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रशिया में हुआ था यह संग्राम...
अगले पन्ने पर, इस युद्ध ने बदला था समाज का इतिहास..
इस युद्ध से बदल गई देश की संस्कृति और धर्म..
3. राम-रावण युद्ध : राम अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र थे तो रावण लंका का राजा था। राम के जन्म को हुए 7,128 वर्ष हो चुके हैं। राम एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे और इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। राम का जन्म 5,114 ईस्वी पूर्व हुआ था। राम और रावण का युद्ध 5076 ईसा पूर्व हुआ था यानी आज से 7090 वर्ष पूर्व। तब भगवान राम 38 वर्ष के थे। यह युद्ध 72 दिन चला था।
इस युद्ध ने बदल दी देश की राजनीतिक व्यवस्था..
4. दसराज्य युद्ध : इस युद्ध की चर्चा ऋग्वेद में मिलती है। यह रामायणकाल की बात है। दसराज्य युद्ध त्रेतायुग के अंत में लड़ा गया। माना जाता है कि राम-रावण युद्ध के 150 वर्ष बाद यह युद्ध हुआ था। ऋग्वेद के सातवें मंडल में इस युद्ध का वर्णन मिलता है।
इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध आधुनिक पाकिस्तानी पंजाब में परुष्णि नदी (रावी नदी) के पास भारतों और पुरुओं के बीच हुआ था। दोनों ही हिन्द-आर्यों के 'भरत' नामक समुदाय से संबंध रखते थे। हालांकि पुरुओं के नेतृत्व में से कुछ को अनार्य माना जाता था। इस युद्ध में भरतों की जीत हुई थी।
दुनिया का सबसे भयानक युद्ध, जिसने सब कुछ नष्ट कर दिया...
5. महाभारत युद्ध : कुरुक्षेत्र में पांडवों और कौरवों के बीच आज से 5000 वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध हुआ था। 18 दिन तक चले इस युद्ध में भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश अर्जुन को दिया था।
कृष्ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व (अर्थात आज से 5121 वर्ष पूर्व) हुआ। महाभारत का युद्ध 22 नवंबर 3067 ईसा पूर्व को हुआ था। उस वक्त भगवान कृष्ण 55-56 वर्ष के थे।
इस युद्ध का सबसे भयानक परिणाम हुआ। धर्म और संस्कृति का लगभग नाश हो गया। लाखों लोग मारे गए, उसी तरह लाखों महिलाएं विधवाएं हो गईं और उतने ही अनाथ।
इस युद्ध से टूट गया भारत का किला...
इस युद्ध से देश में राज कायम हुआ आम लोगों का...
7. चंद्रगुप्त-धनानंद युद्ध : चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य (322 से 298 ईपू तक) का धनानंद से जो युद्ध हुआ था उसने देश का इतिहास बदलकर रख दिया। एलेक्जेंडर द्वितीय जिसे भारत में अलेक्क्षेंद्र कहा जाता था, वह बिगड़कर सिकंदर हो गया। जब सिकंदर का भारत पर आक्रमण हुआ था तब भारत का आर्यावर्त खंड ईरान की सीमाओं तक फैला था लेकिन यह आर्यावर्त खंड टुकड़ों में बंटा था।
प्राचीन भारत के अनेक जनपदों में से एक था महाजनपद- मगध। मगध का राजा था धनानंद। इस युद्ध के बारे में सभी जानते हैं। मगध पर क्रूर धनानंद का शासन था, जो बिम्बिसार और अजातशत्रु का वंशज था। सबसे शक्तिशाली शासक होने के बावजूद उसे अपने राज्य और देश की कोई चिंता नहीं थी। अति विलासी और हर समय राग-रंग में मस्त रहने वाले इस क्रूर शासक को पता नहीं था कि देश की सीमाएं कितनी असुक्षित होकर यूनानी आक्रमणकारियों द्वारा हथियाई जा रही हैं। हालांकि 16 महाजनपदों में बंटे भारत में उसका जनपद सबसे शक्तिशाली था। अंतत: चंद्रगुप्त ने उसके शासन को उखाड़ फेंका और मौर्य वंश की स्थापना की।
इस युद्ध के बाद भारतीय धर्म और संस्कृति का पतन शुरू हुआ...
8. सम्राट अशोक और कलिंग युद्ध : चंद्रगुप्त मौर्य के काल में फिर से भारतवर्ष एक सूत्र में बंधा और इस काल में भारत ने हर क्षेत्र में प्रगति की। चंद्रगुप्त के कार्यों को ही गुप्त वंश ने आगे बढ़ाया। सम्राट अशोक (ईसा पूर्व 269-232) प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिंदुसार का पुत्र था, जिसका जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में माना जाता है। भाइयों के साथ गृहयुद्ध के बाद अशोक को राजगद्दी मिली।
उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से 5 किलोमीटर दूर कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुंचा। 260 ईपू में अशोक ने कलिंगवसियों पर आक्रमण किया तथा उन्हें पूरी तरह कुचलकर रख दिया। युद्ध की विनाशलीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वे प्रायश्चित करने के प्रयत्न में बौद्ध धर्म अपनाकर भिक्षु बन गए। अशोक के भिक्षु बन जाने के बाद भारत के पतन की शुरुआत हुई और भारत फिर से धीरे-धीरे कई जनपदों और राज्यों में बंट गया।
यह था भारत का स्वर्ण काल..
9. गुप्तवंश : मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया। मौर्योत्तर काल के उपरांत तीसरी शताब्दी ई. में तीन राजवंशों का उदय हुआ जिसमें मध्यभारत में नाग शक्ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं। इन सभी में गुप्तकाल को भारत का स्वर्णकाल माना जाता है। गुप्तों ने अच्छे से शासन किया और भारत को बाहरी आक्रमण से बचाए रखा।
गुप्तवंश में चंद्रगुप्त द्वितीय हुआ जिन्हें विक्रमादित्य भी कहा जाता था, ने भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाया। श्रीगुप्त, घटोट्कच गुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त, नरसिंहगुप्त, कुरगुप्त द्वितीय और अंत में बुद्धगुप्त हुए। इन सभी के दम पर जैसे-तैसे उत्तर भारत आक्रमणकारियों से बचा रहा।
हर्षवर्धन ( 606 ई.- 647 ई.) : इसके बाद अंतिम राजा था हर्षवर्धन जिसने भारत पर राज कर भारत को विदेशी आक्रमणकारियों से बचाए रखा। हर्ष के विषय में हमें बाणभट्ट के हर्षचरित से व्यापक जानकारी मिलती है। हर्ष ने लगभग 41 वर्ष शासन किया। इन वर्षों में हर्ष ने अपने साम्राज्य का विस्तार जालंधर, पंजाब, कश्मीर, नेपाल एवं बल्लभीपुर तक कर लिया। इसने आर्यावर्त को भी अपने अधीन किया। हर्ष को बादामी के चालुक्यवंशी शासक पुलकेशिन द्वितीय से पराजित होना पड़ा। ऐहोल प्रशस्ति (634 ई.) में इसका उल्लेख मिलता है।
इस युद्ध से भारतवर्ष के विखंडन की शुरुआत....
10. खलीफाओं का आक्रमण : लगभग 632 ई. में 'हजरत मुहम्मद' की वफात (मृत्यु) के बाद 6 वर्षों के अंदर ही उनके उत्तराधिकारियों ने सीरिया, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका, स्पेन एवं ईरान को जीत लिया। इस समय खलीफा साम्राज्य फ्रांस के लायर नामक स्थान से लेकर आक्सस एवं काबुल नदी तक फैल गया था।
वफात के बाद 'खिलाफत' की संस्था का गठन हुआ, जो इस बात का निर्णय करती थी कि इस्लाम का उत्तराधिकारी कौन है। मुहम्मद साहब के दोस्त अबू बकर को मुहम्मद का उत्तराधिकारी घोषित किया गया। पहले चार खलीफाओं ने मुहम्मद से अपने रिश्तों के कारण खिलाफत हासिल की। उनमें से उमय्यदों और अब्बासियों के काल में इस्लाम का विस्तार हुआ। अब्बासियों ने ईरान और अफगानिस्तान में अपनी सत्ता कायम की। ईरान के पारसियों को या तो इस्लाम ग्रहण करना पड़ा या फिर वे भागकर सिंध में आ गए।
भारत में इस्लाम का आगाज...
11. मुहम्मद बिन कासिम (711-715 ई.) : खलीफाओं के ईरान और फिर अफगानिस्तान पर कब्जा करने के बाद वहां की हिन्दू, पारसी और बौद्ध जनता को इस्लाम अपनाने पर मजबूर करने के बाद अरबों ने भारत के बलूच, सिंध, पंजाब की ओर रुख किया।
सिंध पर तब ब्राह्मण राजा दाहिर का शासन था। आक्रमणों के समय राजा दाहिर का शासन धार्मिक सहिष्णुता और उदार विचारों वाला था जिसके कारण विभिन्न धर्म शांतिपूर्वक रहते थे; जहां हिन्दुओं के मंदिर, पारसियों के अग्नि मंदिर, बौद्ध स्तूप और अरब से आकर बस गए मुसलमानों की मस्जिदें थीं। अरब मुसलमानों को समुद्र के किनारे पर बसने की अनुमति दी गई थी। जहां से अरबों से व्यापार चलता था, लेकिन इन अरबों ने राजा के साथ धोखा किया।
मुहम्मद बिन कासिम एक नवयुवक अरब सेनापति था। उसे इराक के प्रांतपति अल हज्जाज ने सिन्ध के शासक दाहिर को दण्ड देने के लिए भेजा था। लगभग 712 में अल हज्जाज के भतीजे एवं दामाद मुहम्मद बिन कासिम ने 17 वर्ष की आयु में सिन्ध के अभियान का सफल नेतृत्व किया। इसने सिंध और आसपास बहुत खून-खराबा किया और पारसी व हिन्दुओं को पलायन करने पर मजबूर कर दिया।
सिन्ध के कुछ किलों को जीत लेने के बाद बिन कासिम ने इराक के प्रांतपति अपने चाचा हज्जाज को लिखा था- ‘सिवस्तान और सीसाम के किले पहले ही जीत लिए गए हैं। गैर मुसलमानों का धर्मांतरण कर दिया गया है या फिर उनका वध कर दिया गया है। मूर्ति वाले मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी गई हैं, बना दी गई हैं। -किताब 'चच नामा अल कुफी' (खण्ड 1 पृष्ठ 164), लेखक एलियट और डाउसन।
देवल, नेऊन, सेहवान, सीसम, राओर, आलोर, मुल्तान आदि पर विजय प्राप्त कर कासिम ने यहां अरब शासन और इस्लाम की स्थापना की।
भारत के सभी शहरों पर आक्रमण..
12. महमूद गजनी (997-1030) : महमूद गजनवी यमनी वंश का तुर्क सरदार गजनी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था। महमूद ने सिंहासन पर बैठते ही हिन्दूशाहियों के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। महमूद ने पहला आक्रमण हिन्दू शाही राजा 'जयपाल' के विरुद्ध 29 नवंबर सन् 1001 में किया। उन दोनों में भीषण युद्ध हुआ, परंतु महमूद की जोशीली और बड़ी सेना ने जयपाल को हरा दिया। फिर हिन्दूशाही राजधानी 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) में महमूद और आनंदपाल के बीच 1008-1009 ई. में भीषण युद्ध हुआ। इन लड़ाइयों में पंजाब पर अब गजनवियों का पूर्ण अधिकार हो गया। इसके बाद मुल्तान की बारी आई। वहां पर भी सं. 1071 में हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो गया।
इसके बाद के आक्रमणों में उसने मुल्तान, लाहौर, नगरकोट और थानेश्वर तक के विशाल भू-भाग में खूब मार-काट की तथा हिन्दुओं को जबर्दस्ती इस्लाम अपनाने पर मजबूर किया। फिर सं. 1074 में कन्नौज के विरुद्ध युद्ध हुआ था। उसी समय उसने मथुरा पर भी आक्रमण किया और उसे बुरी तरह लूटा और वहां के मंदिरों को तोड़ दिया। उस वक्त मथुरा के समीप महावन के शासक कुलचंद के साथ उसका युद्ध हुआ। कुलचंद ने उसके साथ भयंकर युद्ध किया।
गजनी के इस सुल्तान महमूद ने 17 बार भारत पर चढ़ाई की। मथुरा पर उसका 9वां आक्रमण था। उसका सबसे बड़ा आक्रमण 1026 ई. में काठियावाड़ के सोमनाथ मंदिर पर था। देश की पश्चिमी सीमा पर प्राचीन कुशस्थली और वर्तमान सौराष्ट्र (गुजरात) के काठियावाड़ में सागर तट पर सोमनाथ महादेव का प्राचीन मंदिर है।
महमूद ने सोमनाथ मंदिर का शिवलिंग तोड़ डाला। मंदिर को ध्वस्त किया। हजारों पुजारी मौत के घाट उतार दिए और वह मंदिर का सोना और भारी खजाना लूटकर ले गया। अकेले सोमनाथ से उसे अब तक की सभी लूटों से अधिक धन मिला था। उसका अंतिम आक्रमण 1027 ई. में हुआ। उसने पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया था और लाहौर का नाम बदलकर महमूदपुर कर दिया था। महमूद के इन आक्रमणों से भारत के राजवंश दुर्बल हो गए और बाद के वर्षों में मुस्लिम आक्रमणों के लिए यहां का द्वार खुल गया।
मुहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान, अगले पन्ने पर..
3. मुहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान : मुहम्मद गौरी 12वीं शताब्दी का अफगान योद्धा था, जो गजनी साम्राज्य के अधीन गोर नामक राज्य का शासक था। मुहम्मद गौरी 1173 ई. में गोर का शासक बना। जिस समय मथुरा मंडल के उत्तर-पश्चिम में पृथ्वीराज और दक्षिण-पूर्व में जयचंद्र जैसे महान नरेशों के शक्तिशाली राज्य थे, उस समय भारत के पश्चिम- उत्तर के सीमांत पर शाहबुद्दीन मुहम्मद गौरी (1173 ई.- 1206 ई.) नामक एक मुसलमान सरदार ने महमूद गजनवी के वंशजों से राज्याधिकार छीनकर एक नए इस्लामी राज्य की स्थापना की थी।
मुहम्मद गौरी ने अपना पहला आक्रमण 1191 ई. में मुल्तान पर किया था जिसमें वहां के मुसलमान शासक को पराजित होना पड़ा। उससे उत्साहित होकर उसने अपना दूसरा आक्रमण 1192 ई. में गुजरात के बघेल राजा भीम द्वितीय की राजधानी अन्हिलवाड़ा पर किया, किंतु राजपूत वीरों की प्रबल मार से वह पराजित हो गया।
बाद में उसने अपना रास्ता बदलकर पेशावर और पंजाब होकर अपने विजय अभियान का आयोजन किया। उस काल में पेशावर और पंजाब के शासक महमूद के वंशज थे। सं. 1226 में पेशावर पर आक्रमण कर वहां के गजनवी शासक को परास्त किया। उसके बाद उसने पंजाब के अधिकांश भाग को गजनवी के वंशजों से छीन लिया और वहां पर अपनी सृदृढ़ किलेबंदी कर हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करने की तैयारी की।
किंवदंतियों के अनुसार गौरी ने 18 बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था जिसमें 17 बार उसे पराजित होना पड़ा। किसी भी इतिहासकार को किंवदंतियों के आधार पर अपना मत बनाना कठिन होता है।
माना जाता है कि गौरी ने पृथ्वीराज चौहान पर 18 बार आक्रमण किया था, जिसमें से 17 बार उसे पराजित होना पड़ा और 17 बार ही पृथ्वीराज चौहान से उसे छोड़ दिया। लेकिन इस विषय में इतना निश्चित है कि गौरी और पृथ्वीराज में कम से कम दो भीषण युद्ध अवश्य हुए थे। इनमें प्रथम में गौरी को परायज का सामना करना पड़ा जबकि दूसरे युद्ध में कन्नौज नरेश जयचंद्र की मदद से उसने पृथ्वीराज को हरा दिया था। ये दोनों युद्ध थानेश्वर के निकटवर्ती 'तराइन' या 'तरावड़ी' के मैदान में क्रमशः सं. 1247 और 1248 में हुए थे।
इस युद्ध के अप्रत्याशित परिणाम हुए। गौरी तो वापस आ गया पर अपने दासों (गुलामों) को वहां का शासक नियुक्त कर आया। कुतुबुद्दीन ऐबक उसके सबसे काबिल गुलामों में से एक था जिसने एक साम्राज्य की स्थापना की जिसकी नींव पर मुस्लिमों ने लगभग 900 सालों तक राज किया। दिल्ली सल्तनत तथा मुगल राजवंश उसी की आधारशिला के परिणाम थे।