गुरुवार, 21 नवंबर 2024
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Written By स्मृति आदित्य

दिल की नजर से, नजरों की दिल से ....

ये बात क्या है कोई हमें बता दें ....

दिल की नजर से, नजरों की दिल से .... -
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कहते हैं प्यार दुनिया का सबसे खूबसूरत अहसास है। जब यह अहसास सुखद है, सुंदर है, सलोना है तो क्यों इसके नाम पर सदियों से खून बहता रहा है? कभी जात-पाँत के नाम पर कभी मान-सम्मान और तथाकथित प्रतिष्ठा के नाम पर। कभी अमीरी-गरीबी के अंतर के नाम पर। पर यहाँ मुद्दा ही दूसरा है। प्यार को छलने वाला समाज तो अत्याचार करने को तैयार बैठा ही है। कभी किसी सेना(?) के रूप में। कभी किसी धर्म-संस्कृति (?)के ठेकेदार के रूप में। लेकिन इससे पहले कि वे अपना कुत्सित रूप समाज के सामने प्रदर्शित करें स्वयं प्रेमियों ने अपने लिए समस्या खड़ी कर ली है।

वे एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहाँ उन्हें स्वयं नहीं पता कि जो उन्हें हुआ है वह प्यार है भी या नहीं? प्यार की शुद्धता और सहजता से अनजान आज के प्रेमी इस सवाल से जूझ रहे हैं कि कोई तो आए और उन्हें यह बताए कि 'हाँ, यही प्यार है।'

आज प्यार की सरलता कायम नहीं रही। उसकी गहराई में अंतर आया है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों टूटकर बिखरता वह किरचों-किरचों में? तो क्या जो टूटता है वह प्यार होता ही नहीं है? मनोविज्ञान कहता है प्यार तो मन में एक बार बसी छवि की ऐसी अनुभूति है जो शाश्वत होती है। समय के चिह्न भी फिर जिस पर दिखाई नहीं देते हैं। यहाँ तक कि दैहिक परिवर्तन भी नहीं। प्यार यदि सचमुच प्यार ही है तो समय बीतने के साथ उसका रंग गहराता ही है, धूमिल नहीं होता। लंबे समय तक साथ रहने के बाद एक-दूसरे को देखा नहीं जाता बल्कि अनुभूत किया जाता है, ह्रदय की अनंत गहराइयों में। जो लोग अपनी सच्ची अंतरंगता के साथ एक-दूसरे के साथ रहते हैं, वे एक-दूसरे में अंशत: समाहित हो जाते हैं।

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कुछ इस तरह कि 60 वर्ष पहले प्रेम-विवाह करने वाले एक प्रेमी कहते हैं - 'मैं वही सोचता हूँ जो 'वह' कहती है या जो मैं सोचता हूँ वही 'वह' कहती है। बड़ी मीठी उलझन है। कई बार तो ऐसा लगता है मानो मैंने अपने ही शब्द उसके मुँह में डाल दिए हैं।'

और 'प्रेमिका' कहती है - 'हम हर काम का श्रेय एक-दूजे को देते हैं। हम एक-दूजे की छवि को बनाए रखने के लिए दीवानों की तरह काम करते हैं। जैसे 'इनके' नाम से मैं दूसरों को उपहार भेजती हूँ और मेरी तरफ से 'ये' दूसरों से क्षमा माँग लिया करते हैं। '

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यानी एक के शुरू किए गए वाक्य को जब दूसरा पूरा करता है। दूर-दूर बैठकर भी दृष्टि ऐसी होती है जिसका अर्थ स्पष्ट करने की जरूरत नहीं होती। या किसी भी मनोरंजन के विषय में उनके मनोभावों को व्याख्या की आवश्यकता नहीं पड़ती। तब यही प्यार का वह वटवृक्ष होता है जिसकी छाँव तले प्यार के नन्हे पौधे जीवन-रस पाते हैं। परिवार में प्यार के बने रहने की सबसे बड़ी वजह मुखिया दंपति के रिश्तों की प्रगाढ़ता होती है।
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'प्रेमविवाह' करने वाले एक अन्य जोड़े ने हमें बताया कि 'समय के साथ अपने जुड़ाव को एक निरंतरता देनी पड़ती है। हम आज भी एक-दूसरे को विपरीत परिस्थिति में भी कोमल दृष्टि से देखते हैं। शायद किसी को विश्वास ना हो पर यह हमारा आपस में पहला वादा था कि हम कभी एक-दूसरे का अपमान नहीं करेंगे। हम आपस में लड़ते भी हैं तो एक शिष्टता के साथ। वैसे तो समय नहीं मिलता कि कमियों और भूलों पर सहसा ध्यान ही जाए और टकराव पैदा हो।'

सुन रहे हैं आज के प्रेम परिंदे?? नहीं, उन्हें यह सब 'इमोशनल फूल्स' लोगों का काम लगता है।

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एक 'प्रेमी' हमें अकेले मिले लेकिन फिर भी वे अकेले नहीं थे। उनकी यादों का मखमली खजाना उनके साथ था। कहने लगे- 'मेरी 'वह' किसी काम को पसंद करती थी तो मैं उसके लिए उसे फिर-फिर करता क्योंकि मुझे उसके चयन, उसकी पसंद पर विश्वास था। 'वह' आज दुनिया में नहीं है। पर सिर्फ लोगों के लिए । मेरे लिए तो वह हर कहीं, हर जगह है। यही वजह है कि उसके जाने पर भी मैं टूटा नहीं। उसने कभी मुझे अपने ऊपर निर्भर नहीं होने दिया। परिणाम सामने है कि मैं भावनात्मक रूप से मजबूत हूँ। आज इस उम्र(79) में भी उसके प्यार में डूबा हूँ। मृत्यूपर्यंत डूबा रहूँगा।''

जबकि आज के प्रेम पँछियों का हिसाब साफ है - उसकी पसंद उसके साथ, मेरी मेरे साथ। अपनी पसंद थोप नहीं सकती वह मेरे ऊपर। उसकी बातें मान कर उसके मुगालते बढ़ाने हैं क्या? ज्यादा नाटक किए तो... कमी नहीं है शहर में लड़कियों की ....एक छोड़ों दस मिलती है। यहाँ से बात को कैसे आगे बढ़ाया जाए??

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मनोविज्ञान ऐसे प्रेम को क्रीड़ा प्रधान प्रेम कहता है। जिसमें व्यक्ति उसी भावना और शैली से प्यार करता है ‍िजस प्रकार कोई खेल खेलता है। ऐसे प्यार में प्रतिबध्दता का महत्व शून्य होता है। व्यक्ति अनेक लोगों से एक ही अवधि में प्रेम का व्यापार चलाता रहता है या चला सकता है। ऐसे प्रेम का अंत तब हो जाता है जब सहभागी, प्रेमी के लिए अरूचिकर हो जाता है।

क्यों आज के प्यार में ना सुगंध है ना सौन्दर्य। ना कोमलता ना समर्पण के पराग-कण? ‍िवख्यात कवि नरेश मेहता ने कहा था - प्रेम अब फूल नहीं फूल के चित्र जैसा हो गया है। अब आप ही बताएँ चित्र से सुगंध की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?