शनिवार, 27 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. »
  3. बीबीसी हिंदी
  4. »
  5. बीबीसी समाचार
Written By BBC Hindi

गाँवों ने बचाया भारत को

गाँवों ने बचाया भारत को -
ब्रजेश उपाध्याय (बीबीसी संवाददाता, दिल्ली)

पिछले तीन सालों से अभिनव एटा, मैनपुरी और चंबल के बीहड़ों में अपनी मोबाइल कंपनी की पहुँच बढ़ाने में जुटे हुए थे। उनके काम से खुश होकर कंपनी ने उन्हें लंदन और रोम की मुफ्त सैर भी करवाई थी। उनका कहना है कि इसके बावजूद वे नौकरी छोड़ना चाहते थे, लेकिन कंपनी उन्हें नहीं छोड़ रही थी।

उनका कहना है कि वहाँ जान का खतरा तो रहता ही था...काम के बाहर कोई जिंदगी नहीं थी। लेकिन कंपनी उन्हें छोड़ने को राजी क्यों नहीं थी? जवाब मुश्किल नहीं है।

जब राष्ट्रपति ओबामा और दूसरे पश्चिमी देश अपनी अपनी अर्थव्यवस्थाओं में जान फूँकने के लिए अरबों डॉलर झोंक रहे थे, भारत के ये गुमनाम, पिछड़े इलाके खामोशी से भारतीय अर्थव्यवस्था की गाड़ी के लिए ईंधन का काम कर रहे थे और इन बाजारों पर कब्जे के लिए जो जबरदस्त प्रतिस्पर्धा थी, उससे अभिनव जैसे अनुभवी एक्जक्यूटिव कंपनी के लिए बेहद अहम बन गए।

BBC
BBC
वैसे तो भारतीय अर्थशास्त्रियों ने विश्व आर्थिक मंदी का भारत पर कम असर होने के कई कारण दिए हैं। कहा गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी दुनिया की मुख्यधारा से बची हुई है, निर्यात पर निर्भरता कम है, बैंकों पर अभी भी काफ़ी नियंत्रण है, और आमतौर पर पश्चिमी देशों की तरह कर्ज लेकर खर्च करने की आदत नहीं है।

लेकिन विशेषज्ञ इस बात पर लगभग एकमत हैं कि भारत को इस संकट से बचाने में ग्रामीण या गैर-शहरी अर्थव्यवस्था की अहम भूमिका रही और आगे भी इसकी सक्रिय भूमिका रहेगी।

मिलीजुली भूमिका- भारतीय प्रबंधन संस्थान, बैंगलोर में सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी के चेयरमैन गोपाल नाइक का कहना है कि पिछले कुछ सालों की अच्छी मानसून और फसलों की अच्छी कीमत से ग्रामीण भारत की क्रयशक्ति में काफ़ी बढ़ोतरी हुई और अर्थव्यवस्था की रफ्तारर में ज्यादा कमी नहीं आई।

BBC
BBC
उनका कहना हैकि इसमें थोड़ी किस्मत और सरकार की तरफ से ग्रामीण क्षेत्र में हुए निवेश दोनों ही की मिलीजुली भूमिका थी।

माना जा रहा है कि पिछले चार सालों में न्यूनतम समर्थन मूल्य, यानी जिस कीमत पर सरकार किसानों के फसल खरीदने की गारंटी लेती है, उसमें कुल 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

नरेगा जैसे कार्यक्रमों से भी फायदा हुआ क्योंकि उससे ग्रामीण क्षेत्र के उन लोगों को भी नौकरियाँ मिल पाईं जो कृषि पर निर्भर नहीं थे।

कुछ महीने पहले वाशिंगटन में बीबीसी से बात करते हुए भारती ग्रुप के चेयरमैन सुनील भारती मित्तल ने कहा था कि ग्रामीण भारत अब हर उस सुविधा को हासिल करना चाहता है जो शहर में उपलब्ध हैं। उनका कहना था कि और ये उद्योग जगत के लिए बहुत बड़ा मौका है। कृषि क्षेत्र में तरक्की के बिना भारत आगे नहीं बढ़ सकता।

भारत की एक अरब की आबादी में से 70 प्रतिशत ग्रामीण या गैर-शहरी इलाकों में रहती है और सकल घरेलू उत्पाद में इनका योगदान 26 प्रतिशत है। अंदाजा है कि ये योगदान जितना बढ़ेगा अर्थव्यवस्था उतनी ही तेजी से बढ़ेगी।

गाँवों का योगदान- गाँव-गाँव तक टेलीविजन के पहुँचने और विज्ञापनों से हर तरह के प्रसाधनों की चाहत बढ़ी है और कॉरपोरेट जगत अपने सामान को इस बाजार की माँग और जेब के अनुरूप ढाल रहा है।

तो दस रुपए में आप मोबाइल को टॉपअप करवा सकते हैं। पचास पैसे में शैंपू और टूथपेस्ट के पाउच खरीद सकते हैं। सस्ते रीबॉक के जूते पहन सकते हैं, सस्ती वाशिंग मशीन और गैस स्टोव खरीद सकते हैं।

रूरलनौकरीडॉटकॉम वेबसाइट के सीईओ अजय गुप्ता का कहना है कि चाहे टेलीकॉम की बात करें, गाड़ियों की बात करें, या प्रसाधनों की बात करें, पचास प्रतिशत से ज़्यादा माँग गैर-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों से आ रही है। उनकी वेबसाइट ऐसी कंपनियों के लिए नियुक्ति करती है जो ग्रामीण क्षेत्रों में पाँव फैला रहे हैं।

उनका कहना है कि इस क्षेत्र के बाजारों पर मंदी के दौरान भी कोई असर नहीं हुआ क्योंकि लोगों की आय पर कोई असर नहीं हुआ..बल्कि तेजी ही आई।

रफ्तार जारी रहेगी- लेकिन अब जबकि देश के एक तिहाई जिले सूखे से प्रभावित हैं। क्या ये तरक्की जारी रह पाएगी?

आईआईएम बैंगलोर के गोपाल नाइक का कहना है कि सूखाग्रस्त इलाक़ो को छोड़ भी दें तब भी इतने इलाक़े बच जाते हैं कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार जारी रहेगी।

इसके अलावा उनका कहना है कि बिहार, उड़ीसा, पूर्वी उत्तरप्रदेश जैसे कई इलाके हैं जहाँ मूलभूत ढाँचे के अभाव में निवेश बिल्कुल नहीं हुआ है।

प्रोफ्रेसर नाइक कहते हैं कि अगर इन क्षेत्रों में सुधार आ जाए तो यहाँ से जो आमदनी होगी वे महानगरों के मुक़ाबले कहीं ज्यादा हो सकती है।

जानेमाने अखबार वाल स्ट्रीट जरनल ने हाल ही में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसके अनुसार ग्रामीण आय 2004-2005 के 220 अरब डॉलर से बढ़कर 2010-2011 में 425 अरब डॉलर तक पहुँच जाएगी।

कोई आश्चर्य नहीं कि बड़ी-बड़ी कंपनियाँ ऐसे लोगों की तलाश कर रही हैं, जिनके पास ग्रामीण और गैर-शहरी बाजारों का ज्ञान और अनुभव है. बड़े-बड़े प्रबंधन संस्थानों से डिग्री हासिल किए युवक मैनेजमेंट ट्रेनी के तौर पर इन इलाकों में काम कर रहे हैं।

अजय गुप्ता का कहना है कि जब मंदी अपने चरम पर थी (पूरी दुनिया में लोगों की नौकरियाँ जा रही थीं) तब भी ऐसे लोगों की माँग में कोई कमी नहीं आई थी।

ये बाजार शहरी बाजारों से अलग हैं और यहाँ पैठ बढ़ाने के लिए नए-नए तरीकों की जरूरत होती है।

चंबल के बीहड़ों तक अपनी कंपनी के सिम कार्ड और टॉप अप कार्ड की पहुँच बना चुके अभिनव त्रिवेदी का कहना है कि उनकी मुलाकात कई ऐसे लोगों से हुई जो कभी अपने गाँव से बाहर नहीं निकले, कभी ट्रेन तक नहीं देखी और ऐसे लोगों के लिए मोबाइल का इस्तेमाल एक बड़ी चुनौती थी।

उनका कहना है कि मैने उन्हें बस दो बटन दिखाए-एक हरा (फोन सुनने के लिए) एक लाल (फोन काटने के लिए)-और बात उनकी समझ में आ गई।

उनका कहना है कि इन इलाकों में भले ही मार्जिन कम हो, चीजें छोटी हों, सस्ती हों लेकिन तादाद इतनी है कि कोई भी प्रोडक्ट कामयाब हो सकता है अगर वह जेब और लोगों की चाहत के बीच संतुलन बना ले।