जब तुम चित्र से बाहर होती हो
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सौमित्र सक्सेना मैंने तुम्हें कभी हिलते हुए नहीं देखा है उस वक्त भीजब तुमचित्र से बाहर होती होबहुत ठहरी हुई सी जगह लगती है मुझेतुम्हारे चेहरे की सतहमुझेसोचना नहीं पड़ता है अपनी देह खोजने के लिए देखना भी नहीं पड़ता हैइधर-उधर बेचैनी मेंप्रतीक्षा के तनाव के साथ- मैं अमूर्त हो जाता हूँतुममें खोकर फिर शांत रहता हूँघाटी की गोद में पड़ेएक गोल सफेद पत्थर सानदी की हल्की झिल्ली में तर-बतरठंडाध्यानमग्न और गतिमान।