तीर्थ यात्रा के लिए शास्त्रीय निर्देश यह है कि उसे पद यात्रा के रूप में ही किया जाए। यह परंपरा कई जगह निभती दिखाई देती है। पहले धर्म परायण व्यक्ति छोटी-बड़ी मंडलियां बनाकर तीर्थ यात्रा पर निकलते थे। यात्रा के मार्ग और पड़ाव निश्चित थे। मार्ग में जो गांव, बस्तियां, झोंपड़े नगले पुरबे आदि मिलते थे, उनमें रुकते, ठहरते, किसी उपयुक्त स्थान पर रात्रि विश्राम करते थे। जहां रुकना वहां धर्म चर्चा करना-लोगों को कथा सुनाना, यह क्रम प्रातः से सायंकाल तक चलता था। रात्रि पड़ाव में भी कथा कीर्तन, सत्संग का क्रम बनता था। अक्सर यह यात्राएं नवंबर माह के मध्य में प्रारंभ होती है।
हिन्दू धर्म में परिक्रमा का बड़ा महत्त्व है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि सामान्य स्थान या किसी व्यक्ति के चारों ओर उसकी बाहिनी तरफ से घूमना। इसको 'प्रदक्षिणा करना' भी कहते हैं, जो षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है। वैदिक काल से ही इससे व्यक्ति, देवमूर्ति, पवित्र स्थानों को प्रभावित करने या सम्मान प्रदर्शन का कार्य समझा जाता रहा है। दुनिया के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है। काबा में भी परिक्रमा की जाती है तो बोधगया में भी। आपको पता होगा कि भगवान गणेश और कार्तिकेय ने भी परिक्रमा की थी। यह प्रचलन वहीं से शुरू हुआ है।
परिक्रमा मार्ग और दिशा : 'प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं’ के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है। प्रदक्षिणा में व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से प्राय: जाना जाता है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में कहा गया है कि देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है।
प्रदक्षिणा का प्राथमिक कारण सूर्यदेव की दैनिक चाल से संबंधित है। जिस तरह से सूर्य प्रात: पूर्व में निकलता है, दक्षिण के मार्ग से चलकर पश्चिम में अस्त हो जाता है, उसी प्रकार वैदिक विचारकों के अनुसार अपने धार्मिक कृत्यों को बाधा विध्नविहीन भाव से सम्पादनार्थ प्रदक्षिणा करने का विधान किया गया। शतपथ ब्राह्मण में प्रदक्षिणा मंत्र स्वरूप कहा भी गया है, सूर्य के समान यह हमारा पवित्र कार्य पूर्ण हो।
दार्शनिक महत्व : इसका एक दार्शनिक महत्व यह भी है कि संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र किसी न किसी तारे की परिक्रमा कर रहा है। यह परिक्रमा ही जीवन का सत्य है। व्यक्ति का संपूर्ण जीवन ही एक चक्र है। इस चक्र को समझने के लिए ही परिक्रमा जैसे प्रतीक को निर्मित किया गया। भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मान सकते हैं कि हमने सारी सृष्टि की परिक्रमा कर ली है। परिक्रमा का धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व भी है।
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नर्मदा परिक्रमा : वैसे सभी प्रमुख और पवित्र नदियों की परिक्रमा के बारे में पुराणों में उल्लेख मिलता है। गंगा, गोदावरी, महानदी, गोमती, कावेरी, सिंधु, ब्रह्मपुत्र आदि। लेकिन हम यहां नर्मदा परिक्रमा की जानकारी दे रहे हैं। यह एक धार्मिक यात्रा है, जो पैदल ही पूरी करना होती है। लेकिन जिसने भी नर्मदा या गंगा में से किसी एक की परिक्रमा पूरी कर ली उसने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा काम कर लिया। उसने मरने से पहले वह सब कुछ जान लिया, जो वह यात्रा नहीं करके जिंदगी में कभी नहीं जान पाता। नर्मदा की परिक्रमा का ही ज्यादा महत्व रहा है।
नर्मदाजी की प्रदक्षिणा यात्रा में एक ओर जहां रहस्य, रोमांच और खतरे हैं वहीं अनुभवों का भंडार भी है। इस यात्रा के बाद आपकी जिंदगी बदल जाएगी। कुछ लोग कहते हैं कि यदि अच्छे से नर्मदाजी की परिक्रमा की जाए तो नर्मदाजी की परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिनों में पूर्ण होती है, परंतु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं। परिक्रमावासी लगभग 1,312 किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं। श्रीनर्मदा प्रदक्षिणा की जानकारी हेतु तीर्थस्थलों पर कई पुस्तिकाएं मिलती हैं।
नर्मदाजी वैराग्य की अधिष्ठात्री मूर्तिमान स्वरूप है। गंगाजी ज्ञान की, यमुनाजी भक्ति की, ब्रह्मपुत्रा तेज की, गोदावरी ऐश्वर्य की, कृष्णा कामना की और सरस्वतीजी विवेक के प्रतिष्ठान के लिए संसार में आई हैं। सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है व श्रद्धा से पूजन करता है। मानव जीवन में जल का विशेष महत्व होता है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है।
परिक्रमावासियों के सामान्य नियम
1. प्रतिदिन नर्मदाजी में स्नान करें। जलपान भी रेवा जल का ही करें।
2. प्रदक्षिणा में दान ग्रहण न करें। श्रद्धापूर्वक कोई भेजन करावे तो कर लें क्योंकि आतिथ्य सत्कार का अंगीकार करना तीर्थयात्री का धर्म है। त्यागी, विरक्त संत तो भोजन ही नहीं करते भिक्षा करते हैं जो अमृत सदृश्य मानी जाती है।
3. व्यर्थ वाद-विवाद, पराई निदा, चुगली न करें। वाणी का संयम बनाए रखें। सदा सत्यवादी रहें।
4. कायिक तप भी सदा अपनाए रहें- देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञ पूजनं, शौच, मार्जनाम्। ब्रह्मचर्य, अहिसा च शरीर तप उच्यते।।
5. मनः प्रसादः सौम्य त्वं मौनमात्म विनिग्रह। भव संशुद्धिरित्येतत् मानस तप उच्यते।। (गीता 17वां अध्याय) श्रीमद्वगवतगीता का त्रिविध तप आजीवन मानव मात्र को ग्रहण करना चाहिए। एतदर्थ परिक्रमा वासियों को प्रतिदिन गीता, रामायणादि का पाठ भी करते रहना उचित है।
6. परिक्रमा आरंभ् करने के पूर्व नर्मदाजी में संकल्प करें। माई की कडाही याने हलुआ जैसा प्रसाद बनाकर कन्याओं, साधु तथा अतिथि अभ्यागतों को यथाशक्ति भेजन करावे।
7. दक्षिण तट की प्रदक्षिणा नर्मदा तट से 5 मील से अधिक दूर और उत्तर तट की प्रदक्षिणा साढ़े सात मील से अधिक दूर से नहीं करना चाहिए।
8. कहीं भी नर्मदा जी को पार न करें। जहां नर्मदा जी में टापू हो गए वहां भी न जावें, किन्तु जो सहायक नदियां हैं, नर्मजा जी में आकर मिलती हैं, उन्हें भी पार करना आवश्यक हो तो केवल एक बार ही पार करें।
9. चतुर्मास में परिक्रमा न करें। देवशयनी आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक सभी गृहस्थ चतुर्मास मानते हैं। मासत्मासे वैपक्षः की बात को लेकर चार पक्षों का सन्यासी यति प्रायः करते हैं। नर्मदा प्रदक्षिणा वासी विजयादशी तक दशहरा पर्यन्त तीन मास का भी कर लेते हैं। उस समय मैया की कढाई यथाशक्ति करें। कोई-कोई प्रारम्भ् में भी करके प्रसन्न रहते हैं।
10. बहुत सामग्री साथ लेकर न चलें। थोडे हल्के बर्तन तथा थाली कटोरी आदि रखें। सीधा सामान भी एक दो बार पाने योग्य साथ रख लें।
11. बाल न कटवाएं। नख भी बारंबार न कटावें। वानप्रस्थी का व्रत लें, ब्रह्मचर्य का पूरा पालन करें। सदाचार अपनायें रहें। श्रृंगार की दृष्टि से तेल आदि कभी न लगावें। साबुन का प्रयोग न करें। शुद्ध मिट्टी का सदा उपयोग करें।
12. परिक्रमा अमरकंटन से प्रारंभ् कर अमरकंटक में ही समाप्त होनी चाहिए। जब परिक्रमा परिपूर्ण हो जाये तब किसी भी एक स्थान पर जाकर भ्गवान शंकरजी का अभिषेक कर जल चढ़ावें। पूजाभिषेक करें कराएं। मुण्डनादि कराकर विधिवत् पुनः स्नानादि, नर्मदा मैया की कढाई उत्साह और सामर्थ्य के अनुसार करें। श्रेष्ठ ब्राह्मण, साधु, अभ्यागतों को, कन्याओं को भी भेजन अवश्य कराएं फिर आशीर्वाद ग्रहण करके संकल्प निवृत्त हो जाएं और अंत में नर्मदाजी की विनती करें।
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गोवर्धन परिक्रमा : गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब शायद 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के शाप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चींटी अंगुली पर उठा लिया था। श्रीगोवर्धन पर्वत मथुरा से 22 किमी की दूरी पर स्थित है।
पौराणिक मान्यता अनुसार श्रीगिरिराजजी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे, लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है, तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए।
क्यों उठाया गोवर्धन पर्वत : इस पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चींटी अंगुली से उठा लिया था। कारण यह था कि मथुरा, गोकुल, वृंदावन आदि के लोगों को वह अति जलवृष्टि से बचाना चाहते थे। नगरवासियों ने इस पर्वत के नीचे इकठ्ठा होकर अपनी जान बचाई। अति जलवृष्टि इंद्र ने कराई थी। लोग इंद्र से डरते थे और डर के मारे सभी इंद्र की पूजा करते थे, तो कृष्ण ने कहा था कि आप डरना छोड़ दे...मैं हूं ना।
परिक्रमा का महत्व : सभी हिंदूजनों के लिए इस पर्वत की परिक्रमा का महत्व है। वल्लभ सम्प्रदाय के वैष्णवमार्गी लोग तो इसकी परिक्रमा अवश्य ही करते हैं क्योंकि वल्लभ संप्रदाय में भगवान कृष्ण के उस स्वरूप की आराधना की जाती है जिसमें उन्होंने बाएं हाथ से गोवर्धन पर्वत उठा रखा है और उनका दायां हाथ कमर पर है।
इस पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से कृष्णभक्त, वैष्णवजन और वल्लभ संप्रदाय के लोग आते हैं। यह पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है।
परिक्रमा मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लौठा, दानघाटी इत्यादि हैं। गोवर्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान कृष्ण के चरण चिह्न हैं।
परिक्रमा की शुरुआत वैष्णवजन जातिपुरा से और सामान्यजन मानसी गंगा से करते हैं और पुन: वहीं पहुंच जाते हैं। पूंछरी का लौठा में दर्शन करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि यहां आने से इस बात की पुष्टि मानी जाती है कि आप यहां परिक्रमा करने आए हैं। यह अर्जी लगाने जैसा है। पूंछरी का लौठा क्षेत्र राजस्थान में आता है।
वैष्णवजन मानते हैं कि गिरिराज पर्वत के ऊपर गोविंदजी का मंदिर है। कहते हैं कि भगवान कृष्ण यहां शयन करते हैं। उक्त मंदिर में उनका शयनकक्ष है। यहीं मंदिर में स्थित गुफा है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजस्थान स्थित श्रीनाथद्वारा तक जाती है।
गोवर्धन की परिक्रमा का पौराणिक महत्व है। प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक लाखों भक्त यहां की सप्तकोसी परिक्रमा करते हैं। प्रतिवर्ष गुरु पूर्णिमा पर यहां की परिक्रमा लगाने का विशेष महत्व है। श्रीगिरिराज पर्वत की तलहटी समस्त गौड़ीय सम्प्रदाय, अष्टछाप कवि एवं अनेक वैष्णव रसिक संतों की साधाना स्थली रही है।
अब बात करते हैं पर्वत की स्थिति की। क्या सचमुच ही पिछले पांच हजार वर्ष से यह स्वत: ही रोज एक मुठ्ठी खत्म हो रहा है या कि शहरीकरण और मौसम की मार ने इसे लगभग खत्म कर दिया। आज यह कछुए की पीठ जैसा भर रह गया है।
हालांकि स्थानीय सरकार ने इसके चारों और तारबंदी कर रखी है फिर भी 21 किलोमीटर के अंडाकार इस पर्वत को देखने पर ऐसा लगता है कि मानो बड़े-बड़े पत्थरों के बीच भूरी मिट्टी और कुछ घास जबरन भर दी गई हो। छोटी-मोटी झाड़ियां भी दिखाई देती है।
पर्वत को चारों तरफ से गोवर्धन शहर और कुछ गांवों ने घेर रखा है। गौर से देखने पर पता चलता है कि पूरा शहर ही पर्वत पर बसा है, जिसमें दो हिस्से छूट गए है उसे ही गिर्राज (गिरिराज) पर्वत कहा जाता है। इसके पहले हिस्से में जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, पूंछरी का लौठा प्रमुख स्थान है तो दूसरे हिस्से में राधाकुंड, गोविंद कुंड और मानसी गंगा प्रमुख स्थान है।
बीच में शहर की मुख्य सड़क है उस सड़क पर एक भव्य मंदिर हैं, उस मंदिर में पर्वत की सिल्ला के दर्शन करने के बाद मंदिर के सामने के रास्ते से यात्रा प्रारंभ होती है और पुन: उसी मंदिर के पास आकर उसके पास पीछे के रास्ते से जाकर मानसी गंगा पर यात्रा समाप्त होती है।
मानसी गंगा के थोड़ा आगे चलो तो फिर से शहर की वही मुख्य सड़क दिखाई देती है। कुछ समझ में नहीं आता कि गोवर्धन के दोनों और सड़क है या कि सड़क के दोनों और गोवर्धन? ऐसा लगता है कि सड़क, आबादी और शासन की लापरवाही ने खत्म कर दिया है गोवर्धन पर्वत को।
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चौरासी कोस परिक्रमा : ब्रज परिक्रमा को ही चौरासी कोस की परिक्रमा कहते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि इस परिक्रमा के करने वालों को एक-एक कदम पर अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। साथ ही जो व्यक्ति इस परिक्रमा को लगाता है, उस व्यक्ति को निश्चित ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
यह परिक्रमा पुष्टि मार्गीयवैष्णवों के द्वारा मथुरा के विश्राम घाट से एवं अन्य संप्रदायों के द्वारा वृंदावन में यमुना पूजन से शुरू होती है। ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा लगभग 268 किलोमीटर अर्थात् 168 मील की होती है। इसकी समयावधि 20 से 45 दिन की है। परिक्रमा के दौरान तीर्थयात्री भजन गाते, संकीर्तन करते और ब्रज के प्रमुख मंदिरों व दर्शनीय स्थलों के दर्शन करते हुए समूचे ब्रज की बडी ही श्रद्धा के साथ परिक्रमा करते हैं।
कुछ परिक्रमा शुल्क लेकर, कुछ नि:शुल्क निकाली जाती हैं। एक दिन में लगभग 10-12 किलोमीटर की पैदल यात्रा की जाती है। परिक्रमार्थियों के भोजन व जलपान आदि की व्यवस्था परिक्रमा के साथ चलने वाले रसोडों में रहती है। परिक्रमा के कुल जमा 25 पड़ाव होते हैं। इस यात्रा को पैदल ही करने का महत्व है। परिक्रमा मार्ग में राधा-कृष्ण लीला स्थली, नैसर्गिक छटा से ओत-प्रोत वन-उपवन, कुंज-निकुंज, कुण्ड-सरोवर, मंदिर-देवालय आदि के दर्शन होते हैं।
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प्रयाग पंचकोशी : एक पंचकोशी यात्रा प्रयाग में होती है और दूसरी उज्जैन में। तीर्थों का मुकुटमणि है प्रयाग। इस तीर्थ में सभी देवता ऋषि-मुनि और सिद्ध निवास करते हैं। प्रयाग मण्डल पांच योजन, बीस कोस तक फैला हुआ है। गंगा-यमुना और संगम के छह तट हैं। इन्हीं को आधार बनाकर प्रयाग की तीन वेदियों को अति पवित्र माना गया है, ये हैं अंतर्वेदी, मध्यवेदी और बहिर्वेदी।
इन तीनों वेदियों में अनेक तीर्थ, उपतीर्थ, कुण्ड और आश्रम हैं। प्रयाग आने वाले तीर्थयात्रियों को त्रिवेणी संगम में स्नान करने के बाद तीर्थराज की पंचक्रोशी परिक्रमा करनी चाहिए। इस परिक्रमा के अनेक लाभ हैं। तीर्थराज के साथ ही सभी देवताओं, ऋषियों, सिद्धों और नागों के दर्शन का पुण्य फल इस परिक्रमा से मिलता है। तीर्थ क्षेत्र में स्थित सभी देवताओं, आश्रमों, मंदिरों, मठों, जलकुण्डों के दर्शन करने से ही तीर्थयात्रा का पूरा फल मिलता है।
प्रयाग की पंचक्रोशी सीमा इस प्रकार है-
दुर्वासा पूर्व भागे निवसति,
बदरी खण्ड नाथ प्रतीच्याम।
पर्णाशा याम्यभागे धनददिशि
तथा मण्डलश्च मुनीशः
पंचक्रोशे त्रिवेण्याम् परित इह सदा
सन्ति सीमांत भागे
सुक्षेत्रं योजनानां शर्मित
ममितो मुक्ति पदन्तत
पूर्व भाग में पांच कोस पर दुर्वासा मुनि (ककरा गांव में) निवास करते हैं। पश्चिम दिशा में पांच कोस पर बरखण्डी शिव निवास करते हैं। दक्षिण में पांच कोस पर पर्णाश मुनि (पनासा गांव के पास) रहते हैं और अक्षयवट से पांच कोस उत्तर मण्डलेश्वरनाथ (पण्डिला महादेव) विराजमान हैं। यही पंचक्रोशी की सीमा है।
प्रयाग आने वाले तीर्थ यात्री परिक्रमा के लिए सबसे पहले त्रिवेणी में स्नान, पूजन करते हैं, पंचक्रोशी परिक्रमा इसके बाद शुरू होती है। श्रद्धालु को त्रिवेणी स्नान के बाद अकबरी किले में स्थित पवित्र अक्षयवट का दर्शन-पूजन करना चाहिए।
अक्षयवट के साथ ही अनेक देवता और ऋषि विराजमान हैं। इनकी मूतिर्यों का पूजन-अर्चन कर यात्री को यमुना के किनारे का रास्ता पकड़ना चाहिए। इस रास्ते पर यमुना के किनारे घृत कुल्या, मधु कुल्या, निरंजन तीर्थ, आदित्य तीर्थ, ऋण मोचन तीर्थ, रामतीर्थ, पापमोचन तीर्थ, सरस्वती कुण्ड, गो-घट्टन तीर्थ और कामेश्वर तीर्थ जाना चाहिए।
कामेश्वर तीर्थ में मनकामेश्वर महादेव विराजमान हैं। इनके दर्शन-पूजन करने से श्रद्धालु की सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। ये सभी तीर्थ यमुना के किनारे स्थित हैं। अकबरी किले की दक्षिणी दीवार से लगी हुई पगडण्डी के रास्ते पैदल जाने पर इन तीर्थों के दर्शन हो सकते हैं। किला घाट से नाव के जरिये इन तीर्थों की परिक्रमा करना आसान है।
इन तीर्थों में ज्यादातर का सही स्थान सुनिश्चित नहीं है। पुराणों में इनकी स्थिति का वर्णन है, इसलिए श्रद्धालु तीर्थ यात्री इनका स्मरण करते हुए मनकामेश्वरनाथ मंदिर तक जाते हैं।
मनकामेश्वर मंदिर से सड़क के रास्ते तक्षकेश्वर शिव मंदिर तक पैदल या सवारी से यात्रा की जा सकती है। हजारों साल से श्रद्धालु तीर्थयात्री पैदल ही इन तीर्थों के दर्शन करते हैं। तक्षकेश्वर शिव की पूजा करने और तक्षक कुण्ड में स्नान करने की महिमा पुराणों में कही गई है। तक्षक कुण्ड में स्नान करने से भक्तों को विष बाधा से मुक्ति मिलती है। तक्षकेश्वर शिव का पूजन करने से धन लाभ होता है।
तक्षक कुण्ड यमुना के जल में है। प्रयाग के दरियाबाद मोहल्ले में यह कुण्ड है और इसके पास ही तक्षकेश्वर शिव मंदिर है। तक्षक कुण्ड से आगे कालिया हृद, चक्र तीर्थ और सिंधु सागर तीर्थ है, हृद उस जल भाग को कहते हैं, जहां बहुत ज्यादा गहराई होती है। कहते हैं कालिया नाग इसी जल में रहता है और तीर्थराज प्रयाग की अर्चना करता है।
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छोटा चार धाम परिक्रमा : यह परिक्रमा उत्तराखंड में आयोजित होती है। इस छोटा चार धाम यात्रा कहा जाता है। यह बहुत ही कठिन होती है। इसमें गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ, छोटा काशी, केदारनाथ आदि की यात्रा की जाती है।
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राजिम परिक्रमा : रायपुर से 45 किलोमीटर की दूरी पर राजिम स्थित है। राजिम को पद्मावतीपुरी, पंचकोशी, छोटा काशी आदि नामों से भी जाना जाता है। राजिम छत्तीसगढ़ का एक त्रिवेणी संगम है। धार्मिक दृष्टी से राजिम को छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाता है।
यहां महानदी, पैरी तथा सौंढुल नदियों का पवित्र संगम स्थल है, यह संगम स्थल प्राचीन कुलेश्वर मंदिर के निकट है। यहां श्राद्ध, पिंडदान, तर्पण, पर्व स्नान आदि किया जाता है। कहते हैं कि महानदी तीर्थ मार्ग की परिक्रमा करना बहुत ही पुण्यदायक है।
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तिरुमलै और जगन्नाथ परिक्रमा : तिरुपति बालाजी और जगन्नाथ पुरी देवस्थान की परिक्रमा करने के महत्व का भी उल्लेख मिलता है। तिरुपति बालाजी मंदिर और पर्वत आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित है, जबकि जगन्नाथपुरी उड़ीसा के समुद्र तट पर स्थित है। यह चार धामों में से एक है।
यह दोनों ही यात्रा भगवान विष्णु की यात्रा के अंतर्गत आती है जिसे चौबीस विष्णुतीर्थ यात्रा कहते हैं। इसमें रामेश्वरम एवं द्वारिका परिक्रमा भी शामिल है और बद्रीनाथ परिक्रमा भी।
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क्षिप्रा परिक्रमा : तीर्थ नगरी उज्जैन से क्षिप्रा नदी की परिक्रमा शुरु होती है। दत्तअखाड़ा घाट से कई साधु-संतों के साथ आम जनता इस यात्रा को शुरु करते हैं। यह यात्रा लगभग 545 किमी की है। हर दिन करीब 20 किमी की यात्रा होती है। पदयात्रा के दौरान शिप्रा और तीर्थ स्थलों के दर्शन होते हैं। यात्रा का समापन उज्जैन स्थित क्षिप्रा नदी के रामघाट पर पहुंचकर होता है। उज्जैन में चौरासी महादेव की परिक्रमा का भी विधान है।
पंचकोशी यात्रा : पूर्णिमा से वैशाख मास प्रारंभ हो गया है। वैशाख मास का महत्व कार्तिक और माघ माह के समान है। इस मास में जल दान, कुंभ दान का विशेष महत्व है। वैशाख मास स्नान का महत्व अवंति खंड में है। जो लोग पूरे वैशाख स्नान का लाभ नहीं ले पाते हैं, वे अंतिम पांच दिनों में पूरे मास का पुण्य अर्जित कर सकते हैं। वैशाख मास एक पर्व के समान है, इसके महत्व के चलते उज्जैन में सिंहस्थ भी इसी मास में आयोजित होता है। पंचकोशी यात्रा में सभी ज्ञात-अज्ञात देवताओं की प्रदक्षिणा का पुण्य इस पवित्र मास में मिलता है।
पंचकोशी यात्रा उज्जैन की प्रसिद्ध यात्रा है। इस यात्रा में आने वाले देव- 1. पिंगलेश्वर, 2 कायावरोहणेश्वर, 3. विल्वेश्वर, 4. दुर्धरेश्वर, 5. नीलकंठेश्वर हैं। शाख मास तथा ग्रीष्म ऋतु के आरंभ होते ही शिवालयों में गलंतिका बंधन होता है। इस समय पंचेशानी यात्रा (पंचक्रोशी यात्रा) शुरू होती है। उज्जैन की नागनाथ की गली पटनी बाजार स्थित भगवान नागचंद्रेश्वर से जल लेकर यात्री 118 किलोमीटर की पंचक्रोशी यात्रा करते हैं।
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भरत खण्ड परिक्रमा : संपूर्ण अखंड भारत की यात्रा करना ही भरत खंड की परिक्रमा कहलाती है। परिवाज्रक संत और साधु ये यात्राएं करते हैं। इस यात्रा के पहले क्रम में सिंधु की यात्रा, दूसरे में गंगा की यात्रा, तीसरे में ब्रह्मपुत्र की यात्रा, चौथे में नर्मदा, पांचवें में महानदी, छठे में गोदावरी, सातवें में कावेरा, आठवें में कृष्णा और अंत में कन्याकुमारी में इस यात्रा का अंत होता है। हालांकि प्रत्येक साधु समाज में इस यात्रा का अलग अलग विधान और नियम है।
अंत में प्राय: सोमवती अमावास्या को महिलाएं पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करती हैं। इसी प्रकार देवी दुर्गा की परिक्रमा की जाती है। पवित्र धर्मस्थानों- अयोध्या में सरयु, ब्रज में गोवर्धन, चित्रकूट में कामदगिरि, दक्षिण भारत में तिरुवन्नमल, तिरुवनन्तपुरम आदि पुण्य स्थलों की परिक्रमा होती है। इसमें अयोध्या में पंचकोसी (25 कोस की), ब्रज में गोवर्धन पूजा की सप्तकोसी, ब्रह्ममंडल की चौरासी कोस, नर्मदाजी की अमरकंटक से समुद्र तक छ:मासी और समस्त भारत खण्ड की वर्षों में पूरी होने वाली इस प्रकार की विविध परिक्रमाओं के बारे में पुराणों में विस्तार से मिलता है।