साँईंबाबा की शिर्डी : समभाव का संदेश
-
ज्योत्स्ना भोंडवे महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले का शिर्डी गाँव, अरसा पहले केवल पोस्टल पहचान रखता था। वही गाँव आज 'साँईबाबा की शिर्डी' के नाम से दुनियाभर में जाना जाता है। साँईबाबा पर यह विश्वास जाति-धर्म व राज्यों से परे देशों की सीमा लाँघ चुका है। यही वजह है कि 'बाबा की शिर्डी' में भक्तों का मेला हमेशा लगा रहता है, जिसकी तादाद प्रतिदिन जहाँ 30 हजार के करीब होती है, वहीं गुरुवार व रविवार को यह संख्या दुगुनी हो जाती है। इसी तरह साँईबाबा के प्रति आस्था और विश्वास के चलते रामनवमी, गुरुपूर्णिमा और विजयादशमी पर जहाँ 2-3 लाख लोग दर्शन को आते हैं, वहीं सालभर में लगभग 1 करोड़ से अधिक भक्त यहाँ हाजिरी लगा जाते हैं।लगभग डेढ़ सौ साल पहले एक युवा फकीर शिर्डी की खंडहरनुमा मस्जिद में डेरा डालकर चार घरों की भिक्षा से गुजर-बसर करने लगा। लोगों ने उसे 'साँईबाबा' के नाम से पुकारा। उसकी दी जड़ी-बूटियों व अंगारे से लोग भले-चंगे होने लगे। इससे लोगों का विश्वास बाबा में बढ़ता गया और साँईबाबा का जस आहिस्ता-आहिस्ता दुनियाभर में फैल गया, जो आज लोगों की जाग्रत श्रद्धा का केंद्र है। साँईबाबा ने अपनी जिंदगी में समाज को दो अहम संदेश दिए हैं- 'सबका मालिक एक' और 'श्रद्धा और सबूरी'। साँईबाबा के इर्द-गिर्द के तमाम चमत्कारों से परे केवल उनके संदेशों पर ही गौर करें तो पाएँगे कि बाबा के कार्य और संदेश जनकल्याणकारी साबित हुए हैं।इन संदेशों ने केवल कथनी में ही नहीं वरन बिलावास्ता (सीधे) कृति व व्यवहार से सारे समाज को अपना कायल बनाया है। फकीर के भेष में मस्जिद में रहने वाले साँई की बोली भी उर्दू मिश्रित थी। वे हमेशा 'अल्ला मालिक सबका भला करेगा' कहते थे, लेकिन जिस मस्जिद में उनका निवास था, उसे आपने 'द्वारकामाई' कहकर पुकारा। आपका आचार धर्म हिन्दू पद्धति का था। बावजूद इसके बाबा ने अपने जात-धर्म की थाह कभी किसी को लगने न दी। हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही ने बाबा को अपना माना। अपनी इस कृति से आपने सर्वधर्म समभाव और सहअस्तित्व का मार्ग सामने रखा। 'सबका मालिक एक' यह संदेश उनके व्यवहार का ही नतीजा कहा जा सकता है। बाबा के भक्तों में सभी जाति-धर्म-पंथ के लोग शामिल हैं। जहाँ हिन्दू बाबा के चरणों में हार-फूल चढ़ाते, समाधि पर दूब रख अभिषेक करते हैं, वहीं मुस्लिम बाबा की समाधि पर चादर चढ़ा सब्जा चढ़ाते हैं। कुल मिलाकर बाबा की शिर्डी सर्वधर्म समभाव के धार्मिक सहअस्तित्व का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन यहाँ आने वाले भक्त तो इन सबके परे केवल मन में उनके प्रति श्रद्धा और विश्वास के चलते खिंचे चले आते हैं।
जिनके मन में आध्यात्मिक शांति की चाह के साथ सुख की कामना नजर आती है, वह हमेशा से इनसान के मन में रही है। गत ढाई-तीन दशक से साँईबाबा के प्रति लोगों की आस्था में निरंतर इजाफा हो रहा है। यही वजह है कि साँईबाबा उत्सव में शामिल होने अमीर-गरीब व मध्यम वर्ग तथा सभी जाति-धर्म के भक्त बड़ी तादाद में आते हैं। इनसान अपनी श्रद्धा को हमेशा निजी सुख-दुःख से जोड़कर देखता आया है। आज के बदलते आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संक्रमण के दौर में अपने इर्द-गिर्द की अस्थिरता, अनिश्चितता के बीच जिंदगी की रेलमपेल के माहौल में नए मौके सामने आ रहे हैं। ऐसे हालात में भक्त दरअसल कुछ हकबकाहट में साँईबाबा के प्रति श्रद्धा की महीन डोर को कसकर थाम शिर्डी आता है, जहाँ उसके तमाम सवालों के जवाब मिलते हैं।साँईबाबा के बताए 'श्रद्धा और सबूरी' के इन शब्दों का इस्तेमाल कई भक्त उनका आशीर्वाद पाने के लिए भी करते हैं। जैसे किसी को कोई नया काम हाथ में लेना हो तो वह 'श्रद्धा', 'सबूरी', 'हाँ' या 'नहीं' ऐसी चार चिट्ठियाँ तैयार कर साँईबाबा के सम्मुख रखता है और श्रद्धापूर्वक उसमें से एक चिट्ठी खोलता है। यदि उसमें 'हाँ' है तो बाबा का आशीर्वाद मान लेता है और यदि जवाब 'नहीं' मिलता है तो बाबा का इनकार मान नए काम का इरादा छोड़ देता है।यदि चिट्ठी का जवाब 'श्रद्धा' है तो बाबा में श्रद्धा रख काम आगे शुरू किया जाता है, लेकिन यदि जवाब 'सबूरी' हो तो थोड़ा संयम रखें, ऐसा अर्थ निकाला जाता है। बाबा का आशीर्वाद पाने वाले ऐसे कई भक्त शिर्डी में मिल जाएँगे।