक्के निर्माण करने, सड़कें, पुल बनाने और किलेबंदी करने के काम में चीनी, भारतीयों से बहुत आगे हैं। वे चाहते हैं कि भारतीय फोर्टीफाइड पोजीशन्स न बनाएं और इसके साथ ही उनकी सभी गतिविधियों की ओर से भी आंखें मूंद लें।

अब चूंकि चीनियों की सारी गति‍विधियों पर भारत और इसके मीडिया की नजर रहती है, इसलिए चीन का सरकारी मीडिया, भारतीय मीडिया की सक्रियता को कोसने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देता है। वह इस बात को लेकर चीख-पुकार मचाता है कि भारतीय मीडिया में 1962 की लड़ाई को लेकर चीन विरोधी माहौल बनाया जा रहा है और भारतीय युद्ध स्मारक पर इकट्‍ठा होकर चीनियों को युद्ध पिपासु घोषित करते हैं।

तिब्बत और दलाई लामा को लेकर उसका गुस्सा बार-बार फूट पड़ता है। वह इस बात के लिए भी भारत को कोसने से बाज नहीं आता कि भारत, जापान, वियतनाम, ताइवान और अमेरिका जैसे देशों के साथ मिलकर दक्षिणी चीन महासागर में चीन को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहा है।

हमें चीनी सेना की इस तरह की घुसपैठों पर समुचित ध्यान दिए जाने की जरूरत है क्योंकि यह सोचना होगा कि चीन ने इस तरह की नई और लम्बे समय तक अनाधिकृत प्रवेश करने की घुसपैठ की नीति को ही तय क्यों किया है? हमें इस पर भी विचार करने की जरूरत है कि चीन की भारत नीति की सही-सही प्रकृति क्या है? यह बात आमतौर पर चीन की विदेश और सुरक्षा नीति बनाने के बारे में क्या बताती है? भारत के साथ झगड़ा मोल लेने वाले चीन के लिए राजनयिक और सुरक्षा अर्थ में इसका मतलब है और विशेष रूप से तब जब जापान और अन्य बहुत से दक्षिण एशियाई देशों के साथ इसके संबंध तनावपूर्ण हैं?

क्या चीन ने नहीं सोचा होगा कि एक समय पर बहुत सारे मोर्चों पर वास्तविक संघर्ष का कोई खतरा नहीं है इसलिए भारत को ही उकसाने का काम किया जाए। लेकिन इसे समझना होगा कि इसने अपनी राजनयिक चालबाजी और साख को बट्‍टे पर लगाकर भारी कीमत चुकाई है? क्या चीन सोचता है कि वह इस तरह की सारी कीमतों को चुकाने में सझम है? एशियाई विकास के एक इंजन के तौर पर इसे शायद इस बात का पता है कि फिलहाल जिन देशों के साथ यह झगड़ रहा है, वह इस स्थिति में नहीं हैं कि वे चीन के साथ आर्थिक संबंधों में बहुत अधिक परिवर्तन ला सकें।

क्या कायरतापूर्ण है भारत की चीन नीति... पढ़ें अगले पेज पर....


इसलिए इसके सैन्य कमांडरों ने भारत के साथ तनाव बढ़ाने के लिए घुसपैठ कराने के नए-नए प्रयोग करने का जोखिम लेना ही उचित समझा होगा। चीन को इस तरह के फैसले लेने के लिए पहले भी जाना जाता रहा है। इसलिए चीन की कारगुजारियां इसके पड़ोसियों, विश्लेषकों, सैन्य योजनाकारों, इसके दुश्मनों और दोस्तों, सभी को ही आश्चर्य में डाल देती हैं। इस मामले का एक अहम पहलू, जिस पर ध्यान देने की अधिक जरूरत है, वह है भारत की चीन नीति। अगर हम इस नीति की समीक्षा करें तो यह हमेशा ही एक प्रतिक्रयात्मक और कायरता की रही है।

हमारी राजनीतिक व्यवस्था और इससे बनने वाली सरकारों का एक खास गुण यह है कि हम तभी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं जब तक कोई बहुत छोटा देश ही हमें चुनौती नहीं देने लगता, हमें ब्लैकमेल नहीं करता और अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपमानित करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता। भारत के जितने भी पड़ोसी देश हैं वे अरबों, खरबों डॉलर की मदद तो भारत से लेते हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ मतदान से नहीं डरते। कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है कि हमारी कोई विदेश नीति ही नहीं है क्योंकि यह दूसरे देशों के दबाव में अपनी मौलिकता खो चुकी है।

अगर पाकिस्तान जैसा देश करगिल में घुसपैठ करने के बाद अपने को दुनिया में एक विजेता की तरह पेश करता हो तो चीनी सैनिकों को भारत में घुसपैठ करने और यहां डेरा जमाने से क्यों डर लगे? वे भारत में इस तरह घुस आते हैं मानो विरोध प्रदर्शन के लिए तम्बू लगाकर बैठ गए हों क्योंकि उन्हें इस बात का डर नहीं है कि उनके इस काम से उनके देश का किसी भी तरह से कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है।

उन्हें अगर पूरी तरह से सैन्य कमांडरों का समर्थन हासिल नहीं होता तो वे ऐसा करने का साहस ही नहीं रखते और अगर वे ऐसा कर रहे हैं तो इसका एक ही अर्थ है कि वे जानबूझकर ऐसा कर रहे हैं। वे जानबूझकर ऐसा इसलिए कर रहे हैं ताकि भारत और भारतीयों को अपमानित करने का अवसर हाथ लगे और वे सारी दुनिया में ढिंढोरा पीट सकें कि एशिया में महाशक्ति होने का दावा करने वाला देश कितना कमजोर है।

चीन को पसंद नहीं भारत की ये बातें... पढ़ें अगले पेज पर....


सोचिए चीनियों को क्या-क्या बुरा लगता है? अगर आप कहें कि चीन कतई विश्वसनीय देश नहीं है और यह कभी भी भारत के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकता है तो यह बात चीनियों को बहुत बुरी लगती है। वे अगर परमाणु हथियार बनाएं और इन्हें पाकिस्तान को चोरी छिपे दें तो ठीक लेकिन अगर भारत ऐसा करता है तो यह बुरी बात है। इसी तरह अगर भारत-अमेरिका के साथ समझौते करता है तो यह बात भी उसे नागवार गुजरती है।

लियू मानते हैं ‍कि चीन की सबसे बड़ी समस्या भारत के अमेरिका से बढ़ते संबंध हैं और चीन मानता है ‍कि अमेरिका, एशिया में अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए भारत को चीन के मुकाबले खड़ा करना चाहता है। चीन को इस बात को लेकर भी नाराजगी है कि भारतीय मीडिया में चीनी घुसपैठ की खबरें निरन्तरता के साथ छपने लगी हैं और कहा जाने लगा है कि चीनी एक वर्ष में सैकड़ों बार तक भारत में घुसपैठ करते हैं। इसके साथ ही चीन को भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया जाता है। चीन-पाकिस्तान संबंध पर कोई टिप्पणी, दलाई लामा और जल संसाधन मुद्दे भी चीनियों को बहुत नाराज करते हैं। एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की दखलंदाजी से भी चीन बौखलाता है और वह मानता है कि भारत, अमेरिका का पिछलग्गू नहीं तो उसका विश्वसनीय साथी देश अवश्य है।

उनका तर्क है कि अगर एशिया में अमेरिका घुसपैठ करता है तो भारत का रुतबा तभी बढ़ेगा जब चीन का ओहदा बढ़ेगा। इस तरह भारत के उत्थान के लिए चीन का विकास होना पहली शर्त है। अगर भारत वास्तव में चीन से टकराता है तो इस बात की गारंटी नहीं है कि अमेरिका भारत का साथ देगा ही, लेकिन अगर भारत चीन से आगे निकल जाता है तो चीन की बजाय भारत अमेरिका के निशाने पर होगा। इसलिए जरूरी है कि दोनों देश क्षेत्र में स्थिरता बनाए रखें और अपने द्विपक्ष‍ीय संबंधों को मजबूत बनाएं। दोनों देशों के बीच मजबूत कारोबारी संबंध दोनों ही देशों का भला करेंगे लेकिन टकराव की राह पर जाने से दोनों ही देशों को नुकसान होगा।

चीनियों का कहना है कि 1962 में जवाहरलाल नेहरू की चीन के साथ नीति टकराव की थी और अगर इस हकीकत को समझना है तो भारतीयों को हैंडरसन-ब्रूक्स रिपोर्ट सार्वजनिक कर ‍देना चाहिए और इससे उन्हें जानकारी मिलेगी कि भारत की क्यों हार हुई थी। लियू का कहना है कि भारत की मल्टीपार्टी सिस्टम की नकारात्मक खामी यही है कि इसमें विदेश नीति को अक्सर ही घरेलू मामलों में शामिल कर लिया जाता है। उनका कहना है कि 1962 में विरोधी दलों और मास मीडिया की भूमिका को भी समझा जाना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि भारत सरकार अपनी जनता से भारत-चीन सीमा विवाद का सच बताए ताकि दोनों ओर की गलतफहमियां दूर हो सकें।

लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि भारत को चीन को या दुनिया को किसी तरह की सुलह सफाई देने की जरूरत नहीं है वरन् यह सुनिश्चित करने की है कि चीन ही क्या एशिया के अन्य किसी देश के साथ सीमा पर इतनी चौकसी जरूर रखी जाए कि किसी भी देश की सेना के सैनिक हमारी सीमा में घुसपैठ न कर सकें। इसके साथ ही हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश देने की जरूरत है कि भविष्य में भारत इस तरह के किसी मिसएडवेंचर (दुस्साहस) को सहन नहीं करेगा और अगर कोई देश ऐसा करता है तो उसे इसके गंभीर परिणामों के लिए तैयार रहना होगा। यही स्पष्ट संदेश तय करेगा कि हम एशिया और दुनिया में सच्चे अर्थों में एक महाशक्ति हैं या नहीं।