राष्ट्रीय पर्व, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय शर्म
गणतंत्र दिवस विशेष
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत एक है। यह वाक्य बालमन पर देश की एकता और अखंडता के बीज बोने के लिए बचपन से रटाया जाता रहा है। फिर इसी देश के उसी पहले छोर पर इसी देश का राष्ट्रीय ध्वज फहराने की अनुमति नहीं मिलती। आइए इसे कुछ यूँ जानते हैं: देश- भारत, राष्ट्रीय ध्वज-तिरंगा, राज्य-जम्मू कश्मीर। गर्मियों की राजधानी-श्रीनगर। श्रीनगर का लाल चौक। राष्ट्रीय पर्व-गणतंत्र दिवस। इस गणतंत्र दिवस पर 'गण' की इच्छा है कि वह अपना 'तंत्र' सिद्ध करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में तिरंगा फहराए और उसी में एक नाम श्रीनगर के लाल चौक का भी है। अचानक एक बवाल उठता है। एक ऐसा बवाल कि देश के प्रधानमंत्री को भी कहना पड़ता है कि यह नहीं हो सकता क्योंकि शांति को खतरा होगा। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री का बयान आता है कि अगर कुछ गड़बड़ होगी तो जिम्मेदार वह नहीं होंगे और बयान आता है जम्मू एवं कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट के प्रमुख मोहम्मद यासीन मलिक का कि देखते हैं कौन फहराता है तिरंगा अगर ऐसा हुआ तो कश्मीर फिर सुलग उठेगा। स्वतंत्र भारत की यह कैसी 'स्वतंत्रता' है कि हम अपने देशप्रेम की अभिव्यक्ति के लिए भी अलगाववादियों और आतंकवादियों की मंशा पर निर्भर हैं। बात महज इतनी है कि देश के ही कुछ लोग कुछ खास स्थानों पर इस राष्ट्रीय दिवस पर तिरंगा फहराना चाहते हैं। और दुखद आश्चर्य कि उन्हें अपने ही देश में ऐसा करने की अनुमति लेनी पड़ रही है और उससे भी दुखद कि उन्हें यह अनुमति मिल नहीं रही है।यह बुलंद भारत की कैसी कमजोर तस्वीर है कि अपने 'राष्ट्रीय पर्व' पर 'राष्ट्र' पर 'गर्व' करने के लिए भी हमें डरते हुए पहले विरोधी तत्वों की चिंता करनी पड़ रही है। सारी परिस्थितियाँ बार-बार सोचने के लिए बाध्य करती है कि देश का राष्ट्रीय ध्वज देश में ही फहराना राष्ट्रीय चिंता का विषय कैसे हो सकता है। एक अरुंधति जब राष्ट्रीय ज्ञान के अभाव में कहती है कि जम्मू भारत का हिस्सा नहीं तो इसी देश का लेखक दो खेमों में बँटा नजर आता है और तो और कोई देशव्यापी हंगामा भी नहीं होता और इसी देश में राष्ट्रीय दिवस पर तिरंगा फहराने की इच्छा जाहिर करने पर चारों तरफ ऐसा हंगामा मचता है मानो किसी ने राष्ट्र के विरुद्ध अपराध कर दिया हो। लाल चौक अचानक संवेदनशील हो उठता है? वही लाल चौक जिस पर गाहे-बेगाहे पाकिस्तान का झंडा फहराने पर सब एक बेशर्म खामोशी ओढ़ लेते हैं। तब कोई आवाज नहीं उठती कोई चिंगारी नहीं भड़कती? इसके विपरीत होना तो यह चाहिए कि अगर किसी दूसरे देश का झंडा इस देश के किसी भी कोने में फहराया जाता है तो उसके विरोध में स्वर बुलंद हो। यह इस देश की उदार संस्कृति का गलत फायदा उठाने वालों के दिल की विकृति है जो यह समझती है कि भारतीयता का मतलब भीरुपन और मौन रहने का मतलब मूक-बधीर होना है। उस पर स्वतंत्र देश के 17वें प्रधानमंत्री की डरपोक और बेबस अपील कौन-सी राष्ट्रीयता का परिचय दे रही है? लोकतांत्रिक देश की सरकार से क्या जनता इतनी भी उम्मीद ना करें कि वह उनकी स्वतंत्रता की रक्षा करेगी और समय के साथ-साथ उसी स्वतंत्रता में विकास करेगी? इससे तो बेहतर था वह युग जब देश के जांबाज क्रांतिकारी देश के हर कोने में तिरंगे की आन-बान और शान के लिए खुद को खत्म करने की आजादी 'खुद' हासिल कर लेते थे। नेता होने का महज इतना ही अर्थ नहीं है कि आप किसी राजनीतिक दल से हों और सर्वोच्च पद की शोभा बढ़ाते हों। नेतृत्व की तमाम परिभाषाएँ कहती हैं कि नेता ऐसा हो, जिसकी चमत्कारी वाणी देश के नागरिकों में स्वाभिमान और आत्मविश्वास पैदा कर सकें। देश के हर शख्स में यह अहसास जगा सकें कि देश से बढ़कर कोई धर्म नहीं, कोई व्यक्ति नहीं, कोई दल नहीं, कोई ताकत नहीं। आमजन से राष्ट्रप्रेम की अपेक्षा करने से पहले, हर बड़े मंच पर चीखती आवाज में भाषण देने से पहले और राष्ट्रवासी को हर राष्ट्रीय दिवस पर संदेश देने से पहले यह आत्ममूल्यांकन हर नेता करें कि क्या सच में उनमें देश को नेतृत्व देने की सच्ची काबिलियत है? देश के राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति गौरव और सम्मान देने की भावना अगर देश की सरकार में नहीं है तो जनता के सामने आकर स्वीकारें कि वह एक कमजोर सरकार है। अगर उनमें वह आत्मबल और प्रखरता नहीं है कि राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए खुद को सशक्तता से खड़ा कर सकें तो मान लें कि अब उनके दिन पूरे हो चुके हैं। आखिर क्या संदेश दे रही है विश्व को देश की सरकार की यह दुर्बल मनोवृत्ति? यही कि हम समर्थ और स्वाभिमानी नहीं है। हमारे ही देश में हम हमारे ही राष्ट्रीय ध्वज को फहरा नहीं सकते क्योंकि इसी देश में बैठे, इसी देश का खाते कुछ लोग 'ऐसा' नहीं चाहते। हाँ,यह संभव है कि पड़ोसी मुल्क के कुछ सिरफिरे अपने देश का झंडा हमारे यहाँ आकर फहरा दें तो हम उस वैसा ध्यान नहीं देंगे जैसा एक सरकार को देना चाहिए। क्योंकि हम अपनी सोच, अपने विचार, अपना अभिमान और अपनी जुबान नहीं रखते हम सिर्फ लिखा हुआ पढ़ते हैं और लिखा हुआ सुनते हैं। फिर भी विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की बागडोर हमारे हाथों में है।