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देवउठनी एकादशी पर पढ़ें शंखचूड़ और जलंधर की पौराणिक कथा

देवउठनी एकादशी पर पढ़ें शंखचूड़ और जलंधर की पौराणिक कथा - devuthani Ekadashi katha
शिव महापुराण के अनुसार पौराणिक समय में दैत्यों का राजा दंभ हुआ करता था। वह बहुत बड़ा विष्णु भक्त था। कई सालों तक उसके यहां संतान नही होने के कारण उसने शुक्राचार्य को अपना गुरु बनाकर उनसे श्री कृष्ण मंत्र प्राप्त किया। यह मंत्र प्राप्त करके उसने पुष्कर सरोवर में घोर तपस्या की। भगवान विष्णु उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे संतान प्राप्ति का वरदान दे दिया।
 
भगवान विष्णु के वरदान से राजा दंभ के यहां एक पुत्र में जन्म लिया। इस पुत्र का नाम शंखचूड़ रखा गया। बड़ा होकर शंखचूड़ ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए पुष्कर में घोर तपस्या की।
 
उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उसे वरदान मांगने को कहा। तब शंखचूड़ ने वरदान मांगा कि वह हमेशा अजर-अमर रहे व कोई भी देवता उसे नही मार पाए। ब्रह्मा जी ने उसे यह वरदान दे दिया और कहा कि वह बदरीवन जाकर धर्मध्वज की पुत्री तुलसी जो तपस्या कर रही है उससे विवाह कर लें।
 
शंखचूड़ ने वैसा ही किया और तुलसी के साथ विवाह के बाद सुखपूर्वक रहने लगा।
 
उसने अपने बल से देवताओं, असुरों, दानवों, राक्षसों, गंधर्वों, नागों, किन्नरों, मनुष्यों तथा त्रिलोकी के सभी प्राणियों पर विजय प्राप्त कर ली। वह भगवान श्रीकृष्ण का परम भक्त था। शंखचूड़ के अत्याचारों से सभी देवता परेशान होकर ब्रह्माजी के पास गए और ब्रह्मा जी उन्हें भगवान विष्णु के पास ले गए। भगवान विष्णु ने कहा कि शंखचूड़ की मृत्यु भगवान शिव के त्रिशूल से ही होगी, अतः आप उनके पास जाएं।
 
भगवान शिव ने चित्ररथ नामक गण को अपना दूत बनाकर शंखचूड़ के पास भेजा। चित्ररथ ने शंखचूड़ को समझाया कि वह देवताओं को उनका राज्य लौटा दे। परंतु शंखचूड़ ने मना कर दिया और कहा कि वह महेश्वर से युद्ध करना चाहता है।
 
भगवान शिव को जब यह बात पता चली तो वे युद्ध के लिए अपनी सेना लेकर निकल पड़े। इस तरह देवता और दानवों में घमासान युद्ध हुआ। परंतु ब्रह्मा जी के वरदान के कारण शंखचूड़ को देवता नहीं हरा पाए। भगवान शिव ने शंखचूड़ का वध करने के लिए जैसे ही अपना त्रिशूल उठाया, तभी आकाशवाणी हुई कि- जब तक शंखचूड़ के हाथ में श्रीहरि का कवच है और इसकी पत्नी का सतीत्व अखण्डित है, तब तक इसका वध असंभव है।
 
आकाशवाणी सुनकर भगवान विष्णु वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर शंखचूड़ के पास गए और उससे श्रीहरि कवच दान में मांग लिया। शंखचूड़ ने वह कवच बिना किसी संकोच के दान कर दिया। इसके बाद भगवान विष्णु शंखचूड़ का रूप बनाकर तुलसी के पास गए।
 
शंखचूड़ रूपी भगवान विष्णु ने तुलसी के महल के द्वार पर जाकर अपनी विजय होने की सूचना दी। यह सुनकर तुलसी बहुत प्रसन्न हुई और पतिरूप में आए भगवान का पूजन किया व रमण किया। ऐसा करते ही तुलसी का सतीत्व खंडित हो गया और भगवान शिव ने युद्ध में अपने त्रिशूल से शंखचूड़ का वध कर दिया।
 
तब तुलसी को पता चला कि वे उनके पति नहीं हैं बल्कि वे तो भगवान विष्णु है। क्रोध में आकर तुलसी ने कहा कि आपने छलपूर्वक मेरा धर्म भ्रष्ट किया है और मेरे पति को मार डाला। अतः मैं आपको श्राप देती हूं कि आप पाषण होकर धरती पर रहे।
 
तब भगवान विष्णु ने कहा- देवी। तुम मेरे लिए भारत वर्ष में रहकर बहुत दिनों तक तपस्या कर चुकी हो। तुम्हारा यह शरीर नदी रूप में बदलकर गण्डकी नामक नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा। तुम पुष्पों में श्रेष्ठ तुलसी का वृक्ष बन जाओगी और सदा मेरे साथ रहोगी। तुम्हारे श्राप को सत्य करने के लिए मैं पाषाण (शालिग्राम) बनकर रहूंगा। गण्डकी नदी के तट पर मेरा वास होगा।
 
देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन भगवान शालिग्राम व तुलसी का विवाह संपन्न कर मांगलिक कार्यों का प्रारंभ किया जाता है। हिंदू धर्म मान्यता के अनुसार इस दिन तुलसी-शालिग्राम विवाह करने से अपार पुण्य प्राप्त होता है।
 
दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार 
 
एक अन्य कथा में आरंभ यथावत है लेकिन इस कथा में वृंदा ने विष्णु जी को यह शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है। अत: तुम पत्थर के बनोगे। यह पत्थर शालिग्राम कहलाया।

श्रीमद भगवत पुराण के अनुसार प्राचीन काल में जलंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह विजयी बना हुआ था। जलंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गए तथा रक्षा की गुहार लगाई।
 
उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उन्होंने जलंधर का रूप धर कर छल से वृंदा का स्पर्श किया। वृंदा का पति जलंधर, देवताओं से प राक्रम से युद्ध कर रहा था लेकिन वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया।
 
जैसे ही वृंदा का सतीत्व भंग हुआ, जलंधर का सिर उसके आंगन में आ गिरा। जब वृंदा ने यह देखा तो क्रोधित होकर जानना चाहा कि फिर जिसे उसने स्पर्श किया वह कौन है। सामने साक्षात विष्णु जी खड़े थे। उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, 'जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम्हारी पत्नी का भी छलपूर्वक हरण होगा और स्त्री वियोग सहने के लिए तुम भी मृत्यु लोक में जन्म लोगे।' यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई।
 
जिस जगह वृंदा सती हुई वहां तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ।
 
विष्णु ने कहा, 'हे वृंदा! यह तुम्हारे सतीत्व का फल है कि तुम तुलसी बनकर मेरे साथ ही रहोगी। जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह परम धाम को प्राप्त होगा।' बिना तुलसी दल के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है।
 
शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी का ही प्रतीकात्मक विवाह माना जाता है।
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