महिलाओं के पहनावे का फैसला कौन लेगा?
स्त्रियां और उनके परिधान
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रवीन्द्र गुप्ता आजकल समाचार पत्र-पत्रिकाओं, इंटरनेट, न्यूज चैनलों व अन्य प्रचार-प्रसार माध्यमों में इस बात की बड़ी चर्चा है कि स्त्रियां क्या पहनें? कैसा पहनें? कब पहनें? पिछले दिनों एक खबर आई थी कि पाकिस्तान में एक भाई ने अपनी बहन को सिर्फ इसलिए मौत के घाट उतार दिया कि उसकी बहन जीन्स पहनती थी और भाई को यह बात नागवार गुजरती थी। इस बारे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि स्त्रियां क्या पहने, इस बात का फैसला करने वाला पुरुष-समाज होता कौन है? यह तो आदिम प्रवृत्ति वाली मानसिक धारणा कहलाएगी कि तुम यह पहनो, वह पहनो, ऐसा मत पहनो, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ आदि।पुरुषवादी अहं दरअसल, इस बात के मूल में पुरुषवादी अहं ही कार्य कर रहा है। वह यह नहीं चाहता है कि स्त्रियां अपने फैसले स्वयं लें। वह आज के अंतरिक्ष-युग में भी स्त्रियों को अपने पैरों की जूती बनाए रखना चाहता है। वह यह नहीं चाहता है कि स्त्रियां पुरुषों की बराबरी करे। वह बंदरिया की तरह उसे अपनी उंगलियों पर ही नचाना चाहता है। वह (पुरुष) यह सोचता है कि मैं जो कुछ बोल/कर रहा हूं वह ही पूर्णतया सच है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। वह तो बस यही चाहता है कि मैं जैसा-जैसा बोलता जाऊं, औरतें भी वैसा-वैसा ही करें। स्त्रियां क्या करें स्त्रियों को अपने पहनावे के बारे में निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार है। वे जो-जो भी वस्त्र पहनना चाहती हैं पहन सकती हैं। आत्मनिर्णय का अधिकार उन्हें भी है। दुनिया की आधी आबादी आखिर कब तक पुरुष-इशारे पर चलती रहेगी? आखिर कब उसे बराबरी का हक मिलेगा? वे कब तक पुरुषोचित दंभ का शिकार होती रहेंगी। आखिर उसे अपने मन पहनने-ओढ़ने का हक क्योंकर नहीं होना चाहिए? कब तक वह अपने फैसले आप लेने से वंचित होती रहेंगी?कैसा हो पहनावा? अब सवाल यह उठता है कि स्त्रियां कैसे कपड़े पहनें? व कब पहनें? हमारी राय इसका सीधा-सा जवाब यही है कि स्त्रियां हमेशा शालीन व ऐसे कपड़े पहनें, जो सबके मन को लुभाता हों। भड़कीले, शोख व अंग-दिखाऊ कपड़ों में स्त्रियों की गरिमा धूमिल होने का खतरा बना रहता है। इससे कई बार उन्हें छेड़छाड़, फब्तियों व फिकरेबाजी का सामना करना पड़ता है। मानसिक तनाव व मन ही मन भय अलग दिल के कोने में छाया रहता है। क्या हो नारी- स्वतंत्रता का पैमाना? राष्ट्र ने अपनी आजादी की 66वीं वर्षगांठ मना ली है और विश्व में भारत की तरक्की का डंका बज रहा है, वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन), खुलेपन, खुले विचारों की चहुंओर बयार बह रही है ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि स्त्री-स्वतंत्रता का पैमाना क्या है? क्या स्त्री-स्वतंत्रता का अर्थ महंगे कपड़े, महंगी गाड़ियां, देर रात नाइट पार्टियों में स्त्रियों की भागीदारी व सिगरेट-शराब का सेवन नारी-स्वतंत्रता है? नहीं न! यह कदम तो स्त्री-गरिमा को धूमिल करने वाला कहलाएगा। यह कदम तो भारतीय सभ्यता-संस्कृति से कतई मेल नहीं खाता है।