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प्रेम
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विद्या गुप्ता मैं बचा रहूँगा देह के बगैर देह के बाद भी तुम्हारे लिए। तुमने मुझे देह समझा और ठहर गए दो पलों के बाद जैसे, मेरी उम्र सिर्फ दो पल हो। मैं अनंत हूँ पृथ्वी के इस छोर से उस छोर तक चुम्बक हूँ, दो ध्रुवों के बीच। देखो, ठूँठ पर उगी दो पत्तियों में जहाँ धरती कर रही है, उसे फिर हरा करने का सतत प्रयास। हवा, इकट्ठा कर रही है, कतरा-कतरा बादल धरती की प्यास के लिए ताप के खिलाफ। स्त्री ढो रही है तुम्हारे लिए एक वरदान कोख फाड़ कर देगी तुम्हें तुम्हारा बीज। मांस में सच है, रक्त की नदी का बहना लेकिन दूध का बहना? हाँ, यह प्रेम है।