गुरुवार, 5 दिसंबर 2024
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Written By WD

संन्यास क्या है? आइए समझें उसके मूल भाव को

संन्यास क्या है? आइए समझें उसके मूल भाव को - sanyas
-डॉ. रामकृष्ण सिंगी
 
संन्यास यह शब्द एक विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो गया है, जो चिंतनशील लोगों के मन में खिन्नता का सहज भाव पैदा करता है। दीर्घकाल से यह शब्द अकर्मण्य लोगों की निष्क्रियता, निठल्लापन, पलायन, गैरजिम्मेदार जीवन-यापन, परावलंबन, पाखंड का प्रतीक बनकर रह गया है।

वास्तव में, संन्यास का सही भाव है तटस्थता, निवृत्ति, निस्संगता, निर्लिप्तता, अनासक्ति, अलगाव। इस भाव का सार्थक व सप्रयास तथा सजग प्रयोग तनावमुक्ति लाता है, मानसिक उद्विग्नता के ताप को शमन करने का साधन बनता है और दैनिक जीवन की परेशानियां सहन करने की शक्ति प्रदान करता है। पर इसे समझना उस भाव में होगा, जैसा कि गीता में इसे समझाया गया है। आइए, उस भाव को समझें-

गीता के पांचवें अध्याय का तो शीर्षक ही है- 'कर्म संन्यास योग'। कर्म मुख्यत: एक शारीरिक क्रिया है जिसका आशय है- कार्यशीलता, सक्रियता, रचनात्मकता, उद्योग, उद्यमशीलता या प्रवृत्ति। 'संन्यास' का अंतर्निहित भाव है- निवृत्ति, अलगाव, चेष्टाहीन, तटस्थता। गीता के इस अध्याय में जो दर्शन दिया गया है, वह इन दो विपरीत धारणाओं के बीच उपयोगी सामंजस्य स्थापित करता है। यही नहीं, वह तो सक्रियता अथवा कर्म-व्यस्तता की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाले तनावों से मुक्ति की युक्ति भी सुझाता है। संक्षेप में, तर्क की वह धारा इस प्रकार है-

आपको निरंतर कर्मरत रहना है, क्योंकि जीवन-निर्वाह और संसार-चक्र के चलते रहने के लिए यह अनिवार्य है। यही नहीं, कर्म भी भरसक एकाग्रता, निष्ठा, कुशलता, तन्मयता से करते रहना है, क्योंकि वही 'कर्मयोग' है। 'योग: कर्मसु कौशलम्।' कर्म सदा उद्देश्यपूर्ण होता है, निर्धारित लक्ष्य लेकर किया जाता है और उस लक्ष्य/ उद्देश्य को प्राप्त कर लेने की स्वाभाविक कामना रहती है। सही भी है। उद्देश्य प्रेरित होकर कर्म किया है तो परिणाम भी अनुकूल चाहिए।
 
बस यहीं कभी-कभी उस तटस्थता के भाव की जरूरत पड़ जाती है, जो प्रतिकूलता या असफलता उत्पन्न होने की स्थिति में धैर्य दे, मन की स्थिरता बनाए रखने सहायक हो और हमें उद्विग्न होने से बचाए। इसके लिए सीख दी गई है कि मन को ऐसे प्रशिक्षित करना है कि अपने वश से परे परिस्थितियों से उत्पन्न में असफलता में भी वह समभाव रख सके। यह 'कर्म-संन्यास' की भाव धारा है।
 
भाव यह हो कि हमने अपनी ओर से प्रयत्न या चेष्टा में कोई कसर नहीं छोड़ी। परिणाम जो भी हुआ, हमें स्वीकार है। 'मां फलेषु कदाचन्'- यानी फल पर तेरा वश नहीं है।
 
यह तो हुई क्रियाशील लोगों की बात। अपना जीवन जी चुके बुजुर्ग या वयोवृद्ध जन मानसिक संन्यास यानी निर्लिप्तता, निवृत्ति, अलगाव का जितना अधिक भाव धारण कर सकेंगे, उतना ही उनके व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक हित में होगा। यही वानप्रस्‍थ आश्रम में प्रवेश का सही मार्ग है।