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रेहबर जोनपुरी की ग़ज़लें
1.
मुझको किस मोड़ पे लाया है मुक़द्दर मेरा रास्ता रोकते हैं मील के पत्थर मेराआँखों-आँखों में गुज़र जाती हैं रातें सारीअब मुझे ख़्वाब भी देता नहीं बिस्तर मेराताज कोई है न दस्तार-ए-फ़ज़ीलत कोईबार अब दोश पे लगता है मुझे सर मेरामैं परेशान बदलते हुए हालात से थारख दिया वक़्त ने चेहरा ही बदल कर मेरासेहन-ओ-दीवार वही, ताक़-ओ-दर-ओ-बाम वहीअजनबी सा मुझे लगता है मगर घर मेरामैं किसी और से उम्मीद-ए-वफ़ा क्या रक्खूँख़ुद ही जब बस नहीं चलता कोई मुझ पर मेरातुझसे नाकामी-ए-मंज़िल का गिला क्या रेहबर चश्म-ए-बीना है न अब दिल है मुनव्वर मेरा 2.
इक छत तो बड़ी चीज़ है छप्पर नहीं रखते जो घर को बनाते हैं वही घर नहीं रखते हो प्यास बुझानी तो कुआँ खोदिए कोई पीने के लिए लोग समन्दर नहीं रखते मंज़िल पे पहुँचने का सिखाते हैं हुनर हम राहों में किसी की कभी पत्थर नहीं रखते हम अज़मत-ए-किरदार पे करते हैं भरोसाएहसान की चोखट पे कभी सर नहीं रखते आईना-ए-एहसास को जो ठेस लगाएँ अल्फ़ाज़ हम ऐसे कभी लब पर नहीं रखते वाबस्ता उन्हीं लोगों से रहते हैं अँधेरेजो शम्मे दिल-ओ-जाँ को मुनव्वर नहीं रखते
3.
जब दिलों की मसलिहत आमेज़ियाँ ज़ाहिर हुईं क़हक़हे गुम हो गए ख़ामोशियाँ ज़ाहिर हुईंदिल समझता था के ये दुनिया भी जन्नत है मगर जब यहाँ आए तो सब दुशवारियाँ ज़ाहिर हुईं तुम समझते थे के शोले हौसलों के बुझ गए देख लो फिर राख से चिंगारियाँ ज़ाहिर हुईं जो दिया करते थे ख़ुद हमसाएगी का वास्तावक़्त आया तो दिलों की दूरियाँ ज़ाहिर हुईंजब उठाई रात ने सूरज के चहरे से नक़ाब हर क़दम पर मौत की परछाइयाँ ज़ाहिर हुईं ख़्वाहिशों ने जब निगाहों पर लगा दीं बंदिशेंघर की दीवारों में कुछ खिड़कियाँ ज़ाहिर हुईंबेह्र में रेहबर सफ़ीना मेरा तन्हा देख करकरवटें मौजों ने लीं गहराइयाँ ज़ाहिर हुईं 4.
मसअलों के तूफ़ाँ में उलझनों की बारिश है वक़्त की इनायत है, वक़्त की नवाज़िश है फिर बज़िद ज़माना है जू-ए-शीर लाने पर फिर मेरे जुनूँ शायद तेरी आज़माइश है क्या मजाल थी मेरे पाँव डगमगा जातेमेरी लग़ज़िश-ए-पा में रास्तों की साज़िश है ज़िन्दगी तो क्या! जिस पर मौत भी मचलती थी अब कहाँ वो ज्ज़्बा है अब कहाँ वो ख़्वाहिश है पूछते हो क्या 'रेहबर' उस दयार-ए-हसरत में क़त्ल है सदाक़त का, झूट की परस्तिश है