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क्या हिन्दू धर्म में पशु बलि प्रथा है?

क्या हिन्दू धर्म में पशु बलि प्रथा है? | bali pratha
हजारों वर्षों से चली आ रही परंपराओं के कारण हिन्दू धर्म में कई ऐसी अंतरविरोधी और विरोधाभाषी विचारधाराओं का समावेश हो चला है, जो स्थानीय संस्कृति और परंपरा की देन है। जिस तरह वट वृक्ष पर असंख्य लताएं, जंगली बेले चढ़ जाती है उसी तरह हिन्दू धर्म की हजारों वर्षों की परंपरा के चलते कई स्थानीय परंपराओं की लताएं भी धर्म पर चढ़ गई है। उन्हीं में से एक है बलि परंपरा या प्रथा।
बली प्रथा : देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि का प्रयोग किया जाता है। बलि प्रथा के अंतर्गत बकरा, मुर्गा या भैंसे की बलि दिए जाने का प्रचलन है। हिन्दू धर्म में खासकर मां काली और काल भैरव को बलि चढ़ाई जाती है। उन्हें बलि चढ़ाने के लिए कई तरह के तर्क दिये जाते हैं। सवाल यह उठता है कि क्या बलि प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा है? यदि वेद और पुराणों की मानें तो नहीं और यदि अन्य धर्मशास्त्रों की मानें तो हां। हालांकि वेद, उपनिषद और गीता ही एकमात्र धर्मशास्त्र है। पुराण या अन्य शास्त्र नहीं। यदि वेद, उपनिषद और गीता इसकी इजाजद नहीं देती तो फिर यह प्रथा क्यों?

''मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।''- ऋग्वेद 1/114/8
अर्थ : हमारी गायों और घोड़ों को मत मार।
 
विद्वान मानते हैं कि हिन्दू धर्म में लोक परंपरा की धाराएं भी जुड़ती गईं और उन्हें हिन्दू धर्म का हिस्सा माना जाने लगा। जैसे वट वर्ष से असंख्य लताएं लिपटकर अपना अस्तित्व बना लेती हैं लेकिन वे लताएं वक्ष नहीं होतीं उसी तरह वैदिक आर्य धर्म की छत्रछाया में अन्य परंपराओं ने भी जड़ फैला ली। इन्हें कभी रोकने की कोशिश नहीं की गई।
 
बलि प्रथा का प्राचलन हिंदुओं के शाक्त और तांत्रिकों के संप्रदाय में ही देखने को मिलता है लेकिन इसका कोई धार्मिक आधार नहीं है। शाक्त या तांत्रिक संप्रदाय अपनी शुरुआत से ऐसे नहीं थे लेकिन लोगों ने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कई तरह के विश्वास को उक्त संप्रदाय में जोड़ दिया गया।..बहुत से समाजों में लड़के के जन्म होने या उसकी मान उतारने के नाम पर बलि दी जाती है तो कुछ समाज में विवाह आदि समारोह में बलि दी जाती है जोकि अनुचित मानी गई है। वेदों में धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार की बलि प्रथा कि इजाजत नहीं दी गई है।..यदि आप मांसाहारी है तो आप मांस खास सकते हैं लेकिन धर्म की आड़ में नहीं।
 
''इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।।''
 
अर्थ : ''उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार।।''- यजु. 13/50
 
पशुबलि की यह प्रथा कब और कैसे प्रारंभ हुई, कहना कठिन है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि वैदिक काल में यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाती थी। ऐसा तर्क देने वाले लोग वैदिक शब्दों का गलत अर्थ निकालने वाले हैं। वेदों में पांच प्रकार के यज्ञों (ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेवयज्ञ और अतिथि यज्ञ) का वर्णन मिलता है। 
 
पशु बलि प्रथा के संबंध में पंडित श्रीराम शर्मा की शोधपरक किताब 'पशुबलि : हिन्दू धर्म और मानव सभ्यता पर एक कलंक' पढ़ना चाहिए।
 
'' न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।'- सामवेद-2/7
अर्थ : ''देवों! हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं, वेद मंत्र के आदेशानुसार आचरण करते हैं।''
 
वेदों में ऐसे सैकड़ों मंत्र और ऋचाएं हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि हिन्दू धर्म में बलि प्रथा निषेध है और यह प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है। जो बलि प्रथा का समर्थन करता है वह धर्मविरुद्ध असुर और दानवी आचरण करता है।