उत्तराखंड को देवभूमि कहा गया है। पंचबद्री, पंचकेदार, पंचप्रयाग यहां की भूमि को देवतुल्य बनाते हैं। हर शिखर पर कोई न कोई मंदिर है तो हर नदी का संगम स्थल धार्मिक मान्यताओं का केन्द्र है, जिसे प्रयाग कहते हैं। पंचप्रयाग भी इस धरती पर लोगों की आस्था का केन्द्र है। बद्रीनाथ के अलावा भी चार और मंदिर बद्रीनाथ के नाम से पंचबद्री मंदिर के रूप में यहां मौजूद हैं। भगवान विष्णु का यह धाम बद्रीनाथ बैकुंठधाम के नाम से भी प्रसिद्ध है, जबकि अन्य मंदिर ध्यान बद्री, योगबद्री, वृद्ध बद्री और भविष्यबद्री के नाम से यहां अलग-अलग मान्यताओं के लिए मशहूर हैं। इन सबमें आजकल दर्शनार्थियों के आने से धर्म और अध्यात्म का माहौल लोगों की आस्था में बढ़ोतरी कर रहा है।
बद्रीनाथ : यह मंदिर हिमालय के केदारखंड में है। इसमें भगवान विष्णु तपस्या के लिए आए ऐसा माना जाता है। तपस्यारत भगवान विष्णु को देवी लक्ष्मी ने तपस्या के दौरान वर्षा धूप और अन्य प्राकृतिक प्रकोप से बचाने के लिए बेर के वृक्ष का रूप धारण कर उनको छाया दी जिस कारण यह स्थान बद्रीनाथ कहलाया। पहले यहां बद्रीवन में बद्री वृक्ष होते थे, लेकिन अब ये नहीं दिखते। भगवान विष्णु ने इस बद्रीघाटी को तपस्या के लिए चुना। यहां भगवान विष्णु की पूजा दो रूप में योगध्यान और श्रृंगारिक रूप में होती है। कहा जाता है कि 6 माह यहां भगवान की पूजा मनुष्यों द्वारा श्रृंगारिक रूप में और 6 माह देवताओं द्वारा योगरूप में की जाती है। योगध्यान मुद्रा में भगवान के साथ महालक्ष्मी बायीं ओर बैठती हैं तो श्रृंगारिक मुद्रा में पूजा के दौरान महालक्ष्मी दायीं ओर बैठती हैं। बद्रीनाथ में पूजा कराने वाले रावल को पूजा करने के दौरान अविवाहित ही रहना पड़ता है। शादी करने के बाद रावल की गद्दी से उन्हें हटना पड़ता है। यहां के बारे में यह प्रसिद्ध है कि मनुष्य को जो फल, तप, योग, समाधि और सम्पूर्ण तीर्थों के स्नान दर्शन से प्राप्त होता है वह सब बद्रीनाथजी के दर्शन मात्र से ही मिल जाता है। बद्रीनाथ का मंदिर यहां कब से है यह ठीक नहीं मालूम लेकिन जो मंदिर वर्तमान में हैं उसका निर्माण पन्द्रहवीं शताब्दी में रामानुजीय संप्रदाय के स्वामी बदराचार्य के कहने पर गढ़वाल के तत्कालीन नरेश ने कराया। मंदिर के बन जाने के बाद इंदौर की सुप्रसिद्ध महारानी अहिल्याबाई ने यहां स्वर्ण कलश और छत्री को चढ़ाया। अलकनंदा नदी तट पर स्थापित यह मंदिर 50 फीट ऊंचा है। भगवान के इस क्षेत्र में अनेक गुप्त एवं प्रकट तीर्थ माने जाते हैं।
ध्यान बद्री : इस मंदिर में हरिद्वार से हेलंग तक राष्ट्रीय राजमार्ग से पहुंचा जा सकता है। हेलंग से कल्पेश्वर को जाने वाले मार्ग द्वारा हल्के वाहनों से यहां जाने के लिए उर्गम आया जाता है। इसी उर्गम घाटी में हेलंग से 10 किलोमीटर ग्राम बडगिंडा पर यह मंदिर है। भव्य पाषाण शिलाओं से निर्मित इस मंदिर का निर्माण कटुवा पत्थरों से कत्यूरी शैली में किया गया है। यहां पर भगवान विष्णु और शिव, ब्रह्मा ने ध्यान रूप में तप किया। यहां शालिग्राम शिला में निर्मित स्वयंभू मूर्ति की पूजा की जाती है। भगवान विष्णु के बायीं ओर महालक्ष्मीजी की मूर्ति भी यहां मौजूद है। दाहिनी ओर गणेश-नारद विराजमान हैं। मंदिर के बारे में प्रचलित है कि महर्षि दुर्वासा द्वारा देवराज इन्द्र को दी गई पुष्पमाला को देवराज इन्द्र द्वारा हाथी के सर के ऊपर रख देने से महर्षि दुर्वासा नाराज हो गए और उन्होंने देवराज इन्द्र की त्रिलोकी से लक्ष्मी के लुप्त होने का श्राप दे डाला। इसके चलते शिव और ब्रह्मा ने भगवान विष्णु की पूजा की, भगवान विष्णु ने प्रकट होकर दर्शन दिए। इस मंदिर के परिक्रमा स्थल पर पश्चिममुखी शिवालय है। विष्णु एवं शिव एक-दूसरे के पूरक हैं, यहां दर्शन स्थल पर भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ की भव्य पाषाण प्रतिमा भी है। भगवान श्री ध्यान बद्री के दर्शन से रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है। शिव की आराधना से विष्णु के इस क्षेत्र में प्राकट्य के कारण इस क्षेत्र का महत्व है। आदि शंकराचार्य ने यहां का भी मंदिर स्थापित किया। पंचबद्री एवं पंचकेदार का संगम स्थल भी इसी क्षेत्र को माना जाता है।
योगबद्री : चैथी बद्री के रूप में स्थापित इस मंदिर में विष्णु भगवान सम्पूर्ण रूप में निवास करते हैं। यहां महाराज पाण्डु ने तेपास्थ मृगरूप ऋषि का मृग समझकर आखेट किया था। जिससे मुनि तड़पते हुए स्वर्ग सिधार गए। उन्होंने पाण्डु को श्राप दिया कि तुम आज से जब भी सहवास करोगे तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। यहां पाण्डु की तपस्थली भी है। राजा पाण्डु यहां तपस्या के लिए आए थे। नकुल और सहदेव का जन्म यहीं हुआ था। राजा पाण्डु को यहां भगवान विष्णु ने साक्षात दर्शन दिए थे। इसलिए इस स्थान को पाण्डुकेश्वर भी कहते हैं। पाण्डु का नवरत्न जड़ित स्फटिक का लिंग भी यहीं विराजमान है। महाभारतकाल में बने इस मंदिर के बारे में यह प्रचलित है कि पाण्डु ने यहीं प्राण त्यागे थे। राजा पाण्डु की पत्नी माद्री की भी यहां मूर्ति है। तपस्यारत होने के कारण भगवान विष्णु के इस मंदिर को योगबद्री कहा जाता है। भगवान बद्रीनाथ के कपाट बंद होने पर यहां उद्धवजी और कुबेरजी की पूजा की जाती है। इसलिए इसे शीतबद्री नाम भी दिया जाता है।
श्री वृद्धबद्री : भगवान बद्रीनाथ तृतीय बद्री के रूप में वृद्धबद्री में निवास करते हैं। यह वृद्धबद्री मंदिर जोशीमठ से हेलंग के बीच बद्रीनाथ राजमार्ग में ही अणिमठ नामक स्थान पर मौजूद है। पुराणों में इस स्थान को नारद की तपस्थली के रूप में जाना जाता रहा है। नारद को भगवान विष्णु ने एक वृद्ध के रूप में यहां दर्शन दिए, इस कारण इस मंदिर का नाम वृद्धबद्री पड़ा। नारद को अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईथित्व और वथित्व नामक आठ सिद्धियां यहीं पर प्राप्त हुई थीं। इसीलिए इस गांव को यहां अणिमठ नाम मिला। भगवान विष्णु का श्री विग्रह यहां चतुर्भुज शंख, चक्र, गदा, पदम रूप में स्थित है। जिसे शालिग्राम शिला पर उत्कीर्ण किया गया है। अन्य बद्रियों में भगवान ध्यान योग मुद्राओं में स्थित हैं, किंतु अणिमठ में भगवान नारायण खड़ी मुद्रा में अपने भव्य रूप में विराजते हैं।
भविष्य बद्री : यह मंदिर भी भगवान बद्रीनाथ के मंदिर के साथ ही बना। आदि गुरु शंकराचार्य ने ही इसे भी स्थापित किया। बद्रीनाथ के कपाट खुलने पर ही इस मंदिर के भी कपाट खोले जाने की परंपरा है। जब बद्रीनाथजी के मंदिर के कपाट बंद होते हैं तो इसके भी कपाट बंद कर दिए जाते हैं। जन्माष्टमी के दिन यहां मेला लगता है। हर तीन वर्ष में लगने वाले मेले को स्थानीय लोग जाख मेला कहते हैं। यहां नवदुर्गा मंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर और लोकदेवता कंडवाल देवता का भी मंदिर है। तपोवन क्षेत्र के अंतर्गत पड़ने वाले सुमाई गांव में स्थित इस मंदिर में जाने के लिए तपोवन से 5 किलोमीटर तक गाड़ी से जाया जाता है। सलधार नामक स्थान में पहुंचकर वहां से चामडी गांव के बाद सुमाई गांव आता है। 4 किलोमीटर सलधार से पैदल चलना पड़ता है। सुमाई गांव से 2 किलोमीटर चलने पर जंगल में भगवान की मूर्ति अपने आप आकृति ले रही है। माना जाता है कि यहां एक चंदन का वृक्ष था। गांव की एक गाय यहां आकर मूर्ति पर अपना दूध चढ़ाती थी। ग्वालों ने देखा कि यहां स्वयंभू मूर्ति अवतरित हो रही है। मान्यता है कि 150 से अधिक वर्षों से यह स्वयंभू मूर्ति यहां आकार ले रही है। अब यह काफी वृहद आकृति ले चुकी है। पंचबद्री के अलावा यहां बद्रीनाथ के अन्य मंदिर सप्तबद्री के रूप में भी मौजूद हैं।
पंचबद्री के अलावा पंचकेदार मंदिरों की भी अपनी महिमा है। यहां शिव अनेक रूपों में लोक कल्याण के लिए लोगों को दर्शन देते हैं। सभी पंचकेदार मंदिर अब इस दौरान भक्तों को दर्शन देने को खुल चुके हैं। इनमें भक्तों का आना-जाना शुरू होने से इन क्षेत्रों की चहल-पहल बढ़ी हुई है।
श्री केदारनाथ मंदिर : इस मंदिर में पौराणिक काल से केदार लिंग विराजमान बताया जाता है। आधुनिक रूप में यह मंदिर महाभारतकाल के बाद पाण्डवों द्वारा निर्मित बताया जाता है। 80 फुट ऊंचे इस विशाल मंदिर में वास्तुकला के अद्भुद प्रदर्शन होते हैं। 2013 की जल प्रलय के बावजूद मंदिर को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है, कुछ शिलाएं जरूर उखड़ी, जिनका पुनरुद्धार भारतीय पुरातत्व विभाग कर रहा है। चतुष्कोणात्मक स्वरूप में स्थापित इस मंदिर में पत्थरों के स्तम्भों पर टिकी हुई लकड़ी की छतरी है जिसकी छत पर तांबा लगा है। शीर्षस्थ कलश भी तांबे का बना है, जिसमें सोने का आवरण चढ़ाया गया है। 1985 में इस मंदिर की छतरी का जीर्णोंद्धार हुआ था। 2013 की जल प्रलय के बाद आजकल मंदिर के गर्भगृह के फर्श एवं दीवारों की शिलाओं समेत दरवाजों का पुनरुद्धार कराया जा रहा है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान शिव का स्वयंभू ज्योर्तिलिंग वृहद शिला के रूप में यहां मौजूद है। गर्भगृह के बाहर जगमोहन में पार्वतीजी की पाषाण मूर्ति है। सभा मंडप में पंच पांडव श्रीकृष्ण और कुंती की मूर्तियां हैं। मुख्य द्वार पर गणेशजी और नंदीजी की पाषाण मूर्तियां हैं। ग्यारहवें ज्योर्तिलिंग के रूप में पूजे जाने वाले भगवान केदार के पुजारी वीरशैव जंगम संप्रदाय से आते हैं। ऋषिकेश से 229 किलोमीटर दूर स्थित हिमालय की तलहटी पर यह मंदिर 16 किलोमीटर की पैदल दूरी तय करने पर पड़ता है, जहां इन दिनों दुनियाभर से शिवभक्त दर्शन को आ रहे हैं। रामायण एवं महाभारतकाल से पूर्व भी केदार का अस्तित्व रहा, महर्षि वेदव्यास ने महाभारत के युद्ध में गोत्र हत्या एवं ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति के लिए पाण्डवों को केदार तीर्थ के दर्शन का उपदेश दिया था। उन्होंने कहा था कि ब्रह्मादि देवता भी शिव दर्शन के लिए केदार तीर्थ धाम की यात्रा करते हैं। इस तीर्थ में गंगा, मधुवर्णा, क्षीरवर्णा, श्वेतवर्णा, सुचिवर्णा धाराओं में प्रवाहमान होती रही है। यहां भगवान शिव की सेवा स्वयं भगवान गणेश करते हैं। केदारतीर्थ में ही पाण्डवों को गोत्र हत्या, ब्रह्म हत्या एवं गुरु हत्या के पाप से मुक्ति मिली। कहा जाता है कि रावण वध के बाद भगवान श्रीराम भी यहां केदारतीर्थ का अभिषेक करने आए।
मदमहेश्वर : पंचकेदारों में मदमहेश्वर दूसरा केदार है। मान्यता है कि आदि केदारेश्वर भगवान शिव की नाभि का पूजन यहां होता है। शिव के मध्यभाग के दर्शन के कारण इसे मदमहेश्वर नाम मिला। यहां मौजूद शिवलिंग की आकृति नाभि के समान ही है। केदारघाटी के कालीमठ से होकर यहां जाने के कारण विषम भौगोलिक परिस्थितियां यहां तीर्थयात्रियों की संख्या सीमित कर देती है। यहां जाने के लिए रुद्रप्रयाग से केदारनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग से ऊखीमठ पहुंचना होता है। ऊखीमठ से उनियाणा गांव तक मोटर मार्ग से पहुंचा जाता है। इसके बाद रांसी गौंडार गांव से 10 किलोमीटर की चढ़ाई पार कर भगवान मदमहेश्वर के मंदिर तक पहुंचना होता है। यहां के लिए दूसरा मार्ग गुप्तकाशी से भी है, जहां से कालीमठ तक वाहन से जाने के बाद आगे पैदल चढ़ाई चढ़नी होती है, यह ट्रैकिंग रूट काफी रमणीक है।
तुंगनाथ : पांच केदारों में तुंगनाथ तृतीय केदार माना जाता है। यह उत्तराखंड में मौजूद सभी तीर्थों से सर्वाधिक ऊंचाई पर मौजूद है। महिष रूप में शिव का यहां नाभि से ऊपर और सिर से नीचे का भाग यानि धड़ प्रतिष्ठित माना जाता है। यहां की प्रतिस्थापित मूर्ति को देखने से लगता है कि यह बाहु और वक्ष स्थल का ही भाग है। इस तीर्थ के दर्शन से समस्त पापों से छुटकारा मिलता है। कहा जाता है कि राजा मान्धाता ने यहां पूर्वकाल में घोर तपस्या की थी। प्राणी मात्र जिस भी कामना से यहां भगवान शिव के दर्शन करता है उसकी वह कामना अवश्य पूर्ण होती है। तुंगनाथ क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व भैरवनाथ के दर्शन भी किए जाते हैं। तुंगनाथ मंदिर का निर्माण उत्तराखंडी शैली में किया गया है। इस मंदिर को समुद्र सतह से 12 हजार 235 फीट की ऊंचाई पर स्थापित होने से सबसे ऊंचाई वाला मंदिर माना जाता है। ग्रीष्मकाल में ही तुंगनाथ की पूजा होती है। शीतकाल में यहां की चल विग्रह मूर्ति मुक्कूमठ ले जाई जाती है। जहां शीतकाल में पूजा होती है। तुंगनाथ को जाने के लिए दो मार्ग हैं, एक ऊखीमठ से चोपताधार तक मोटर मार्ग से जाकर वहां से तीन किलोमीटर की चढ़ाई तय कर जाया जाता है, तो दूसरा गोपेश्वर मण्डल होते हुए चोपताधार तक जाता है। वहां से फिर चढ़ाई चढ़नी होती है। तुंगनाथ की मूर्ति जहां शीतकाल में रखी जाती है उस मुक्कूमठ को प्राचीनकाल में ज्योतिष का प्रमुख केंद्र भी माना जाता था।
रुद्रनाथ : रुद्रनाथ देश का पहला तीर्थ है जहां भगवान शिव के मुखाकृति के दर्शन होते हैं। इसे पितरों का तारण करने वाला श्रेष्ठ तीर्थ माना जाता है। इस साल 19 मई को इस तीर्थ के कपाट खुल चुके हैं। कहा जाता है कि रुद्रनाथ तीर्थ में ही देवर्षि नारद ने भगवान शंकर को कनखल (हरिद्वार) में दक्ष प्रजापति द्वारा यज्ञ कराने के दौरान देवी सती के दाह की सूचना दी थी। रुद्रनाथ में ही नारद को भगवान शिव ने नाद ब्रहम, पिण्डोत्पत्ति, रागोत्पत्ति, संगीतशास्त्र, गीत शास्त्र एवं श्रृंगार शास्त्र का ज्ञान दिया। भगवान रुद्रनाथ यहां गुफा में विराजते हैं। यह विशाल गुफा दो खंडों में है। भगवान रुद्रेश्वर का दर्शन, निर्वाण एवं श्रृंगार, दोनों रूपों में होता हे। कुछ बायीं ओर झुकी मूर्ति मुखमुद्रा यह प्रदर्शित करती है कि भगवान नीलकंठ प्रसन्न मुद्रा में विचारवान हैं। रुद्रनाथ तीर्थ देवताओं के लिए भी दुर्लभ माना जाता है। केदारनाथ के रूप में इस तीर्थ को चतुर्थ केदार कहा जाता है। सती द्वारा दक्ष प्रजापति के यज्ञ में योगाग्नि द्वारा भस्म होने पर भगवान शंकर क्रोध में थे। देवर्षि नारद ने उन्हें यह सूचना दी। सूचना मिलते ही भगवान शंकर ने अपने जटाजूट से केश उखाड़कर पटक डाले। जिस स्थान पर यह केश गिरे उससे नन्दी, वीरभद्र आदिगण प्रकट हुए। उन्होंने दक्ष प्रजापति का यज्ञ भंग कर दिया। रुद्रनाथ पहुंचने के लिए पहला मार्ग गोपेश्वर के ग्राम ग्वाड़-देवलधार, किन्नखोली-किन महादेव होते हुए, दूसरा मार्ग मण्डल चट्टी-अत्रि अनुसूइया आश्रम होते हुए, तीसरा मार्ग गोपेश्वर सगर ज्यूरागली-पण्डार होते हुए, चौथा मार्ग ग्राम देवर मौनाख्य- नौलाख्य पर्वत पंडार खर्क होते हुए जाता है।
कल्पेश्वर : पंचकेदारों में कल्पेश्वर को पांचवां केदार माना जाता है। माना जाता है कि महर्षि रूप में भगवान शिव का यहां जटाजूट प्रतिष्ठित हुआ। जटाजूट की आकृति एक पाषाण शिला पर यहां दृष्टिगोचर भी होती है। 6 हजार फुट की ऊंचाई पर अवस्थित यह तीर्थ उर्गम गांव में हिरण्यावती नदी के पास है। यहां पहुंचने के लिए हेलंग चट्टी से पैदल जाना होता है। अलकनंदा पुल पार कर लगभग 7 किलोमीटर का पैदल रास्ता तय कर यहां पहुंचा जाता है। उर्गम क्षेत्रों के वनों में कई मंदिर हैं, जो वर्तमान में भग्नावस्था में हैं। ऐसा प्रचलित है कि यहां उग्रर्वऋषि ने तप किया था। इस तीर्थ की उत्पत्ति देवराज इन्द्र को ऋषि दुर्वासा के श्राप से मुक्ति के लिए कल्पवृक्ष की प्राप्ति से जुड़ी है। कहा जाता है कि देवराज इन्द्र को श्राप मुक्ति के लिए भगवान विष्णु ने शिव का तप करने को कहा। शिव तप से प्रसन्न होकर शिव ने देवराज से कहा कि मेरे नेत्र का जल लेकर सागर में डालो। उसे मथकर देवताओं ने कल्पवृक्ष एवं लक्ष्मी को प्राप्त किया। भगवान ने कल्पवृक्ष इन्द्र को दे दिया। इस स्थान पर शिव कल्पेश्वर नाम से प्रतिष्ठित हो गए।
पंचबद्री एवं पंचकेदार के अलावा पंचप्रयाग भी इस क्षेत्र में धार्मिक श्रद्धालुओं के लिए श्रद्धा के अगाध केन्द्र रहे हैं। आजकल श्रद्धा के इन सभी केन्द्रों में श्रद्धालुओं का देश ही नहीं दुनियाभर से यहां आना अनवरत जारी है। इन प्रयागों में विष्णु प्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग और देवप्रयाग मुख्य हैं।
उत्तराखंड में पांच प्रयाग पंचप्रयाग नाम से प्रसिद्ध हैं। ऋग्वेद में कहा गया है, जो लोग श्वेत कृष्ण दो नदियों के मिलन स्थान पर स्नान करते हैं, वे स्वर्ग के अधिकारी होते हैं। पुराण में भी कहा गया है कि जलाशय नदी कुंड और सरोवर ही तीर्थ हैं। प्रयाग यानि संग को धर्म मानने वाले इसे पवित्रतम मानते हैं। उत्तराखंड में पांच प्रयाग हैं, जहां पहुंचकर इनका पुण्य प्राप्त करने के लिए चारधाम यात्रा के समय कार्यक्रम बनाया जा सकता है।
विष्णु प्रयाग : अलकनंदा एवं धवल गंगा के मिलन स्थल के रूप में जाने जाने वाले विष्णु प्रयाग में दस कुंड भी हैं। इन कुंडों के दर्शन मात्र से ही दस पापों से छुटकारा मिल जाता है। यहां ब्रह्मकुंड के दर्शन से आत्मज्ञान, शिवकुंड के दर्शन से करुणा, गणेश कुंड के दर्शन से विघ्नों का नाश, विष्णु कुंड के दर्शन से भक्ति, भृंगी कुंड के दर्शन से भूख-प्यास से मुक्ति, सूर्य कुंड के दर्शन से शरीर आरोग्य एवं वृद्धि का स्वामी बनता है। दुर्गाकुंड के दर्शन से धनधान्य प्राप्त होता है। प्रहलाद कुंड के दर्शन से आजीवन चित्त आनंदमय होता है धनका कुंड के दर्शन एवं स्नान से जीवनभर धनका नाम की यक्षिणी धनधान्य प्रदान करती है। ऋषिकुंड के दर्शन और स्नान से सप्तऋषियों का प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त होकर मनुष्य परमज्ञानी बनता है।
यहां पहुंचने के लिए बद्रीनाथ मार्ग में पैनखंडा जो अलकनंदा नदी तट पर अवस्थित है, यह स्थान जोशीमठ से आगे अवस्थित है। पंचप्रयागों में एक विष्णु प्रयाग चारधाम यात्रा के एक पड़ाव स्थल के रूप में भी माना जाता है। पंचप्रयागों में यह प्रधान प्रयाग स्थल है। यहीं पर भगवान विष्णु ने शंकासुर को मारा था, इसलिए इससे ऊपर शंख नहीं बजता है। धौली गंगा में विष्णु गंगा से अधिक पानी है। शिवकुंड में यात्रियों के पहुंचने के लिए चट्टान में सीढ़ियां निर्मित की गई हैं। नदी अत्यधिक गहरे में तेज बहाव की होने के कारण स्नानार्थियों को बहने से बचाने के लिए जंजीर और छल्लों को पकड़कर स्नान करने की सलाह दी जाती है, इसके बावजूद यहां कई इंसानी जिंदगियां बह जाती हैं। धौलीगंगा की दूसरी तरफ पहुंचने के लिए यहां 144 फुट लम्बा झूला पुल पार करना पड़ता है।
नंदप्रयाग : अलकनंदा और नंदाकिनी का मिलन स्थल नंदप्रयाग है। चमोली जिले में दसौली क्षेत्रांतर्गत पड़ने वाले इस 914 मीटर ऊंचाई वाले इस रमणीक क्षेत्र में नंदा घुंघटी के ही एक हिमनद से नंदाकिनी नदी का उद्गम है। नंदप्रयाग पहुंचने के लिए बद्रीनाथ मार्ग में ही कर्णप्रयाग से 22 किलोमीटर की दूरी तय कर पहुंचा जाता है। यहां से बद्रीनाथ 96 किलोमीटर रह जाता है।
केदारखंड पुराण में नंदाकिनी को नंदा भी कहा गया है। इसके तट पर कण्व ऋषि आश्रम और नंद नामक राजा द्वारा सम्पन्न किए यज्ञ का उल्लेख भी किया जाता है। यहां पर राणा दुष्यंत और शकुन्तला का पाणिग्रह संस्कार हुआ। नंद महाराज ने यहां तपस्या की, इसी कारण इस स्थान का नाम नंदप्रयाग पड़ा।
नंदप्रयाग के पुराण प्रसिद्ध कण्व आश्रम के सात मील पूर्व में पर्वत पर बैरास कुंड है, जहां भगवान महादेव का मंदिर हैं यहीं रावण ने अपने दस शीश काटकर भगवान को चढ़ाए थे। इसी कारण यह क्षेत्र पूर्व में दशमौलि और कालांतर में दशौली कहलाया।
कर्णप्रयाग : तीसरे प्रयाग के रूप में माने जाने वाला कर्णप्रयाग पहले स्कन्द प्रयाग नाम से प्रसिद्ध था। यहां पर कर्णकुंड नामक एक कान के आकार का कुंड होने से यहां कर्णप्रयाग नाम भी इस क्षेत्र का पड़ गया। बारहों माह पानी से भरे रहने वाले इस कुंड तक पहुंचना असंभव है। यहां हर समय पक्षियों की चहल-पहल रहती है। महाकवि कालिदास द्वारा रचित मेघदूतम् में भी इसी तरह के स्थान का जिक्र आने से कुछ लोग इस क्षेत्र से भी जोड़ते हैं। कुछ लोग महाभारत की कुंती और उनके दानवीर पुत्र कर्ण से भी इस स्थान को जोड़ते हैं।
इस स्थान पर अलकनंदा का पिण्डर नदी से मिलन होने से यह स्थान संगम का रूप लेता है। कहा यह भी जाता है कि कर्ण ने अपनी मृत्यु पर भगवान कृष्ण से अपना अंतिम संस्कार ऐसे स्थान पर करने को कहा था जहां कि कभी किसी मनुष्य की अंत्येष्टि न की गई हो, इसी के चलते भगवान कृष्ण ने यहां सुई की नोक जितनी भूमि पर कर्ण की इच्छानुसार उनका अंतिम संस्कार करवाया। यह भी मान्यता है कि यही वह स्थान भी है, जहां कर्ण ने भगवान सूर्य की उपासना कर उनसे कवच, कुंडल और तुरीप प्राप्त किए थे। यहां कर्ण की मूर्ति भी है। यह स्थान हरिद्वार-बद्रीनाथ के ठीक बीचोंबीच स्थित है। बद्रीनाथ जाने वाले मार्ग पर ही यह पड़ता है।
रुद्रप्रयाग : चैथा प्रयाग रुद्रप्रयाग अलकनंदा और मंदाकिनी नदी का संगम स्थल है। यह बद्रीनाथ और केदारनाथ यात्रा पथ पर पड़ता है। केदारनाथ के लिए यहीं से अलग रास्ता है। संगम के पास भगवान रुद्रनाथ का मंदिर रुद्रेश्वर महादेव भी यहां है। इसके अलावा यहां ताड़केश्वर, नारदेश्वर, गोपालेश्वर, शिवलिंग और अन्नपूर्णा देवी के भी दर्शन होते हैं। मान्यता है कि इस संगम पर देवर्षि नारद ने भगवान रुद्रेश्वर के 'ऊं नमः शिवाय' मंत्र से आराधना की थी। एक पैर पर खड़े होकर नारद की एक हजार वर्ष की तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें वृषारुढ़ वेश में दर्शन देकर मनोवांछित फल मांगने को कहा तो नारदजी ने लोककल्याण के लिए नाद विद्या का वर मांगा।
देवप्रयाग : पांचवें प्रयाग देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी नदियों का संगम है। यहीं से गंगा नदी का प्रवाह बनता है। यह दोनों नदियां संयुक्त रूप से गंगा कहलाकर हरिद्वार की तरफ प्रवाहित होती हैं। मान्यता है कि देवप्रयाग में ही गंगा के पश्चिमी तट पर भास्कर देव ने त्रिनेत्रधारी भगवान शंकर की आराधना की। यहां भास्करकुंड गंगा के पश्चिमी तट पर स्नान कर भी लोग पुण्य प्राप्त करते हैं। विष्णु कुंड यहां भास्कर कुंड के दक्षिण भाग में है, इसमें स्नान से बैकुंठ धाम मिलता है। ब्रह्मकुंड भी यहां विष्णु से कुछ ही दूरी पर स्थित है। इसमें स्नान से ब्रह्मलोक मिलता है। देवप्रयाग को उत्तम तीर्थ माना गया है। इसके दर्शन मात्र से ही भगवद् प्राप्ति मानी गई है।
मान्यता है कि यहीं देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण ने सतयुग में घोर तपस्या कर भगवान जनार्दन को प्रसन्न किया और उनके प्रकट होने पर देवशर्मा ने उनके चरणों की भक्ति मांगी तब भगवान ने उन्हें वर दिया कि मैं स्वयं राम के रूप में अवतरित होकर यहां कुछ वक्त निवास करूंगा, यह तीर्थ तुम्हारे नाम से ही देवप्रयाग तीर्थ कहलाएगा। भगवान राम ने यहां आकर विश्वेश्वर शिव की स्थापना कराई। यहां चारों दिशाओं में राम ने चार शिव मंदिर बनाए। ऐसी मान्यता है कि यहां शिव की पूजा से ही राम अपने अनुजों और भार्या सीता सहित प्रसन्न होते हैं।