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Written By WD

पुनर्विवाह, जरूरत सोच बदलने की

महिला
- अलका पुरंदरे

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भारतीय समाज के विकास में कई रूढ़ियाँ सबसे बड़ी बाधा हैं, जो लोगों को सकारात्मक सोचने नहीं देतीं। इनमें से एक है- पुनर्विवाह। आजादी के पूर्व भी इसके लिए प्रयास किए जाते रहे, किंतु वे इसके विरोध की मानसिकता को पूरी तरह मिटा नहीं पाए। आज जरूरत उस पुरानी मानसिकता को बदलने की है।

आज भी हमारे समाज में पुनर्विवाह को खुले मन और मस्तिष्क से नहीं स्वीकारा जाता। हम उन महिलाओं का उदाहरण लें जो अल्पायु में ही विधवा या तलाक के कारण अकेली हो गई हैं। अगर बच्चे छोटे हों तो जीवन का आरंभिक समय उनके लालन-पालन, पढ़ाई-लिखाई, नौकरी, शादी आदि की आपाधापी में व्यतीत हो जाता है।

बच्चों के स्वतंत्र परिवार स्थापित होने के बाद वे भी अपने परिवार में मसरूफ-मशगूल हो जाते हैं। ऐसे समय ये महिलाएँ नितांत अकेली हो जाती हैं। कुछ महिलाएँ ऐसी भी होती हैं जो अपनी नौकरी, व्यवसाय के कारण बच्चों के साथ स्थायी रूप से नहीं रह पातीं। इन हालात में अगर वे अपना जीवनसाथी पुनः चुन लेती हैं और अपना जीवन स्वतंत्र रूप से जीने का निर्णय लेती हैं तो समाज में इतना बवाल क्यों मच जाता है?

  पुरुष के पुनर्विवाह को हम आसानी से पचा जाते हैं, किंतु किसी महिला के पुनर्विवाह की बात हमारे गले नहीं उतरती। उसे झट चरित्रहीन और अनेक ऊल-जलूल खिताबों से नवाजा जाता है। और आश्चर्य की बात है कि महिलाएँ ही फब्तियाँ, कसने में अग्रणी रहती हैं।      
जब तक महिला बच्चों की खातिर अकेली हर मोर्चे पर डटी रहती है तब तक उसकी छवि शालीन, सर्वस्व न्योछावर करने वाली कुलीन, सुसंस्कृत, सद्चरित्रा आदि के रूप में प्रसिद्ध रहती हैं और जहाँ उसने पुनर्विवाह का निर्णय लिया वहीं उसकी यह छवि धूमिल हो जाती है।

हम यह क्यों नहीं समझते कि उसकी भी भावनाएँ, इच्छाएँ होती हैं जो किसी के साथ वह बाँटे। असल तकलीफों और परेशानियों को वह झेलती है और हम सिर्फ दर्शकों की भाँति तमगे, उपाधियाँ या ताने देते फिरते हैं। वह अगर किसी को अपना जीवनसाथी चुन लेती है तो क्या बुरा करती है?

पुरुष के पुनर्विवाह को हम आसानी से पचा जाते हैं, किंतु किसी महिला के पुनर्विवाह की बात हमारे गले नहीं उतरती। उसे झट चरित्रहीन और अनेक ऊल-जलूल खिताबों से नवाजा जाता है। और आश्चर्य की बात है कि महिलाएँ ही फब्तियाँ, कसने में अग्रणी रहती हैं। क्या हमारे समाज में किसी महिला को इतनी भी स्वतंत्रता नहीं कि वह अपनी जिंदगी अपने ढंग से जिए? क्यों हम उसके व्यक्तिगत जीवन में दखलंदाजी करते हैं?

अभी भी स्त्री का अधीनस्थ, आश्रित और दयनीय रूप ही हमें स्वीकार्य हैं। जहाँ उसने स्वनिर्णय से जीवनयापन शुरू किया, विरोध के स्वर मुखर हो जाते हैं। ताने मार-मारकर उसका जीवन दूभर कर उसे हीनभावना से ग्रस्त कर दिया जाता है।

आज के प्रगतिशील युग में हमें इस सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन लाने का प्रयत्न करना चाहिए। हमारी संकीर्ण सोच में बदलाव होना जरूरी है। जो महिलाएँ ऐसे निर्णय लेती हैं हमें उनका स्वागत करना चाहिए ताकि वे भी सबके समान जीवन जी सकें। खुशी की बात है कि लोग इस विषय में सोचने लगे हैं, चेतना जागृत होने लगी है। लेकिन अब भी हमें काफी लंबा रास्ता तय करना है।