रतन टाटा : सिंगूर से साणंद तक
-
महेन्द्र तिवारीसाल 2008 के पूरे 365 दिनों की इत्मीनान से खैर-खबर लेने पर पता चलता है वर्षभर इसकी नब्ज ज्यादा अच्छी नहीं चली। कुछ उपलब्धियों को नजरअंदाज कर दें तो आर्थिक मंदी के खूँखार पंजों के निशान तकरीबन हर तबके पर नजर आए। इनमें भी कुछ औद्योगिक घराने ऐसे रहे, जिन्हें मंदी के साथ-साथ अन्य मुसीबतों से भी दो-चार होना पड़ा। टाटा समूह के चेयरमैन और मध्यम वर्ग के सपनों को पंख देने वाले रतन टाटा इस फेहरिस्त में सबसे ऊपर रहे। नैनो को लेकर सिंगूर ने उनकी नाक में दम कर दिया, वहीं साल के आखिर में मुंबई के आतंकवादी हमले से क्षतिग्रस्त हुए ताज होटल और जमशेदपुर स्टील प्लांट की बार-बार की बंदी व घटते उत्पादन ने उनके माथे की सिलवटें कम नहीं होने दीं। ताजमहल होटल को तो फिर कुछ ही दिनों में सँवार लिया गया, लेकिन जमशेदपुर प्लांट को इस बीच कई बार लंबी बंदी का सामना करना पड़ा। इस सबके बावजूद आम आदमी के आँगन में तय वक्त में कार खड़ी करने का वादा टाटा कभी नहीं भूले। शायद यही वजह थी कि सिंगूर में विरोध की अति होती देख बिना कोई देर किए वे साणंद के लिए कूच कर गए। सिंगूर से साणंद तक का 'टाटा सफर' किस कदर संघर्षपूर्ण और चुनौतियों से घिरा रहा, इसकी बानगी सिलसिलेवार घटनाक्रम से समझी जा सकती है। आम आदमी का सपना : हमेशा रोटी, कपड़ा और मकान की जद्दोजहद में डूबे रहने वाले मध्यम वर्ग के अरमानों ने उस समय परवाज भरी, जब देश के अग्रणी औद्योगिक समूह टाटा ने विश्व की सबसे सस्ती कार (1 लाख रुपए) बनाने का ऐलान किया। टाटा की इस घोषणा के बाद आम आदमी न केवल कार की सवारी को अपनी जद में देखने लगा, बल्कि टाटा भी कहीं न कहीं मध्य वर्ग के दिलों में घर करने वाले पहले उद्योगपति बन गए। कार का प्लांट लगाने के लिए उन्होंने पश्चिम बंगाल के हुबली जिले के सिंगूर को चुना। राज्य में हिंदुस्तान मोटर्स के बाद ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में यह दूसरा बड़ा निवेश था। राज्य सरकार ने इसके लिए 997 एकड़ जमीन टाटा समूह को सौंपी। परियोजना पर 15 अरब रुपए (1500 करोड़) लगाने का निर्णय लिया गया। सिंगूर प्लांट में 7 जनवरी 2007 से काम शुरू हो गया, लेकिन परियोजना पूरी तरह आकार लेती, उससे पहले ही विरोध के स्वर मुखर हो गए। विरोध की वजह : टाटा को पश्चिम बंगाल की बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार ने नैनो कार परियोजना के लिए 997.11 एकड़ जमीन दी। प्रोजेक्ट को लेकर विवाद उस समय शुरू हुआ, जब सिंगूर के किसानों ने यह आरोप लगाया कि सरकार ने उनकी कृषि जमीन उनसे जबरन ले ली है। टाटा को दी गई जमीन में से करीब 400 एकड़ के अधिग्रहण को किसानों ने अवैध बताया। ममता बनर्जी की अगुआई वाली तृणमूल कांग्रेस ने किसानों के आंदोलन का समर्थन किया। उसका कहना था किसानों को उनकी जमीन वापस दी जाए। इस दौरान हिंसक विरोध प्रदर्शन के कई दौर चले और समूचा सिंगूर संग्राम में बदल गया। यही वह वक्त था, जब नैनो पर नियति ने निगाहें टेड़ी कर लीं। लगातार जारी विरोध प्रदर्शनों के चलते 28 अगस्त 2008 के बाद से प्लांट पर कोई काम नहीं हो पाया। प्रदर्शनकारियों ने उन सभी रास्तों को बंद कर दिया, जो फैक्टरी तक जाते थे। तृणमूल कांग्रेस 2006 से ही इस परियोजना के खिलाफ खड़ी हो गई। राज्य सरकार ने सुलह-सफाई की कई कोशिशें की, लेकिन मुकम्मल नतीजा नहीं निकल सका। 7
सितंबर, 2008 को आखिरकार राज्यपाल गोपालकृष्ण गाँधी की पहल पर सरकार ने किसानों को जमीन के बदले जमीन देने की बात मान ली और विवाद का पटाक्षेप हो गया और ममता ने 26 दिनों से जारी अपनी भूख हड़ताल खत्म कर दी। क्या था समझौता : ममता बनर्जी और सरकार के बीच हुए करार के मुताबिक उन किसानों को समुचित मुआवजा देना तय हुआ, जो अपना सही हक नहीं पा सके थे। इसके लिए एक कमेटी बनाने पर सहमति बनी। करार के मुताबिक किसानों को दी जाने वाली जमीन का ज्यादातर हिस्सा टाटा मोटर्स की फैक्ट्री परियोजना क्षेत्र के अंदर का होगा। शेष हिस्सा पास का होगा। टाटा नहीं थे खुश : बार-बार के विरोध प्रदर्शनों से आहत रतन टाटा समझौते के बाद भी संतुष्ट नहीं थे। उनका कहना था करार में स्पष्टता की कमी है, लिहाजा जब तक यह भरोसा नहीं हो जाता कि आंदोलनकारी दोबारा अवरोध पैदा नहीं बनेंगे, ईकाई दोबारा शुरू नहीं की जाएगी। और टाटा छोड़ गए सिंगूर : विवाद को लेकर सरकार से सुरक्षा का सौ प्रतिशत आश्वासन न मिलता देख टाटा मोटर्स ने सिंगूर छोड़न का मन बना लिया और वे 3 अक्टूबर 2008 को बंगाल से रुखसत हो गए। मनाने में मोदी हुए कामयाब : परियोजना के अगले पड़ाव के लिए टाटा को कर्नाटक, उत्तरांचल, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश समेत कई सूबों ने बुलावा भेजा, लेकिन मनाने में कामयाब हुए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी। मोदी ने गुजरात से जुड़ी जड़ों का वास्ता देते हुए टाटा को आसानी से अपना बना लिया। इसे देशभर में मोदी सरकार की बड़ी कामयाबी के रूप में भी देखा गया।
साणंद में नई सुबह : मोदी सरकार और टाटा मोटर्स के बीच नैनो परियोजना को लेकर हुए करार के मुताबिक कंपनी को 1100 एकड़ भूमि देने की बात तय हुई। यहाँ टाटा 2000 करोड़ की पूँजी लगाएँगे। हर साल कंपनी साणंद की इकाई से 2-3 लाख कारों का उत्पादन करेगी। बाद में इसे बढ़ाकर 5 लाख किया जाएगा।
गुजरात क्यों गए टाटा : * ऐसा नहीं था कि अन्य राज्यों ने टाटा को निवेश के लिए आमंत्रित नहीं किया या वहाँ टाटा के लिए माकूल माहौल नहीं था, लेकिन भावनात्मक जुड़ाव ही वह खूबी थी, जो गुजरात के अलावा और किसी सूबे में नहीं थी। * गुजरात देश के हर हिस्से से सीधे जुड़ा हुआ है। औद्योगिक साजो-सामान और कल पुर्जों को लाने ले जाने के लिए सड़क-हवाई मार्ग के साथ नौपरिवहन की सहूलियत भी उपलब्ध है।* गुजरात में मिली जमीन पूरी तरह सरकारी है, इसलिए इसे लेकर किसी विवाद की गुंजाइश नहीं है। (जैसा मोदी सरकार ने दावा किया है।)साणंद में भी सुकून नहीं : परियोजना को लेकर ताजा सूरते हाल बयाँ करते हैं कि साणंद में भी टाटा का सफर आसान रहने के आसार कम ही हैं। परियोजना के खिलाफ समीपस्थ गाँवों के किसान तेजी से आवाज बुलंद कर रहे हैं। अब तक जमीन को लेकर तीन याचिकाएँ दायर की जा चुकी हैं। किसानों का कहना है टाटा को बेची गई आनंद कृषि विश्वविद्यालय की जिस 1100 एकड़ जमीन को मोदी सरकारी बता रहे हैं, वह वास्तव में उनके पूर्वजों की है। किसानों की माँग है कि उन्हें जमीन के बदले जमीन दी जाए या बाजार मूल्य के मुताबिक उसका मुआवजा। हालाँकि प्रशासन इससे इनकार करता है। उसकी मानें तो उक्त जमीन 1911 में अंग्रेजों ने अधिग्रहित की थी, तभी से यह सरकार के पास है। बहरहाल जानकार मानते हैं कि सिंगूर जैसा सलूक टाटा के साथ साणंद में नहीं होगा। मोदी का नेतृत्व उन्हें हर मुसीबत से बचा लेगा। उम्मीद की जाना चाहिए टाटा साणंद में अपनी योजना को कामयाबी से आगे बढ़ाएँ और आम आदमी के नैनो में बरसों से पल रहे सपने को हकीकत की जमीन नसीब हो। एक नजर नैनो पर इंजन : 624 सीसी, 33 बीएचपी ईंधन : करीब 30 किमी/लीटर सुरक्षा : अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार उत्सर्जन : यूरो 4 के मानकों के अनुसार गियर बॉक्स : 4 स्पीड मैनुअल ईंधन टैंक की क्षमता : 30 लीटर अन्य : फ्रंट डिस्क ब्रेक और पीछे ड्रम अधिकतम गति : 90 किमी/घंटा स्थान : मारुति-800 से 21 प्रतिशत ज्यादा