कुछ-कुछ भूला, कुछ-कुछ पाया
जितेंद्र श्रीवास्तवफिर आज पढ़ गया मैंये चिट्ठियाँ वर्षों पुरानीअब भी ये कोमल कि जैसे उँगलियाँ तुम्हारीअब भी ये कि जैसे ताख परहो कोई दीया अनवरत अँधेरा चीरता हुआ अब भी सपने इतने निरालेइन तहरीरों में जैसे कल ही तो देखा हो इनकोअब जाकर इनमेंस्वप्न दिनों में कुछ-कुछ भूला कुछ-कुछ पायादेखो तो अब कितना ताजा दम हूँदेखो तो चमत्कार अपने स्पर्श कादेखो तो यह जीवन आँचभरी थी जो शब्दों में तुमने कभीघुल रही है रुधिर में मेरे धीरे-धीरे कि हरकत-सी हो रही है अबथमती हुई पुतलियों में।