“नारदमुनि शब्द का उपयोग अज्ञानी लोग हमेशा से ही इधर की उधर लगाई-बुझाई करने वाले चरित्र धारित लोगों के लिए करते हैं। उन्हें यह जानना बेहद जरुरी है कि आखिर वे नारद जी के बारे में समझते कितना हैं? आजकल धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में नारद जी का जैसा चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षि की महानता के सामने एकदम बौना बल्कि रोम मात्र भी नहीं है। नारद जी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह हमारे लिए शर्मनाक ही नहीं वरन यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। नारद जी का उपहास उड़ाने वाले, श्रीहरि के इन अंशावतार की अवमानना के दोषी है। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारद जी उनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारद जी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं।
हमेशा नारद जी को हमने “नारायण...नारायण...” नाम जपते पाया क्योंकि -
नारायणपरो मोक्षो नारायणपरा गतिः नारायणपरो धर्मो नारायणपरः ऋतुः ॥
मोक्ष की पराकाष्ठा नारायण ही है। सर्वोत्तम गति श्री नारायण ही हैं। धर्म के परम लक्ष्य नारायण ही हैं और यज्ञ भी नारायण की ही प्रसन्नता के लिए किया जाता है।
-हरिवंशपुराण (भविष्यपर्व, 33।37)
'नारायण' का अभिप्राय है, ब्रह्म का वह स्वरूप जो नर-प्रकृति का अनुरंजनकारी हो।
-रामचन्द्र शुक्ल (सूरदास, पृ० 33)
कहा जाता है-नार का अर्थ होता है जल और द का मतलब दान। कहा जाता है कि ये सभी को जलदान, ज्ञानदान और तर्पण करने में मदद करते थे। यही कारण है कि वे नारद कहलाए। भगवान विष्णु के परम भक्त देवर्षि नारद को अमरत्व का वरदान प्राप्त है। धर्म के प्रचार प्रसार लोक कल्याण हेतु सदैव प्रतिबद्ध रहने वाले देवर्षि नारद जी की तुलना वर्तमान पत्रकारों से करना बेमानी होगी। उनकी भूमिका का मेल कहीं से कहीं तक नारद जी के चरित्र को छू कर भी नहीं जाता।
क्योंकि -
श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के 26वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है-देवर्षीणाम् च नारद: अर्थात् - देवर्षियों में मैं नारद हूं।
महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है-देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों (अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानों की शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबल से समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं।
आदि पत्रकार संचार शास्त्र के जनक एवं नारदभक्ति सूत्र के रचयिता, ब्रम्हा जी के मानस पुत्र देवर्षि नारद को हम पत्रकारिता के आराध्य के रूप में भी याद करते हैं। पर विचारणीय विषय है कि वर्तमान पत्रकारिता में क्या वे सारे लोकहित, लोककल्याण के गुण अब भी विराजमान माने जाएंगे? उनकी वीणा से इस की-बोर्ड की, ब्रह्मलोक से इस पृथ्वीलोक की, उनके माता-पिता ब्रह्मा-सरस्वती से आज के पालकों की, उनके भाई-बहन सनकादी ऋषि और दक्ष प्रजापति की आज के साथियों से तुलना की जा सकती है?
बस एक चीज है, उनकी सवारी “बादल” जो मायावी था और देखने सुनने की शक्ति रखता था। वही मायावी “बादल” आज सब पृथ्वीलोक वासियों के हाथों में मायावी जाल ले कर दिलो-दिमाग पर कब्ज़ा कर बैठा है। जाने अनजाने बिना तारों के इस जाल ने हमें अपने वास्तविक ज्ञान और चरित्रों को जानने में भ्रम का धुंध भर रखा है। हम अपने ही मूल्यों से दूर और जड़ों से कटते जा रहे हैं और दोषों न सिर्फ ज्ञानी पुरुष, देवी-देवताओं के गलत चरित्रचित्रण से ढंकने का निर्लज्ज प्रयास कर रहे बल्कि खुद के धर्म का खुद ही ह्रास, विक्षिप्तिकरण, हास्यास्पद तरीके से प्रस्तुतिकरण के पाप के भागी भी बन रहे।
देवर्षि, ब्रह्मानंद, सरस्वतिसुत, वीणाधर जैसे कई अनंत नामों से स्मरण किये जाने वाले भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य, मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुंचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि के गुणों को समझ, आत्मसात कर जीवन की सार्थकता को लोकहित और लोक कल्याण की पत्रकारिता के नए आयाम की ओर मोड़ चलें....