गुरुवार, 5 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. धर्म-दर्शन
  3. धार्मिक आलेख
  4. Hijab and Ghunghat
Last Updated : मंगलवार, 15 मार्च 2022 (18:29 IST)

महिलाएं और धार्मिक मान्यताएं, हिजाब से लेकर घूंघट तक

महिलाएं और धार्मिक मान्यताएं, हिजाब से लेकर घूंघट तक | Hijab and Ghunghat
hijab veil
History of Hijab And Ghunghat Pratha:किसी भी धर्म की उत्पत्ति, परंपरा, रीति-रिवाज, खान-पान और पहनावे में वहां के क्लाइमेट का भी विशेष योगदान रहता है। आज हम जो धार्मिक मान्यताएं, रीति-रिवाज आदि देखते हैं, वह धर्म की स्थापना या उत्पत्ति के प्रारंभिक काल में ऐसी नहीं थीं। कालांतर में धर्म के ठेकेदारों ने इसमें तब्दीलियां कीं और इसे लोगों पर थोपा। हिजाब या घूंघट किस तरह से समाज में धार्मिक पहचान का कारण बना, इसका इतिहास भी दिलचस्प माना जाता है।
 
 
प्रचीन सभ्यताओं की परंपरा अपनाई धर्मों ने : सिर ढंकने की परंपरा हिन्दू, यहूदी, जैन, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम और सिख धर्म के पहले से ही रही है। विश्व की प्राचीन सभ्यताओं के दौर में भी सिर ढंकने की परंपरा का उल्लेख मिलता है, जैसे बेबीलोनिया, इजिप्ट (मिस्र), सुमेरियन, असीरिया, सिंधु घाटी, मेसोपोटामिया आदि अनेक प्राचीन सभ्यताओं की प्राप्त मूर्तियों और मुद्राओं में हमने महिलाएं ही नहीं, पुरुषों को भी सिर और कान को ढंके हुए देखा है। प्राचीनकाल से ही सिर ढंकने को सम्मान, सुरक्षा और रुतबे से जोड़ा जाता रहा है। ओढ़नी, चुनरी, हिजाब, बुर्का, पगड़ी, साफा, मुकुट, जरीदार टोपी, टोपी, किप्पा या हुडी (‍यहूदी टोपी) आदि सभी सभ्यताओं के दौर से निकलकर आज अपने नए रूप में प्रचलित हैं।
 
समय और स्थान के साथ बदलती रहीं परंपराएं : किसी भी धर्म की परंपरा समय के साथ बदलती रहती है और इस पर स्थान विशेष का प्रभाव भी रहता है। उदाहरण के तौर पर जब बौद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म ने अपने उत्पत्ति स्थान से निकलकर दूसरे देशों में विस्तार किया तो वहां के लोगों ने उस धर्म को स्थानीय संस्कृति में ढालकर अपने लायक बनाया, जैसे अफगानी मुस्लिम जालीदार टोपी कम ही पहनते हैं और वे अफगानी टोपी पहनते हैं। भारतीय मुस्लिम महिलाएं नकाब, चादर या चिमार नहीं पहनतीं, इसका प्रचलन अफ्रीका की मुस्लिम महिलाओं में है। 
 
यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाज में पर्दा प्रथा : हिजाब पहनने का प्रचलन इस्लाम में ही नहीं, ईसाई और यहूदियों में भी है, जो कि इस्लाम के पूर्व के धर्म हैं। ईसाई धर्म में हेडस्कार्फ का प्रचलन उसके प्रारंभिक काल से ही चला आ रहा है। ईसा मसीह की मां मरियम और अन्य ननों की सिर ढंकी हुई तस्वीरों से इसे समझा जा सकता है। ईसाई धर्म के पूर्व यहूदी धर्म में यह प्रचलन रहा है। तीनों ही धर्मों के उत्पत्ति काल के पूर्व अरब की संस्कृति में सिर ढंकने की परंपरा रही है। खासकर हम इजिप्ट और मेसोपोटोमिया की सभ्यता में इसे देख सकते हैं। पश्‍चिमी धर्म में कुछ धर्म के लोग अपने धार्मिक स्थलों पर सिर ढंककर जाते हैं और कुछ यदि सिर ढंका हो तो सिर की टोपी या हेट उतारकर प्रार्थना करते हैं। हालांकि मध्यकाल में सिर ढंकना एक सभ्य, अमीर और कुलीन समाज की निशानी माना जाता था। ऐसा भारत में भी प्रचलित था। निचले तबके की महिलाओं को सिर ढंकने की इजाजत नहीं थी।
 
 
हिन्दू महिलाओं में पर्दा प्रथा : वैदिक काल की महिलाएं सिर्फ यज्ञ या पूजा करते वक्त ही सिर ढंकती थीं। रामायण या महाभारतकाल की महिलाओं में भी पर्दा प्रथा या सिर ढंकने की परंपरा नहीं थी। उस काल की महिलाएं 16 श्रृंगार करती थीं जिसमें ओढ़नी या घूंघट नहीं होता था। बौद्धकाल में भी महिलाओं में पर्दा प्रथा का कोई जिक्र नहीं मिलता है। महिलाएं तभी सिर ढंकती थीं जबकि उन्हें किसी काम से अपने घर-परिवार के किसी बुजुर्ग, ससुर, जेठ या सम्मानित व्यक्ति के समक्ष आना होता था। आज भी यह प्रथा है। भारत में महिलाओं की सामाजिक गतिशीलता और व्यवहार को प्रतिबंधित करने वाली कई प्रथाएं थीं, परंतु कहा जाता है कि भारत में इस्लाम के आगमन के बाद इन प्रथाओं को जबरन थोपा जाने लगा। इसी के चलते ओढ़नी या चुनरी को घूंघट प्रथा में बदलते देर नहीं लगी। हालांकि सिर ढंकने की परंपरा भारत में पहले सिर्फ कुलीन समुदाय की महिलाओं में ही थी।
 
 
परंपरा पर क्लाइमेट का असर : ऐसा भी कहा जाता है कि नकाब या बुर्का पहनना रेगिस्तानी क्षेत्रों में सबसे पहले प्रचलित हुआ। तर्क यह दिया जाता रहा है कि वहां रेतीली धूल से बचने के लिए महिलाएं पहले शायला या चादर जैसी चुनरी पहनती थीं और बाद में इसने नकाब, अल अमीर और बुर्के का रूप लिया। महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी गुलूबंद, मफलर या स्कार्फ जैसा एक कपड़ा रखते थे जिससे गले के साथ ही कान, नाक, मुंह भी ढंक लिया जाता था। इससे कान और नाक में रेत के कण या धूल नहीं भराते हैं। अक्सर यह गर्मी से बचने के लिए भी होता था।
 
 
गर्म रेगिस्तान में भीषण गर्मी और धूलभरी हवाओं से अपने शरीर को बचाने के लिए अरब देशों की महिलाएं ही नहीं बच्चे, बूढ़े और सभी पुरुष शरीर को ढंककर रखते हैं। पुरुष भी लबादा जैसी पोशाक पहनते हैं जिसे अबाया कहते हैं। इससे रेगिस्तान की धूल और रेत कान, नाक और बालों में नहीं जाती है। यह धूल कान-नाक और आंखों में घुस जाती है तो मुंह के साथ ही बाल भी धोना पड़ते हैं, जो कि इसलिए बार-बार संभव नहीं हो सकता था, क्योंकि वहां पानी की भारी कमी है इसलिए शरीर को ढंककर रखने में ही बचाव है। अरब देशों में धूल, आंधी, ताप या अग्नि से बचने के उपाय किए जाते हैं। इसीलिए वहां पर यज्ञ जैसी या होली के त्योहार जैसी प्रथा की उम्मीद नहीं की जा सकती। भारत में हिन्दूजन जो भी त्योहार और व्रत का पालन करते हैं, उनमें से अधिकांश का संबंध मौसम और ऋतु परिवर्तन से ही है।
हिजाब : इसका उपयोग मैसोपोटामिया सभ्‍यता के लोग धूल और तेज धूप से बचने के लिए करते थे। हालांकि बाद में इसे एक अलग पहचान बनाने के लिए अब्राहम धर्म के अनुयायियों ने महिलाओं, बच्चियों और विधवाओं के लिए अनिवार्य कर दिया। इसे धार्मिक सम्‍मान के प्रतीक के तौर पर पहचाना जाने लगा। गरीब और वेश्याओं के लिए यह प्रतिबंधित था। धीरे-धीरे यह धार्मिक ड्रेस कोड में शामिल हो गया। कालांतर में यह ईसाई महिलाओं में ननों तक ही सिमटकर रह गया।
 
 
फैशन के इतिहास की जानकारी रखने वाली न्‍यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की हिस्‍टोरियन नैंसी डेयल के अनुसार धीरे-धीरे हिजाब को सम्‍मानित महिलाओं के पहनावे के तौर पहचान मिली। उस दौर में इसका प्रचार उन क्षेत्रों में अधिक था, जहां ईसाई और इसराइली मूल के लोग रहते थे। ये अपने बालों को ढंककर रखते थे और इसका उल्लेख पवित्र ग्रंथों में भी मिलता है।
 
 
इसी तरह गेह शिराजी ने अपनी किताब 'द वेल अनइविल्‍ड: द हिजाब इन मॉडर्न कल्‍चर' में लिखा है कि सऊदी अरब में इस्‍लाम से पहले ही महिलाओं में सिर ढंकना आम हो चुका था। इसका कारण वहां की जलवायु थी। तेज गर्मी और धूल से बचने के लिए महिलाएं इसका उपयोग करने लगी थीं। 
 
घूंघट : भारत के प्राचीन मंदिरों के स्तंभों पर उत्कीर्ण गंधर्व, देव या यक्षों की मूर्तियों में किसी भी महिला के सिर या चेहरे को आप घूंघट की तरह ढंका हुआ नहीं देखेंगे। वैदिक काल की महिला ऋषिका मैत्रेयी, गार्गी, लीलावती, गौतमी, विश्वआरा, अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, सिकता, रत्नावली आदि महिलाएं पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ करती थीं तब उनका सिर ढंका नहीं होता था। वैदिक काल के साथ ही रामायण, महाभारत और बौद्ध काल में भी महिलाओं के लिए सिर ढंकने की कोई बाध्‍यता नहीं थी। भारत में साड़ी पहनने का प्रचलन प्राचीनकाल से ही रहा है। उसी से सिर ढंका जाता है, चेहरा नहीं। इसे आंचल कहते हैं। इसी आंचल को मध्यकाल में घूंघट में बदल दिया गया।
 
प्राचीन भारत में उत्तरीय (कंधे को ढंकने का वस्त्र), अधिकंठ-पट (गला और उसके नीचे ढंकने का वस्त्र, मफलर), शिरोवस्त्र (सर ढंकने का छोटा वस्त्र, मुकुट, पगड़ी या टोपी) और मुख-पट (चेहरा ढंकने का वस्त्र) आदि इन सभी का प्रचलन प्राचीन भारत में था जिसे पुरुष और महिलाएं दोनों ही धारण करते थे। मुख-पट का उपयोग धूल-धूप से बचने के लिए किया जाता था। उस काल के कई लोग इसका उपयोग जोखिम के समय खुद की पहचान को छुपाने के लिए भी करते थे।
 
कैसे शुरू हुई घूंघट प्रथा : घूंघट प्रथा की शुरुआत को मध्यकाल में इस्लाम के भारत आगमन से जोड़कर देखा जाता है और खासकर इसका प्रभाव हम राजस्थान, निमाड़ और मालवा में देखते हैं। उत्तर भारत में साड़ी के साथ ही सलवार-कुर्ती और चुनरी का कालांतर में प्रचलन बाद में प्रारंभ हुआ। इन प्रथाओं का धर्म में कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
 
 
'घूंघट' शब्द का प्रचलन बाद में हुआ। भारत में संस्कारों की एक लंबी परंपरा रही है। 'संस्कार' का अर्थ रीति-रिवाज या प्रथा नहीं बल्कि यह सभ्य होने की निशानी माना जाता रहा है। जैसे जब कोई व्यक्ति अपने से बड़े या संतों के चरण स्पर्श करते हैं तो वे बड़े या संत सिर पर हाथ रखकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं। इसी तरह महिलाओं के 16 श्रृंगारों में 1 श्रृंगार सिर को अच्छे से सजाना भी होता है।
 
6ठी शताब्दी में शुद्रक द्वारा रचित नाटक 'मृच्छकटिका' में बताया गया है कि महिलाएं सुहाग-चिह्न की तरह अवगुंठन धारण करती थीं। अवगुंठन एक लंबा, अलंकृत वस्त्र होता था, जो सिर से लेकर घुटनों तक एक चुनरी की तरह ओढ़ा जाता था। इसे आप बड़ी-सी सुंदर चुनरी कह सकते हैं। इसी प्रकार के और भी तरह के वस्त्र भारत में प्रचलित थे, जो महिला के सौंदर्य को बढ़ाने के साथ ही दूसरे के सम्मान को बढ़ाते थे।
 
 
अवगुंठन श्रृंगार का एक हिस्सा था। यह महिलाओं के सम्मान या लज्जा की रक्षा के लिए नहीं बल्कि बड़ों के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए धारण किया जाता था। इसके अलावा लड़कियों की सगाई हो जाती थी तो वे भी अवगुंठन धारण करती थीं। कुछ इसी तरह पुरुष पगड़ी धारण करता था। यह संस्कारों का एक हिस्सा था। इसे प्रमुख त्योहारों पर भी धारण किया जाता था। यही अवगुंठन आगे चलकर घूंघट में बदल गया।
 
सिर ढंकने के अन्य पहलू : सिर को ढंकने से धूल, तेज धूप या ठंडी गर्म हवाओं से बचाया जा सकता है। सिर ढंककर रखने से गंजापन, ख़ुश्की, फ्रास (डैंड्रफ), बाल-झड़ना आदि बालों के रोग तथा स्किन एलर्जी, नकसीर फूटना, दस्त-मरोड़ आदि अन्य रोगों से बचा जा सकता है। वर्तमान में कोरोना काल के चलते हमने यह जाना है कि मास्क लगाने और सिर ढंकने के क्या फायदे हैं? खाना पकाने वाले बावर्ची या परोसने वाले वेटर्स अक्सर सिर ढंककर ही यह काम करते हैं। सिर, कान या चेहरा ढंकना बुरा नहीं है, परंतु जब इसे धार्मिक पहनावा समझकर हर मौसम में या बगैर किसी वैज्ञानिक कारण के ढंका जाता है तो यह एक कू-प्रथा ही मानी जाएगी।