शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

वानप्रस्थ आश्रम की व्यवस्था

vanaprastha Hindu ashrams | वानप्रस्थ आश्रम की व्यवस्था
धार्मिक तथा नैतिक कर्तव्यों का पालन करते हुए व्यक्ति सक्रिय जीवन में तटस्थ रहते हुए गृहत्याग कर वानप्रस्थ में प्रवेश करता है; तब उसका राग-द्वैष जाता रहता है। तटस्थता से ही राग-द्वैष हटता है। यही शिक्षकों का धर्म है। यही यौद्धाओं और धर्म रक्षकों का धर्म भी है। यही मोक्ष का मार्ग है और यही आचार्यो का धर्म माना गया है।
वानप्रस्थ में प्रवेश करने के बाद प्रारंभ में वानप्रस्थी समाज और संघ को सबल बनाने के लिए कार्य करता है फिर वह वन या आश्रम में चला जाता है तब वह पूर्णत: वानप्रस्थ आश्रम में रहता है।
 
वानप्रस्थी का कर्तव्य है कि वह समाज की बुराइयों को मिटाने तथा समाज में वैदिक ज्ञान के प्रचार प्रसार में अपना योगदान दें। जो लोग सनातन मार्ग से भटककर किसी अन्य मार्ग पर चले गए हैं उन्हें वापस सही मार्ग पर लाना तथा वैदिक धर्म को कायम रखने के लिए अथक प्रयास करना ही वानप्रस्थी का कर्तव्य है।
 
पुराणकारों ने वानप्रस्थ आश्रम को दो रूपों 'तापस' और 'सांन्यासिक' में विभाजित किया है। माना जाता है कि जो व्यक्ति वन में रहकर हवन, अनुष्ठान तथा स्वाध्याय (वेद और स्वयं का अध्ययन) करता है, वह 'तापस वानप्रस्थी' कहलाता है और जो साधक कठोर तप करता तथा ईश्वराधना में निरन्तर लगा रहता है, उसे 'सांन्यासिक वानप्रास्थी' कहते हैं।
 
शास्त्र अनुसार इस आश्रम में मनुष्य को ब्रह्यचारी रहना, परमार्थ साधना में रत, देश और समाज के कल्याण के लिए अथक परिश्रम करना आदि का आदेश किया गया है। साथ ही उसको मनुष्य जीवन में नवीन उत्साह, स्वास्थ्य, उच्च भावनाएँ, शक्ति आदि को बनाए रखना चाहिए।- Anirudh joshi 'Shatayu'