तबसिरा : किताब 'फ़िज़ा इब्न ए फ़ैज़ी'
बहुत अरसे बाद एक अच्छी किताब हाथ में आई है। अच्छी से मतलब हर ऐतबार से अच्छी, ख़ूबसूरत और दीदाज़ेब इतनी कि आँखों को सुकून महसूस हो। पढ़ना शुरू कर दो तो दिल ओ दिमाग़ ताज़गी और ख़ुशी से भर जाएँ। इस नायाब किताब 'फ़िज़ा इब्न ए फ़ैज़ी-- शख्सियत और फ़न' के मुसन्निफ़ हैं डॉ. हदीस अंसारी।मुसन्निफ़ ने सबसे पहले तो उस माहौल और मक़ाम का जाएज़ा लिया है जहाँ फ़िज़ा ने अपनी आँखें खोलीं। इस जाएज़े में जुग़राफ़ियाई, तारीख़ी, सक़ाफ़ती, सियासी, मआशरती, अदबी और शे'री हालात तफ़सील से बयान किए गए हैं। ये तफ़सील इसलिए भी ज़रूरी थी कि इसका असर बराहे-रास्त फ़न और शख्सियत पर होता है। माहौल के साथ ही अगर किसी के आबा ओ अजदाद और ख़ानदान के दीगर अफ़राद भी तालीमयाफ़्ता और मोहज़्ज़िब हों तो उसके किरदार में निखार पैदा हो जाता है। कहावत मशहूर है कि कुछ बच्चे अपने मुँह में सोने का चम्मच लेकर पैदा होते हैं। फ़िज़ा के मुँह में सोने का चम्म्च तो नहीं था मगर उनके कानों में शे'र ओ अदब की बातें बचपन ही से पड़ने लगी थीं। जैसे-जैसे फ़िज़ा ज़िन्दगी की नई बहारें देखते गए उनका शऊर भी पुख़्ता होता चला गया। मोहज़्ज़िब ख़ानदान और साज़गार माहौल के साथ ही खुदा ने फ़िज़ा को ज़हानत और संजीदगी भी बख़्शी। इन तमाम नेमतों ने यकजा होकर फ़िज़ा की शख्सियत में ग़ज़ब का निखार पैदा कर दिया। मुसन्निफ़ ने फ़िज़ा की ज़िन्दगी के किसी पहलू को नज़र अन्दाज़ नहीं किया है। हर पहलू के हर गोशे पर गहरी नज़र डाली है और ऐसी-ऐसी बातें नाज़रीन के सामने रखी हैं कि लोग वाह कहे बग़ैर नहीं रह सकते। |
ऐतबार से अच्छी, ख़ूबसूरत और दीदाज़ेब इतनी कि आँखों को सुकून महसूस हो। पढ़ना शुरू कर दो तो दिल ओ दिमाग़ ताज़गी और ख़ुशी से भर जाएँ। इस नायाब किताब 'फ़िज़ा इब्न ए फ़ैज़ी-- शख्सियत और फ़न' के मुसन्निफ़ हैं डॉ. हदीस अंसारी। |
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फ़िज़ा इब्ने फ़ैज़ी को अगर बतौर शायर हम देखना और परखना चाहें तो पहले हमें उस ज़माने की उस्तादी और शागिर्दी की रिवायत पर नज़र डालना होगी। उनके ज़माने में बग़ैर किसी उस्ताद के शायरी का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता था। शागिर्द अपने उस्ताद की बेहद इज़्ज़त किया करते थे। उस्ताद भी बहुत ख़ुलूस और मोहब्बत से फ़न की बारीकियाँ अपने शागिर्दों को समझाते और उनसे रियाज़ करवाया करते थे। फ़िज़ा ने अपने उस्ताद के साथ-साथ अपने दीगर बुज़ुर्गों से भी बहुत कुछ सीखा। जो तरीक़ा उनके बुज़ुर्गों ने उनके साथ बरता उसी तरीक़े को फ़िज़ा ने अपने शागिर्दों के साथ इस्तेमाल किया। इस तरह वो कहावत भी सच कर दिखाई कि अगर तुम चाहते हो कि दूसरे तुम्हारी इज़्ज़त करें तो पहले तुम उनकी इज़्ज़त करो। किताब में फ़िज़ा के शागिर्दों का ज़िक्र भी है और उनके कलाम पर उनकी इसलाहें भी। इन इसलाहों को पढ़कर नोमश्क़ शो'रा शायरी के फ़न के बारे में बहुत कुछ सीख सकते हैं। फ़िज़ा सिर्फ़ ग़ज़ल के ही अच्छे शायर नहीं हैं। उनकी नज़्में भी बहुत अच्छी हैं। उनके बारे में कहा गया है कि वो ज़ुलरियासतैन शायर हैं। यानी उनकी दोनों रियासतों पर हुकूमत है।ये दो रियासतें हैं ग़ज़ल और नज़्म। उनकी अच्छी नज़्मों में सौदा की छड़ी, पालकी, मौसमे गर्मा, मौसमेसरमा, शहरे आशूब, क़सीदा, तज़हीक ए रोज़गार वग़ैरा शामिल हैं। मैं चाहता था कि इनमें से कोई नज़्म यहाँ पेश करूँ। लेकिन इनमें से एक नज़्म का इंतिख़ाब करना मुश्किल है, किसे पेश करूँ और किसे फ़रामोश करूँ। रुबाई भी नज़्म ही है, लेकिन इसकी अपनी एक शक्ल है, इसका अपना एक पैमाना है। कहने को सिर्फ़ चार मिसरे, लेकिन फ़न बहुत मुश्किल। उर्दू में चन्द ही अच्छे रुबाई निगार हुए हैं, फ़िज़ा उनमें से एक हैं।ये नक़्श हैं हल्के अभी ख़ुद को ढालोरंगों में कंवल के अभी ख़ुद को ढालोए शहरे मआनी के हसीं कूज़ा गरो साँचे में ग़ज़ल के अभी ख़ुद को ढालो कोताह खि़रद बात बड़ी करते हैंबेवजह तनक़ीद कड़ी करते हैंहम वो हैं जो इनकार ए हक़ाइक़ के लिएमफ़रूज़ों की दीवार खड़ी करते हैंवो काम करो नुकता नगर कहलाओरूह ए अदब ओ जान ए हुनर कहलाओबदलो न वो असलूब ए सुख़न दीदावरोलफ़्ज़ों के फ़क़त शोबदा गर कहलाओदिल ख़ून हो तब शे'र ग़ज़ल बनता हैअफ़कार का इक ताजमहल बनता हैआसान नहीं तरबियत ए वजदान ओ शऊर मुश्किल से कोई जज़्बा ग़ज़ल बनता है ।
फ़िज़ा ने अपनी ज़हानत और उपज से शायरी में ताज़गी और दिलकशी पैदा की है। उनकी ज़ुबान ख़ास होते हुए भी उनका लब ओ लहजा आम लोगों की बोल-चाल की ज़ुबान का लब ओ लहजा है। फ़िज़ा की शायरी मुनफ़रिद और जुदागाना ख़ुसूसियात की शायरी है। फ़िज़ा के क्लासिकल मिज़ाज ने उनकी ग़ज़लों को नए ज़मीन ओ आसमान दिए हैं। अक्सर उनकी शायरी का आहंग माहौल, समाज, ज़ात और असरी मसाइल का एक मिला-जुला पैकर बनकर सामने आता है। तमाम रात बसर हो गई ग़ज़ल लिखतेतेरा ख़्याल भी हर्फ़ ए बहार जैसा थाज़रा सी देर को बस उसकी याद आई थी ख़्याल में कई रंगों का ज़ाविया टूटा चला है किस का समन्दर की मोज पर क़ाबूनहीं वो रेत के जाकर समेट लाऊँ उसेकभी न टूटे मेरे हाफ़िज़े पर क़हर ऐसा
िक ख़ुद को याद रखूँ और भूल जाऊँ उसेजामादरी के बाद भी उरयाँ हुए न हम ज़ख़्म ए बदन बसूरत ए चादर मिला हमेंहूँ मुद्दई सुख़न का मगर की जब उससे बात जुमले ग़लत से हो गए मफ़हूम उलट गयाकहाँ वो लोग जो क़द्र ए ख़ुलूस पहचानेंदिलों का प्यार तो बस कार ओ बार जैसा हैहो देखना तो दरीचों को बन्द ही रक्खोखुली हो आँख तो लुत्फ़ ए मुशाहेदा कैसा उँगलियाँ हैं ज़ात ओ कायनात के अवराक़ पर दी है हाथों में किताब ऐसी तो बीनाई भी देसोज़ ए जाँ है ये मेरे जिस्म के अन्दर कैसा रेत की तेह में सुलगता है समन्दर कैसा डॉ. हदीस अंसारी ने फ़िज़ा इब्न ए फ़ैज़ी की ज़िन्दगी और शायरी का बहुत गहराई से मुतालेआ किया है। क्योंकि डॉ. अंसारी का तअल्लुक़ भी उसी इलाक़े से है जहाँ फ़िज़ा इब्न ए फ़ैज़ी ने अपनी तमाम ज़िन्दगी गुज़ारी इसलिए उन्हें फ़िज़ा के शब ओ रोज़ से अच्छी तरह से वाक़िफ़ होने का मौक़ा मिला और वो फ़िज़ा की ज़िन्दगी, शख्सियत और शायरी के हर पहलू को उजागर करने में कामयाब हुए। इस कामयाबी में डॉ. हदीस अंसारी की लगन और मेहनत साफ़ झलकती है। ये किताब नई सनद हासिल करने वालों के लिए, नवमश्क़ शो'रा के लिए और शायरी में दिलचस्पी रखने वालों के लिए मिशअले राह बनकर मनज़र ए आम पर आई है। इसकी पज़ीराई होना ही चाहिए। नई किताब -- 'फ़िज़ा इब्न ए फ़ैज़ी-- शख्सियत और फ़न' मुसन्निफ़ --डॉ. हदीस अंसारी तबसिरा निगार --अज़ीज़ अंसारी