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Last Modified: शनिवार, 29 जुलाई 2023 (16:24 IST)

ये हैं प्राचीन भारत के 10 सबसे अमीर और शक्तिशाली साम्राज्य

ये हैं प्राचीन भारत के 10 सबसे अमीर और शक्तिशाली साम्राज्य - 10 Powerful Kingdoms of India
10 Powerful Kingdoms of India: प्राचीन भारत एक समृद्धि और शाक्तिशाली भारत था। दुनिया का संपूर्ण व्यापार और राजनीति के केंद्र उस काल में भारत ही हुआ करता था। तब भारत की सीमाओं का विस्तार हिन्दू कुश पर्वत माला से अरुणाचल की पर्वत माला तक और कैलाश पर्वत से कन्या कुमारी के पार समुद्र पर्यंत तक भारत ही हुआ करता था। आओ भारत के 10 सबसे अमीर और शक्तिशाली साम्राज्य के नाम जानते हैं।
 
राजा प्रियव्रत, राजा भरत, राजा वैवस्वत मनु, राजा हरिशचंद्र, राजा सुदास, राजा पुरु, राजा यदु, राजा द्रुहु, राजा आनव, भगवान राम, द्वारिकाधीश कृष्ण, चक्रवर्ती युधिष्ठिर, राजा निचक्षु, नंद साम्राज्य आदि कई लोगों का भारत में चक्रवर्ती राज रहा है। आओ जानते हैं कि उसके बाद किन राजाओं का रहा शक्तिशाली साम्राज्य। 
 
1. विक्रमादित्य का साम्राज्य : विक्रम संवत अनुसार अवंतिका (उज्जैन) के महाराजाधिराज राजा विक्रमादित्य आज से 2294 वर्ष पूर्व हुए थे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। कहना चाहिए कि नौ रत्न रखने की परंपरा का प्रारंभ उन्होंने ही किया था। महाकवि कालिदास की पुस्तक ज्योतिर्विदभरण के अनुसार उनके पास 30 मिलियन सैनिकों, 100 मिलियन विभिन्न वाहनों, 25 हजार हाथी और 400 हजार समुद्री जहाजों की एक सेना थी। उनके ही नाम से वर्तमान में भारत में विक्रम संवत प्रचलित है उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय हुए जिन्हें चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य कहा गया। विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 15वीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य 'हेमू' हुए। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के बाद 'विक्रमादित्य पंचम' सत्याश्रय के बाद कल्याणी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने लगभग 1008 ई. में चालुक्य राज्य की गद्दी को संभाला। राजा भोज के काल में यही विक्रमादित्य थे।
 
2. मौर्य साम्राज्य : सम्राट चन्द्रगुप्त को चन्द्रगुप्त महान (340 – 298 BCE)  कहा जाता है। सिकंदर के काल में हुए चन्द्रगुप्त ने सिकंदर के सेनापति सेल्युकस को दो बार बंधक बनाकर छोड़ दिया था। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु चाणक्य थे। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस की पुत्री हेलन से विवाह किया था। चन्द्रगुप्त की एक भारतीय पत्नी दुर्धरा थी जिससे बिंदुसार का जन्म हुआ। चन्द्रगुप्त ने अपने पुत्र बिंदुसार को गद्दी सौंप दी थीं। बिंदुसार के समय में चाणक्य उनके प्रधानमंत्री थे। इतिहास में बिंदुसार को ' महान पिता का पुत्र और महान पुत्र का पिता' कहा जाता है, क्योंकि वे चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र और राजा अशोक महान के पिता थे। 
 
3. गुप्त साम्राज्य : गुप्त साम्राज्य के दो महत्वपूर्ण राजा हुए। पहले समुद्रगुप्त और दूसरे चंद्रगुप्त द्वितीय। शुंग वंश के पतन के बाद सनातन संस्कृति की एकता को फिर से एकजुट करने का श्रेय गुप्त वंश के लोगों को जाता है। गुप्त वंश की स्थापना 320 ई. लगभग चंद्रगुप्त प्रथम ने की थी और 510 ई. तक यह वंश शासन में रहा। इस वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए। नृसिंहगुप्त बालादित्य (463-473 ई.) को छोड़कर सभी गुप्तवंशी राजा वैदिक धर्मावलंबी थे। लादित्य ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। गुप्त वंश के सम्राटों में क्रमश: श्रीगुप्त, घटोत्कच, चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (महेंद्रादित्य) और स्कंदगुप्त हुए। स्कंदगुप्त के समय हूणों ने कंबोज और गांधार (उत्तर अफगानिस्तान) पर आक्रमण किया था। हूणों ने अंतत: भारत में प्रवेश करना शुरू किया। हूणों का मुकाबला कर गुप्त साम्राज्य की रक्षा करना स्कन्दगुप्त के राज्यकाल की सबसे बड़ी घटना थी। स्कंदगुप्त और हूणों की सेना में बड़ा भयंकर मुकाबला हुआ और गुप्त सेना विजयी हुई।
 
4. हर्ष साम्राज्य : कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन ने लगभग आधी शताब्दी तक अर्थात् 590 ईस्वी से लेकर 647 ईस्वी तक अपने राज्य का विस्तार किया। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनीतिक स्थिरता प्रदान की। कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी 'हर्षचरित' में उसे 'चतुःसमुद्राधिपति' एवं 'सर्वचक्रवर्तिनाम धीरयेः' आदि उपाधियों से अलंकृत किया।
5. चालुक्य राजवंश साम्राज्य : चालुक्य राजवंश में सबसे शक्तिशाली पुलकेशिन द्वितीय था। जिसका शासनकाल 609-642 ईस्वी के मध्य का माना जाता है। कहते हैं कि पुलकेशिन ने गृहयुद्ध में चाचा मंगलेश पर विजय प्राप्त कर सत्ता कर कब्जा किया था। उसने श्री पृथ्वीवल्लभ सत्याश्रय की उपाधि से अपने को विभूषित किया था। पुलकेनिश ने कई राजाओं को परास्त कर उनकी क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। जैसे राष्ट्रकूट राजा गोविन्द, लाट, मालवा व भृगुकच्छ के गुर्जरों को भी उसने हराया था। उसने कदम्बों को हराया, मैसूर के गंगों व केरल के अलूपों को भी पछाड़ दिया था। कोंकण की राजधानी पुरी पर भी कब्जा जमा लिया था। पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन को पराजित कर कांची तक उसने अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था। उससे भयभीत होकर चेर, चोल व पाण्ड्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। उसने नर्मदा से कावेरी के तट के सभी प्रदेशों पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया लिया था। इस प्रकार दक्षिण के एक बड़े भू-भाग पर उसका शासन था। राजा हर्षवर्धन ने जब उसकी बढ़ती शक्ति देखी तो उन्हें पीछे हटा पड़ा था।
 
5. चोल राजवंश का साम्राज्य : इस चोल वंश का संस्थापक विजयालय (850-870-71 ई.) इस राजवंश में राजराजा चोल और उनके पुत्र राजेंद्र चोल के शासन में शासन किया। राजा राज को अन्य निर्माणों के अलावा तमिलनाडु के तंजावुर में बृहदीश्वर मंदिर के निर्माण के लिए जाना जाता है। तमिल चोल शासकों ने 9 वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी के बीच एक अत्यंत शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य का निर्माण किया।  
 
6. पल्लव साम्राज्य : ऐसा माना जाता है कि पल्लवों द्वारा स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के पूर्व वे सातवाहनों के राजा के सामान्य थे। पल्लवों का शासन बाद में कांची से ही प्रारंभ हुआ। उनका शासन क्षेत्र तमिल और तेलगु था। उन्हीं के राज्य में महान दार्शनिक बोधिवर्मन थे, जिन्हें पंलववंशी ही माना गया है। पल्वलवंशी की राजधानी कांची (तमिलनाडु में कांचीपुरम) थी। विष्णुगोप के बाद जिस पल्लव राजा का इतिहास में उल्लेख मिलता है उसका नाम है सिंह विष्णु (575-600 ई.)। पल्लव राजवंश का श्रीगणेश इसी से होता है। सिंहविष्णु के बाद उसका पुत्र महेंद्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.) में सम्राट बना। सिंहविष्णु के बाद उसका पुत्र महेंद्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.) में सम्राट बना। उसके काल में चालुक्यों से उसका संघर्ष होता रहता था। परंतु उसकी सेना ने कभी भी हार नहीं मानी। महेंद्रवर्मन प्रथम के शासन काल में एक बार चालुक्य सम्राट पुलकेशिन् द्वितीय की सेना पल्लव राजधानी के एकदम करीब पहुंच गई थी। परंतु सम्राट की सेना ने बहादुरी से मुकाबला किया और पुल्ललूर के युद्ध में चालुक्यों को बुरी तरह से पराजित कर दिया। इसी के साथ ही पल्लवों ने साम्राज्य के कुछ उत्तरी भागों को छोड़कर शेष सभी की पुनर्विजय कर ली। पल्लवों के सामंत आदित्य प्रथम ने अपनी शक्ति बढ़ाई और 893 ईस्वी के लगभग अपराजित को पराजित कर पल्लव साम्राज्य को चोल राज्य में मिला लिया। 
king raja
7. पाल राजवंश : हर्षवर्धन के बाद भारत में पाल, प्रातिहार और राजपूतों का शासन रहा जबकि दक्षिण में राष्ट्रकूट वंश का शासन था। उक्त सभी के बाद फिर भारत में मराठा, मुगल और सिखों का साम्राज्य रहा जबकि दक्षिण में बहमनी, निजामशाहियों, विजयनगर साम्राज्य, काकतिया साम्राज्य आदि का राज रहा। हर्ष के समय के बाद से उत्तरी भारत के प्रभुत्व का प्रतीक कन्नौज माना जाता था। बाद में यह स्थान दिल्ली ने प्राप्त कर लिया। पाल साम्राज्य की नींव 750 ई. में 'गोपाल' नामक राजा ने डाली। पाल वंश का सबसे बड़ा सम्राट 'गोपाल' का पुत्र 'धर्मपाल' था। इसने 770 से लेकर 810 ई. तक राज्य किया। पहले प्रतिहार शासक 'वत्सराज' ने धर्मपाल को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पर इसी समय राष्ट्रकूट सम्राट 'ध्रुव', जो गुजरात और मालवा पर प्रभुत्व के लिए प्रतिहारों से संघर्ष कर रहा था, उसने उत्तरी भारत पर धावा बोल दिया। कड़े संघर्ष के बाद उसने नर्मदा पार कर आधुनिक झांसी के निकट वत्सराज को युद्ध में पराजित किया। इसके बाद उसने आगे बढ़कर गंगा घाटी में धर्मपाल को हराया। इन विजयों के बाद यह राष्ट्रकूट सम्राट 790 में दक्षिण लौट आया।
 
8. सम्राट मिहिर भोज का साम्राज्य : गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना नागभट्ट नामक एक सामंत ने 725 ई. में की थी। उसने राम के भाई लक्ष्मण को अपना पूर्वज बताते हुए अपने वंश को सूर्यवंश की शाखा सिद्ध किया। विद्वानों का मानना है कि इन गुर्जरों ने भारतवर्ष को लगभग 300 साल तक अरब-आक्रांताओं से सुरक्षित रखकर प्रतिहार (रक्षक) की भूमिका निभाई थी। वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय राजसिंहासन पर बैठा। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा भोज प्रथम था, जो कि मिहिरभोज के नाम से भी जाना जाता है और जो नागभट्ट द्वितीय का पौत्र था। 
 
सम्राट मिहिर भोज कन्नौज के सम्राट थे। उन्होंने 836 ईस्वीं से 885 ईस्वीं तक 49 साल के लंबे समय तक शासन किया था। सम्राट मिहिरभोज की पत्नी का नाम चंद्रभट्टारिका देवी था। मिहिरभोज की वीरता के किस्से पूरी दुनिया मे मशहूर हुए। उन्होंने बंगाल के राजा देवपाल के पुत्र नारायण लाल को परास्त कर उत्तरी बंगाल को अपने साम्राज्य में मिला लिया था। दक्षिण के राष्ट्रकुट राजा अमोघवर्ष को पराजित कर दिया था। सिन्ध के अरब शासक इमरान बिन मूसा को पराजित करके सिन्ध को अपने साम्राज्य में मिला लिया था और मुल्तान के मुस्लिम शासक को वे अपने नियंत्रण में रखते थे। कन्नौज पर अधिकार के लिए बंगाल के पाल, उत्तर भारत के प्रतिहार और दक्षिण भारत के राष्ट्रकूट शासकों के बीच लगभग 100 वर्षों तक संघर्ष होता रहा जिसे इतिहास में 'त्रिकोणात्मक संघर्ष' कहा जाता है। कहते हैं कि मिहिर भोज ने काबुल के राजा ललिया शाही को तुर्किस्तान के आक्रमण से बचाया था। दूसरी ओर नेपाल के राजा राघवदेव को तिब्बत के आक्रमणों से बचाया था। परंतु उनकी पालवंशी राजा देवपाल और दक्षिण के राष्‍ट्‍कूट राजा अमोघवर्ष शत्रुता चलती रहती थी।
 
9. भोज साम्राज्य : कुछ विद्वान मानते हैं कि महान राजा भोज (भोजदेव) का शासनकाल 1010 से 1053 तक रहा। राजा भोज ने अपने काल में कई मंदिर बनवाए। राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है। धार की भोजशाला का निर्माण भी उन्होंने कराया था। कहते हैं कि उन्होंने ही मध्यप्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाया था जिसे पहले 'भोजपाल' कहा जाता था। इनके ही नाम पर भोज नाम से उपाधी देने का भी प्रचलन शुरू हुआ जो इनके ही जैसे महान कार्य करने वाले राजाओं की दी जाती थी। राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं। मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे थे। आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 
 
10. विजयनगर साम्राज्य : राजा कृष्ण देवराय का जन्म 16 फरवरी 1471 ईस्वी को कर्नाटक के हम्पी में हुआ था। उनके पिता का नाम तुलुवा नरसा नायक और माता का नाम नागला देवी था। उनके बड़े भाई का नाम वीर नरसिंह था। कृष्ण देवराय को 'आंध्र भोज' की उपाधि प्राप्त थी। इसके अलावा उन्हें ‘अभिनव भोज’, और ‘आन्ध्र पितामह’ भी कहा जाता था। बाजीराव की तरह ही कृष्ण देवराय एक अजेय योद्धा एवं उत्कृष्ट युद्ध विद्या विशारद थे। इस महान सम्राट का साम्राज्य अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक भारत के बड़े भूभाग में फैला हुआ था जिसमें आज के कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, केरल, गोवा और ओडिशा प्रदेश आते हैं। महाराजा के राज्य की सीमाएं पूर्व में विशाखापट्टनम, पश्चिम में कोंकण और दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप के अंतिम छोर तक पहुंच गई थीं।
 
 
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