नज़्म : मैं ईद क्या मनाऊँ!
शायर - सीमाब अकबराबादी तख़रीब की घटाएँ घनघोर छा रही हैंसनकी हुई हवाएँ तूफ़ाँ उठा रही हैं नाख़्वास्ता बलाएँ दुनिया पे आ रही हैं ऐसी हमा-हमी में मैं लुत्फ़ क्या उठाऊँमैं ईद क्या मनाऊँलाखों मकाँ हैं ऐसे जिनके मकीं नहीं हैंजो मरकज़े-नज़र थे वो अब कहीं नहीं हैं वो हमनवा नहीं हैं, वो हमनशीं नहीं हैं साज़े-हयात के अब नग़मे किसे सुनाऊँ मैं ईद क्या मनाऊँ इंसानियत जहाँ में पामाल हो रही हैरूहानियत भी अपने माज़ी को रो रही है सच्ची ख़ुशी अदम के झूलों में सो रही है झूटी ख़ुशी मनाकर कब तक फ़रेब खाऊँ मैं ईद क्या मनाऊँपेशकश : अज़ीज़ अंसारी