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ग़ज़ल- अकबर इलाहाबादी
समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का '
अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का गर शैख़ो-बहरमन सुनें अफ़साना किसी का माबद न रहे काब-ओ-बुतख़ाना किसी का अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरतरौशन भी करो जाके सियहख़ाना किसी का अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़ नींद के साहब ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का इशरत जो नहीं आती मिरे दिल में, न आए हसरत ही से आबाद है वीराना किसी काकरने जो नहीं देते बयाँ हालते-दिल को सुनिएगा लबे-गोर से अफ़साना किसी का कोई न हुआ रूह का साथी दमे-आखि़रकाम आया न इस वक्त़ में याराना किसी का हम जान से बेज़ार रहा करते हैं 'अकबर' जब से दिले-बेताब है दीवाना किसी का