-मुकुल 'सरल' ब्लैक ओबामा जीत गए। हमारे सभी हिंदी न्यूज चैनलों ने खबर फ्लैश की 'अमेरिका में पहली बार अश्वेत राष्ट्रपति ..'मैंने अपने यहाँ चलाया 'पहले काले राष्ट्रपति'। और यहीं विवाद हो गया। सीनियर दौड़ते हुए आए 'अरे ये क्या?'.. काला हटाओ.. अश्वेत लिखो.. 'काला क्यों नहीं?' मैंने कहा। 'अरे अच्छा नहीं लगता..' 'क्यों, अच्छा नहीं लगता?' 'हमारे यहाँ बुरा समझा जाता है..' 'बुरा! बुरा क्यों?' 'अरे तुम नहीं समझोगे..' 'अरे समझाइए तो!' .. फिर उन्होंने और दूसरे साथियों ने मिलकर जो समझाया.. वो बड़ा त्रासद था।
'गोरा यानी उच्च श्रेष्ठ!' लेकिन हम भूल जाते हैं कि अँगरेजों ने गाँधीजी को भी ब्लैक इंडियन कहकर ट्रेन से बाहर फेंक दिया था
अमेरिका ने तो नस्लभेद की हदें पार करते हुए ब्लैक ओबामा को व्हाइट हाउस पहुँचा दिया, लेकिन हमारे यहाँ रंगभेद जो नस्लभेद का ही एक रूप है.. उसके खिलाफ प्रतीकात्मक लड़ाई भी बहुत मुश्किल है।
इस एक शब्द ने परत-दर-परत हमारे समाज के अन्याय, गैर बराबरी और उसी जातीय दंभ को खोलकर सामने रख दिया जिससे हमारा पढ़ा-लिखा समाज भी अब तक नहीं उबर पाया है। साथियों ने खुद कहा- बात एक शब्द की नहीं भावना की है। और इसी भावना पर मेरी आपत्ति थी। उन्होंने कहा- हम उन्हें सम्मान देने के लिए काले की जगह अश्वेत लिख रहे हैं और यही मेरा सवाल है कि अश्वेत क्यों?.. अश्वेत यानी जो श्वेत नहीं... गोरा नहीं.. यहाँ श्वेत की ही प्रधानता है। क्यों काले शब्द को हमारे यहाँ अपमान का, हीनता का पर्याय मान लिया गया है?
कालों के देश में काले शब्द या रंग को लेकर जिस तरह के पूर्वाग्रह हैं... अपमान और घृणा का भाव है वह एक विडंबना ही है। अँगरेजों ने हम पर दो सौ साल राज किया और गोरों की इस सत्ता ने भी गोरे रंग को लेकर उच्चता और कालेपन को लेकर हीनता के भाव को ही पुख्ता किया। अब इसी भावना को बाजार बढ़ा रहा है... भुना रहा है... पूरी एक साजिश और रणनीति के तहत। 'गोरा यानी उच्च श्रेष्ठ!' लेकिन हम भूल जाते हैं कि अँगरेजों ने गाँधीजी को भी ब्लैक इंडियन कहकर ट्रेन से बाहर फेंक दिया था।
गोरे यानी सुंदर.. बेहतर..बड़े लोग.. उच्च वर्गीय.. राज करने वाले.. काले यानी निम्न.. तुच्छ, गुलाम लोग
बात निकली तो फिर दूर तलक गई। आर्य-द्रविड़ विवाद से लेकर जातीय पहचान तक पहुँची। कोई कहने लगा- अगर किसी दलित को बार-बार दलित कहें तो क्या ये अच्छा है! उनके लिए काला शब्द शायद दलित जैसा ही शब्द था... और यहाँ दलित दबे-कुचले, शोषित या मेहनतकश के संदर्भ में नहीं, बल्कि हीन.. कमतर.. या फिर शायद नीच के अर्थों में था.. और शायद यही वो मूल है जहाँ से काला रंग अपमान और हीनभावना का प्रतीक बन गया।
इस गरम देश में दलित-मेहनतकश का रंग गोरा हो भी कैसे सकता है..? लेकिन उनके लिए तो गोरे यानी सुंदर.. बेहतर..बड़े लोग.. उच्च वर्गीय.. राज करने वाले.. काले यानी निम्न.. तुच्छ, गुलाम लोग।