फिल्में एक रात की...!
- नताशा चुघ
फिल्में यूँ जीवन की तरह होती रही हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के फासले में होने वाली अच्छी-बुरी घटनाओं का बंच...। मेले में भाई-भाई के बिछुड़ने से लेकर उनके मिलने तक के दौर की कहानी कहती फिल्मों का कथानक खासा लंबा हुआ करता है। यूँ भी हमें पूरी कहानी सुनने में मजा आता है। हमारा काम सिर्फ राम के नायकत्व से नहीं चल पाता है, हमें उनके पिता और उनसे भी आगे उनके रघुवंश तक में रुचि होती है, क्योंकि एक के बाद एक घटनाओं की श्रृंखला होती है, जिनसे कहानी आगे बढ़ती है। आखिर तो जिंदगी कार्य और कारण के संबंध से ही तो बनती है, लेकिन इन लंबे कथाकाल वाली फिल्मों के बीच-बीच में कुछ ऐसी फिल्में भी बनी हैं, जिनका काल सिर्फ एक रात हुआ करता है। मतलब कहानी रात शुरू होते शुरू होती है और सुबह होते-होते क्लायमेक्स...। ये सही है कि इस तरह की सारी फिल्मों का कथानक आम कथानक से अलग होता है, कुछ में हॉरर का तत्व होता है तो कुछ में सस्पेंस, अंडरवर्ल्ड और अपराध। जाहिर है जब कथाकाल छोटा होगा, तो कथा भी कुछ विशिष्ट होगी। अनोखी रात, जागते रहो, इत्तेफाक, अंगूर, ओह डार्लिंग ये है इंडिया, इस रात की सुबह नहीं, चमेली, फरार, कौन, एक चालीस की लास्ट लोकल और हालिया फिल्म माय फ्रेंड पिंटो जैसी कुछ हिन्दी फिल्में इस तरह की हैं जिसमें पूरी फिल्म एक रात में घटित होती है। इन फिल्मों में से जागते रहो, अनोखी रात और माय फ्रेंड पिंटो में एक रात के दौरान दुनिया अपनी हकीकत में खुलती है। रात के अँधेरे में किस तरह इंसान अपने असली रूप में प्रकट होता है, ये इन फिल्मों में नजर आता है। असल में इन तीनों फिल्मों का नजरिया बहुत हद तक दार्शनिक टच लिए हुए है। राज कपूर की जागते रहो और संजीव कुमार अभिनीत अनोखी रात का दर्शन बहुत कुछ एक ही सा है। प्रतीक बब्बर अभिनीत माय फ्रेंड पिंटो एक मनोरंजक फिल्म है, लेकिन इसमें भी रात के अँधेरे में खुलती दुनियादारी दिखाना ही निर्देशक का लक्ष्य रहा है। इसके ठीक उलट एक रात (और उससे पहले गुजरने वाले दिन) की ही कहानी कहती है गुलजार की फिल्म अंगूर। दो जोड़ जुड़वाँ बच्चों की कहानी में गफलत पैदा कर परिस्थितिजन्य हास्य को दिखाती ये फिल्म है तो एक रात की ही कहानी, लेकिन इसका अंदाज अलग है।उर्मिला मातोंडकर-मनोज वाजपेयी की फिल्म "कौन" एक सस्पेंस थ्रिलर थी। इसके अतिरिक्त इत्तेफाक, चमेली, फरार, इस रात की सुबह नहीं, ओह डार्लिंग ये है इंडिया जैसी फिल्मों में अंडरवर्ल्ड, अपराध, वेश्यावृत्ति और हत्या कहानी का अहम हिस्सा रही है। राजेश खन्ना-नंदा की इत्तेफाक भी सस्पेंस थ्रिलर थी। करीना कपूर-राहुल बोस की चमेली की कहानी में भी वेश्यावृत्ति और अंडरवर्ल्ड का ताना-बाना था। अमिताभ-शर्मिला-संजीव की फिल्म फरार में अमिताभ हत्या करके जिस घर में छुपता है, वो उसकी पूर्व प्रेमिका शर्मिला टैगोर का ही घर है और शर्मिला अब पुलिस इंस्पेक्टर संजीव कुमार की पत्नी है। केतन मेहता की दीपा साही और शाहरुख खान अभिनीत फिल्म ओह डार्लिंग ये है इंडिया में अपराध और आतंकवाद के फ्रेम में कहानी का ताना-बाना बुना है। ये भी पूरी कहानी एक रात का ही फसाना है। इस रात की सुबह नहीं भी एक सस्पेंस थ्रिलर है। इसमें प्रेम, अंडरवर्ल्ड और इत्तेफाक का घालमेल है। सुधीर मिश्रा निर्देशित निर्मल पांडे, स्मृति मिश्रा और तारा देशपांडे अभिनीत इस फिल्म में नाटकीय घटनाक्रम में एडवरटाइजिंग एक्जीक्यूटिव के अंडरवर्ल्ड के गुंडों में फँसने की कहानी है। इसी तरह अभय देओल-नेहा धूपिया की फिल्म एक चालीस की लास्ट लोकल का कथानक भी वेश्यावृत्ति और अपराध जगत की ही कहानी है। असल में रात के अँधेरे में जो भी घट सकता है, उसी को आधार बनाकर इस तरह की फिल्में बनाई जाती हैं। इसमें कुछ फ्रेम फ्लैशबेक की भी होती है, लेकिन मूल कहानी एक रात की ही होती है। हालाँकि एक रात को आधार बनाकर अब कुछ ज्यादा मजेदार मनोरंजन गढ़ने की गुंजाइश बनती है, क्योंकि कॉल सेंटर, पत्रकार, पुलिस और डॉक्टर जैसे कुछ इमरजेंसी काम करने वाले लोगों की जिंदगियों पर भी कहानी लिखी जा सकती है, लेकिन रात की अँधेरी प्रकृति को देखते हुए अँधेरी प्रवृत्तियों से किसी भी सूरत से बचा नहीं जा सकता है। फिर भी हम कुछ प्रयोगात्मक और मनोरंजक फिल्मों की उम्मीद तो कर ही सकते हैं।