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Last Updated : सोमवार, 31 मई 2021 (21:44 IST)

श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञान गंगा : निरन्तरं वर्द्धताम्- आगे बढ़ते रहो- 1

श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञान गंगा : निरन्तरं वर्द्धताम्- आगे बढ़ते रहो- 1 - Shrimad Bhagvadgita
प्रभाग प्रथम:
महाभारत का एक हिस्सा है श्रीमद्भगवद्गीता। इस पर हजारों लोगों ने भाष्य लिखे और इसे अपने अपने तरीके से समझाया। विश्व में सर्वाधिक लेखन गीता के ज्ञान पर ही हुआ है। गीता पर विश्वभर में अनेकों व्याख्‍यान, भाष्य, टिकाएं लिखी गई और जिसने उसे जैसा समझा वैसा लिखा या प्रवचन दिया। आओ जानते हैं विश्व युवा पीढ़ी के उत्कृष्टतम सर्वांगीण विकास के लिये श्रीकृष्ण प्रणीत भगवद्गीता का डॉ. शाण्डिल्य डॉ. व्यास अभिनव शुभ ज्ञान चिन्तन।

 
 
प्रभाग द्वितीय:
औरों को हंसते देखो मनु, हंसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो सबको सुखी बनाओ
- जय शंकर प्रसाद
 
।।सुदर्शन नीति।।
वर्द्धतां वर्द्धतां नित्यं एतदेव हि जीवनम्।
चरैवेति चरैवेति वेदज्ञानप्रवर्तनम्।।
अर्थात : बढ़ते रहो बढ़ते रहो, इसकी निरन्तरता का नाम ही जीवन है। चरैवेति चरैवेति (निश्चित रूप  से अनुकूल प्रतिकूल सुख दुःख) की प्राप्त परिस्थितिजन्य अवस्थाओं में निरन्तर बढ़ने का सन्देश वेद प्रवर्तित अग्रसर है।
- डॉ सुदर्शन श्री निवास शाण्डिल्य:
 
 
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। 
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।- ।14।।-कठोपनिषद् (कृष्ण यजुर्वेद)
अर्थात : उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो। विद्वान् मनीषी जनों का कहना है कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है, जिस प्रकार छुरे के पैनी की गई धार पर चलना।
 
(हे मनुष्यों) उठो, जागो (सचेत हो जाओ)। श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों को प्राप्त (उनके पास जा) करके ज्ञान प्राप्त करो। त्रिकालदर्शी (ज्ञानी पुरुष) उस पथ (तत्वज्ञान के मार्ग) को छुरे की तीक्ष्ण (लांघने में कठिन) धारा के (के सदृश) दुर्गम (घोर कठिन) कहते हैं।
 
(स्वामी विवेकानन्द जी ने भी इसी वेद वाक्य से भारत और वसुन्धरा वासियों को जागृत किया है। यह वेद मन्त्र अमृत तुल्य है।)
 
चारित्रिक बल से आदर्श भारत राष्ट्र का नेतृत्व
 
।।पूर्णानन्दम।।
-वेदर्षि पण्डित पूर्णानन्द व्यास
उत्तम मानव जो उत्तम कार्य करे।
आचरण अन्य भी वही करे।।
उत्तमजन के प्रमाणिक मार्ग पर।
मानव जन शुभ अनुवर्तन करे।।

 
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।- (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3, श्लोक 21)
 
विश्व का कोई भी देश मात्र आर्थिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति से उन्नत नहीं हो जाता। जब तक कि वह आध्यात्मिक एवं नैतिक रूप से सबल नहीं हो, उसकी प्रगति अधूरी ही है। वर्तमान में भारत के पास सब कुछ है, परन्तु क्रमशः नई पीढ़ी जिन पर राष्ट्र के उत्थान की महान उत्तरदायित्व है, उनमें नैतिक और चारित्रिक बल की कमी सुस्पष्ट रूप से दृष्टिगचर हो रही है। अत: भारत देश की युवा पीढ़ी को चरित्रवान बनकर नैतिक एवम आदर्श नेतृत्व प्रदान करना ही होगा। भगवद्गीता के इस हीरे जैसे अमृत मन्त्र को युवा पीढ़ी ने अपने अवचेतन मन मे आजीवन अंगीकार करना ही है कि "जो श्रेष्ठ पुरुष आचरण करते हैं, उसी को अन्य मानव भी अनुसरण करते हैं। अपने आचरण से ऐसे मूल्य स्थापित करने चाहिए जिनसे अन्य लोग प्रेरणा ले सकें।"
 
 
आइये इस दिव्य मन्त्र का विवेचन को अपने अवचेतन मन में आत्मसात करें। यह निश्चित रूप से स्वभाव सिद्ध है कि श्रेष्ठ महापुरुष ही अनुवर्तन - पालन के श्रेष्ठ निर्धारक होते हैं। इसीलिये भगवान कृष्ण ने धर्म योग के अनुपालन के लिये महापुरुषों को अग्रसर होने के लिये विशेष प्रेरणा- संदेश दे रहे हैं। हे अर्जुन ज्ञान के माध्यम आत्म स्वरूप को प्राप्त महापुरुष के लिये यद्यपि कर्म सापेक्ष नहीं है, तथापि अपने पीछे वाले अनुवर्ती जनों के कल्याण के लिये श्रेष्ठ कर्मों का आचरण संसार में करना ही चाहिये, जिसे देखकर अन्य उर्ध्वगामी मुमुक्षुजन कर्म करने में प्रवृत्त होंगे, क्योंकि अभी जो अद्यात्म मार्ग के पथिक हैं, एतदर्थ उनके लिये कर्म का पालन अनिवार्य है। उन कर्म समूहों में कुछ कर्म के स्वरूप को देखकर भयभीत न हो जायें। आगे श्रेष्ठ महापुरुष को देखकर निर्भीक कर्म के अनुगामी बनें। इसीलिये महापुरुषों को शास्त्र विहित श्रेष्ठ कर्मों का पालन अवश्य करना चाहिये। इससे महापुरुषों के अनुगामी, अनुयायी अद्यात्म मार्ग के पथिकों को सम्बल साधन की सुप्रेरणा मिले- सद्कर्म के अनुपालन की शक्ति का संचरण संवर्द्धन सुनिश्चित हो। इसीलिये महापुरुषों को सद्कर्म पालन का भगवान श्री कृष्ण का निर्देश है। इसके होने से संसार में कर्म स्वरूप के प्रवर्तन की निरन्तरता अक्षुण्ण रहेगी। इसी अक्षुण्णता के लिये ही महापुरुषों को श्रेष्ठ गुणों का आचरण करना ही चाहिये।
 
 
भगवद्गीता के इसी मंत्र का यथावत भाव ऋग्वेद में भी अंकित है।
 
।।सं गच्छध्वम् सं वदध्वम्।।- (ऋग्वेद 10.181.2)
अर्थात: साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करो, जिस पर पूर्वज चले हैं। 
 
प्रभाग तृतीय
अतीत व्यतीत हो चुका,हितता को लेते चलो।।
अपना भी पराया भी, सब का हित करते चलो।।
 
अपने को भी कर क्षमा, दूसरों को भी क्षमादान दो।
निष्पक्ष प्रेमभाव से, सब का हित करते चलो।।
 
दया, करुणा, परहित कृतज्ञतामय बनते चलो।
धीर्विद्या, श्रीर्विजय,समर्पण दीप बनते चलो।।
 
संयम, विश्वास, परम चेतना में ढलते चलो।
स्थितप्रज्ञता के अद्वितीय गुण में ढलते चलो।।
 
सहजता, सौम्यता, सात्विकता पथ अपनाते चलो।
आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी संरक्षित करते चलो।।
 
सर्वे भवन्तु सुखिनः वेदमय बने जीवन।
शान्ति साहस प्रसन्नतामय बने जीवन।।
 
अतीत द्वन्द्व का मिश्रण है, तिक्त मधुर का स्पन्दन है।
तिक्तमा देती क्रन्दन है, मधुरता देती नन्दन है।।
 
कभी कभी तिक्तता (समुद्र मन्थन) का, घातक विष वमन है।
अपने ही विष से किसी को, आहत मत होने दो।।
 
फलाभिमुखी निर्विघ्न नहीं होता। 
सफल सदा सफलानुगामी होता।
 
नैरन्तैर्य ही सफल सफल।
असीम पथ है विमल विमल।।
 
अविरल विमलता हो अंतर्मन में।
अवचेतन में अमृत भर लो।
अगाध विमलता की सरिता में
नूतनता क्षण क्षण बहने दो।।
 
उत्साह साधन सम्बल ऊर्जा।
इन्द्रियजात्मवृत्तिस्वसत्वोर्जा।
ऐकान्तिकवृत्तिनिष्ठोर्जासुभुजा।
लक्ष्याभिमुखी समुदूर्जाप्रवाह।
 
सद प्रवृत्ति प्रकृति कृति संवृत्ति में जीवन को आगे बढ़ने दो।।
 
प्रकट हो शुभ शुभ परहित अमृत ही अमृत।
पावें सब परहित शुभ ही शुभ अमृत ही अमृत।।
 
अग्रसरता की सरिता में मन को आगे बढने दो।
मॉनव जीवन है दुर्लभ: हर पल आगे बढ़ने दो।।
 
मां भारती के हम है सेवक अग्रणी सुपुत्र।
मां भारती के हम हैं सर्वस्व समर्पित सुपुत्र।।
 
प्रभाग चतुर्थ
मानव व्यक्तित्व का विकास
 
।।सुदर्शन नीति।।
- डॉ सुदर्शन श्री निवास शाण्डिल्यः
मानवजीवनं नित्यं, विकासाय प्रवर्तते।
विकासयतमानो हि, नरः शुभःसदा सुखी।।
 
मानव जीवन विकास के लिए ही प्राप्त है। नित्य निरन्तर शास्त्रानुमोदित विकास के लिए यत्न करने वाला मनुष्य ही सदा के लिए शुभकारक तथा सुखी रहता है।
 
 
स्वदोषदर्शनं पुण्यं, प्रभुकृपावलम्बनम्।
स्वहित यत्नस्तु, जीवनोद्धारसाधनम्।।
अर्थात : अपने दोषों का दर्शन पुण्यकर्म है। इसके साथ प्रभुकृपावलम्बन, स्व हिताय सम्पूर्ण यत्न जीवन विकास साधन है।
 
।।पूर्णानन्दम।।
वेदर्षि पण्डित पूर्णानन्द व्यास
दुःखों उद्विग्न मत हो मानव।
इन्द्रिय वासना रहित हो मानव।।
रागादिदोष विमुक्त हो मानव।
सुख-दुःख समशील हो मानव।।
 
श्रीमद्भगवादगीतामृत
दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।- श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 2, श्लोक 56)
 
1 मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास- जिस विकास में प्रेय और श्रेय की प्राप्ति की सुनिश्चितता अग्रसर हो, उसके लिये भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ होने की सुप्रेरणा दी गई है। स्थितप्रज्ञ मानव को ही 'मुनि' श्रेष्ठ शब्द से भगवान श्री कृष्ण ने प्रतिस्थापित किया है। इसका लक्षण इस निम्न शब्द परिधि में अग्रसर किया है। यथा: सभी प्रकार के दुःखों के संजोग में मन कभी भी उद्विग्न न हुआ हो।
 
 
2 सम्पूर्ण इंद्रियों के विषय सुख संयोग के प्राप्ति होने पर भी उन सुखों की प्राप्ति के लिये वासना न रहे और जिनके मन में राग भय क्रोध का निवर्तन हो चुका है अर्थात मन राग भय क्रोध से निवृत्त हो चुका है। इन उदात्त उच्च गुणों युक्त महामानव ही स्थितप्रज्ञ मुनि होते हैं। ऐसे महापुरुष- महामानव - स्थितप्रज्ञ मॉनव द्वारा लिये गये निर्णय सदैव ही सफल होते हैं- अक्षुण्ण होते हैं-आत्म कल्याण कारी होते हैं। ऐसे मानव अपना हित करते हुए सम्पूर्ण संसार के लिये हितकारक होते हैं। ऐसे महामानव ही ईश्वर के प्रिय पात्र भी होते हैं। इसी उत्कृष्ट परिधि में मानव और समाज को अवस्थित करना होगा , तभी भारत राष्ट्र संसार के विश्व गुरु की महत- सारस्वत गरिमा को प्राप्त करेगा।

 
 
।।सुदर्शन नीति।।
- डॉ सुदर्शन श्री निवास शाण्डिल्यः महाभाग:
स्वयं स्वन्त्वैव जानीयात्, परो जानातु विभ्रमः।
विभ्रमः न भवितव्यः, विभ्रमो नाशकारकः।।
अर्थात: स्वयं से स्वयं को जानो यही जीवन का प्रथम कर्तव्य है। मुझे दूसरा जाने यह अयथार्थकर मोह सर्वनाशक है।
 
।।पूर्णानन्दम।।
-वेदर्षि पण्डित पूर्णानन्द व्यास
स्वयं से स्वयं का उद्धार कर ले मानव।
स्वयं से स्वयं को पतित न कर मानव।।
स्वयं स्वयं का शत्रु न बन कभी मानव।
स्वयं ही स्वयं का सही मित्र है मानव।।

 
श्रीमद्भगवद्गीता
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।।
- श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 6, श्लोक 5)
 
व्यास भाष्य सह सुदर्शन ज्ञान संचरण
 
अपने उत्कर्ष एवं अपकर्ष के लिए मानव स्वयं उत्तरदायी होता है। दूसरे का अहित किए बिना स्वयं का उद्धार अपने प्रयत्न और बुद्धि बल से करना चाहिए। क्योंकि मनुष्य आप ही अपना मित्र और आप ही अपना शत्रु है।...आइये इस श्रेष्ठ मन्त्र का विषद विवेचन करें।
 
श्रीमद्भगवद्गीता के 700 श्लोकों में इस श्लोक का विशिष्ट महत्व है। आत्म स्वरूप की प्राप्ति के लिये बाह्य आडम्बरों से रहित अन्तरंग सशक्त अमोघ समुचित साधना का वर्णन किया गया है।
 
 
वस्तुत: आत्मा केन्द्रित मन होना चाहिये, परन्तु संसार सम्बन्ध के कारण मन संसार रत रसिक हो गया है और वह दसों ज्ञानेन्द्रियों और पांचों कर्मेन्द्रियों का नियन्त्रक बन गया है, जिसके कारण से वह आत्मा को अधीन करने का प्रयास किया है। यही आत्म हानि का मुख्य कारण है। इस हानि से त्राण- रक्षा के लिये भगवान कृष्ण का अमूल्य निर्देश है- मन से आत्मा का उद्धार करो। मन से आत्मा को पीड़ित-अवसाद ग्रस्त मत करो। जो मन संसार का साथ देता है, उसी से अवसाद -तनाव उत्पन्न होता है। ऐसे संसारासक्त मन से आत्मा को पीड़ित- व्यथित- अवसाद ग्रस्त मत करो। शरीर के बाहर संसार में शत्रु मित्र का निर्धारण मत करो। शरीर के बाहर संसार में शत्रु मित्र का निर्धारण महा भ्रम है। ए मानव- तेरे मन के भीतर ही शत्रु मित्र का  जो प्रवाह चल रहा है - उसे पहचानो।
 
आत्मानुकूल जो शुद्ध पवित्र विश्व बंधुत्व व परहित का मन है, वही तुम्हारा सच्चा मित्र है। इसका विस्तृत अर्थ यह है कि धर्म के अनुकूल- शास्त्र के अनुकूल- वेद के अनुकूल- उपनिषद के अनुकूल जो मन चलता है, सदव्यवहार करता है, यही मन सच्चा मित्र है। मित्र दो शब्दों से बना है 'मि' और 'त्र'। 'मि' अर्थात मिलकर जो सब तरह से 'त्र' त्राण करे-रक्षा करे, वही मित्र होता है। वह सच्चा मित्र धर्मानुकूल मन ही होता है और धर्म के जो प्रतिकूल है, वही मन तुम्हारा शत्रु है। यहां धर्म से शास्वत धर्म परमात्मा को लेना चाहिये अर्थात परमात्मा के प्रतिकूल मन ही आत्मा का शत्रु है। इसी परमात्मा के अनुकूल मन को करने के लिये श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता अमृत का संचार किया। तब 18 अध्याय सुनने के पश्चात ही अर्जुन ने अपना मन धर्म के अनुकूल कर लिया।

 
धनंजय कहते हैं कि "करिष्ये वचनं तव" हे कन्हैया, आज से जो भी आप कहोगे, वही करूंगा। आपके विधान में कोई भी तर्क वितर्क नहीं करूंगा और न ही दोष देखूंगा। सर्वथा निरापद होकर ही आपके वचनों- विधानों- आदेशों का यथावत पालन करूंगा। धनञ्जय की भांति मन तैयार हो जाये तो सुनिश्चित रूप से आत्म कल्याण संचरित होता ही है। ऐसे मन से सम्बन्ध रखने वाला व्यक्ति कभी भी अवसाद ग्रस्त नहीं होता है। धर्मानुकूल मन ही अवसाद की सर्वोत्कृष्ट नैसर्गिक औषधि है। और श्रीमद्भगवद्गीता के अमृतमय यह उत्कृष्ट श्लोक अवसाद की सर्वकालिक महान संजीवनी औषधि है। इस मन्त्र द्वारा धर्मानुकूल मन बनाने का श्रीकृष्ण का उत्तमतम निर्देश है।
 
लेखक : डॉ. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य (पाटलीपुत्र बिहार), डॉ. तेज प्रकाश व्यास (उज्जैन, मध्यप्रदेश)