यशोदा को पौराणिक ग्रंथों में नंद की पत्नी कहा गया है। भागवत पुराण में यह कहा गया है देवकी के पुत्र भगवान श्रीकृष्ण का जन्म देवकी के गर्भ से मथुरा के राजा कंस के कारागार में हुआ। कंस से रक्षा करने के लिए जब वासुदेव जन्म के बाद आधी रात में ही उन्हें यशोदा के घर गोकुल में छोड़ आए तो उनका पालन पोषण यशोदा ने किया।
भारत के प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में बालक कृष्ण की लीलाओं के अनेक वर्णन मिलते हैं। जिनमें यशोदा को ब्रह्मांड के दर्शन, माखनचोरी और उसके आरोप में ओखल से बांध देने की घटनाओं का सूरदास ने सजीव वर्णन किया है। यशोदा ने बलराम के पालन पोषण की भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो रोहिणी के पुत्र और सुभद्रा के भाई थे। उनकी एक पुत्री का भी वर्णन मिलता है जिसका नाम एकांगा था।
वसुश्रेष्ठ द्रोण और उनकी पत्नी धरा ने ब्रह्माजी से यह प्रार्थना की - 'देव! जब हम पृथ्वी पर जन्म लें तो भगवान श्रीकृष्ण में हमारी अविचल भक्ति हो।' ब्रह्माजी ने 'तथास्तु' कहकर उन्हें वर दिया। इसी वर के प्रभाव से ब्रजमंडल में सुमुख नामक गोप की पत्नी पाटला के गर्भ से धरा का जन्म यशोदा के रूप में हुआ। और उनका विवाह नन्द से हुआ। नन्द पूर्व जन्म के द्रोण नामक वसु थे। भगवान श्री कृष्ण इन्हीं नन्द-यशोदा के पुत्र बने।
पुत्र जन्म
श्रीयशोदा जी चुपचाप शान्त होकर सोई थीं। रोहिणी जी की आंखें भी बन्द थीं। जब वसुदेव ने यशोदा की पुत्री को उठाकर कान्हा को यशोदा के पास सुलाया तो अचानक सूतिका गृह अभिनव प्रकाश से भर गया। सर्वप्रथम रोहिणी माता की आंख खुली। वे जान गई कि यशोदा ने जन्म दिया है।
रोहिणी जी दासियों से बोल उठीं- 'अरी! तुम सब क्या देखती ही रहोगी? कोई दौड़कर नन्द को सूचना दे दो।' फिर क्या था, दूसरे ही क्षण सूतिकागार आनन्द और खुशियों के कोलाहल में डूब गया। एक नन्द को सूचना देने के लिए दौड़ी। एक दाई को बुलाने के लिये गई। एक शहनाई वाले के यहां गई। चारों ओर आनन्द का साम्राज्य छा गया।
विधिवत जातकर्म संस्कार सम्पन्न हुआ। नन्द ने इतना दान दिया कि याचकों को और कहीं मांगने की आवश्यकता ही समाप्त हो गई। सम्पूर्ण ब्रज ही मानो प्रेमानन्द में डूब गया। माता यशोदा बड़ी ललक से हाथ बढ़ाती हैं और अपने हृदयधन को उठा लेती हैं तथा शिशु के अधरों को खोलकर अपना स्तन उसके मुख में देती हैं। भगवान शिशुरूप में मां के इस वात्सल्य का बड़े ही प्रेम से पान करने लगते हैं।
श्री कृष्ण और पूतना वध
कंस के द्वारा भेजी हुई पूतना अपने स्तनों में कालकूट विष लगाकर गोपी-वेश में यशोदा नन्दन श्रीकृष्ण को मारने के लिये आई। उसने अपना स्तन श्री कृष्ण के मुख में दे दिया। श्री कृष्ण दूध के साथ उसके प्राणों को भी पी गए। शरीर छोड़ते समय श्री कृष्ण को लेकर पूतना मथुरा की ओर दौड़ी। उस समय यशोदा के प्राण भी श्री कृष्ण के साथ चले गए। उनके जीवन में चेतना का संचार तब हुआ, जब गोप-सुन्दरियों ने श्रीकृष्ण को लाकर उनकी गोद में डाल दिया।
शकटासुर का अन्त
यशोदानन्दन श्री कृष्ण क्रमश: बढ़ने लगे। मैया का आनन्द भी उसी क्रम में बढ़ रहा था। जननी का प्यार पाकर श्री कृष्णचन्द्र इक्यासी दिनों के हो गए। मैया आज अपने सलोने श्री कृष्ण को नीचे पालने में सुला आई थीं। कंस-प्रेरित उत्कच नामक दैत्य आया और शकट में प्रविष्ट हो गया। वह शकट को गिराकर श्रीकृष्ण को पीस डालना चाहता था। इसके पूर्व ही श्रीकृष्ण ने शकट को उलट दिया और शकटासुर का अन्त हो गया।
कृष्ण का मथुरा जाना
भगवान श्रीकृष्ण ने माखन लीला, ऊखल बन्धन, कालिय उद्धार, गोचारण, धेनुक वध, दावाग्नि पान, गोवर्धन धारण, रासलीला आदि अनेक लीलाओं से यशोदा मैया को अपार सुख प्रदान किया। इस प्रकार ग्यारह वर्ष छ: महीने तक माता यशोदा का महल श्री कृष्ण की किलकारियों से गूंजता रहा। आख़िर श्री कृष्ण को मथुरा पुरी ले जाने के लिये अक्रूर आ ही गए। अक्रूर ने आकर यशोदा के हृदय पर मानो अत्यन्त क्रूर वज्र का प्रहार किया। पूरी रात श्री नन्द जी श्री यशोदा को समझाते रहे, पर किसी भी क़ीमत पर वे अपने प्राणप्रिय पुत्र को कंस की रंगशाला में भेजने के लिए तैयार नहीं हो रही थीं।
आख़िर योगमाया ने अपनी माया का प्रभाव फैलाया। यशोदा जी ने फिर भी अनुमति नहीं दी, केवल विरोध छोड़कर वे अपने आंसुओं से पृथ्वी को भिगोने लगीं। श्री कृष्ण चले गए और यशोदा विक्षिप्त-सी हो गईं उनका हृदय तो तब शीतल हुआ, जब वे कुरुक्षेत्र में श्री कृष्ण से मिलीं। राम-श्याम को पुन: अपनी गोद में बिठाकर माता यशोदा ने नवजीवन पाया। अपनी लीला समेटने से पहले ही भगवान ने माता यशोदा को गोलोक भेज दिया।