धर्मों की दोहरी बातें, सच या कुछ और?
इस संसार में ऐसे कुछ ही लोग हुए हैं, जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते और ऐसे तो असंख्य लोग हैं, जो बिना किसी प्रमाण के ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं। शायद ही ऐसे लोग होंगे, जो यह कहें कि मुझे नहीं मालूम कि ईश्वर है या नहीं। जिस दिन मुझे उसके होने या नहीं होने का पता चलेगा, मैं खुद आपको बता दूंगा। दुनिया में ये 3 तरह के विश्वास हो सकते हैं।
यह सही है कि 'विश्वास' की ताकत होती है- लेकिन कौन से विश्वास की ताकत? ईश्वर पर विश्वास, कर्म पर विश्वास, धर्म पर विश्वास या देश पर? दूसरों पर, अपनों पर या खुद पर विश्वास? सवाल यह भी उठता है कि झूठे विश्वासों की भी ताकत होती है क्या?
ओशो कहते हैं कि श्रद्धा और विश्वास बांधते हैं लेकिन संदेह मुक्त करता है। जे. कृष्णमूर्ति भी कुछ इसी तरह की बातें करते थे। संदेह से उनका अर्थ अविश्वास नहीं है, क्योंकि अविश्वास तो विश्वास का ही नकारात्मक रूप है। न विश्वास, न अविश्वास- वरन संदेह। यही वैज्ञानिक बुद्धि का प्रमाण है। दुनिया के तमाम धर्म 'विश्वास' सिखाते हैं, लेकिन वे जो विश्वास सिखाते हैं उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठाता। धर्मों के विश्वास और धारणाओं पर सभी आंखें बंद करके मानते रहते हैं। यदि कोई इस पर सवाल उठाता भी है तो उसे धर्म-विरोधी या नास्तिक मान लिया जाता है। ईशनिंदा का खतरा पैदा हो जाता है।
दुनिया में व्यक्ति स्वतंत्रता खत्म होती जा रही है, खासकर एशिया में व्यक्ति का जीना अब मुश्किल है। जीने का अधिकार उसे है, जो धर्म पर सवाल खड़े नहीं करे और उन्हें चुपचाप मानता चले, फिर चाहे वह कितने ही गलत, अवैज्ञानिक और दकियानूसी ही क्यों न हो। लोकतंत्र के लिए धर्म लगातर खतरा पैदा करता जा रहा है। यह गीत कितना झूठ लगता है कि 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना?'
हाल ही में रूस ने धर्म पर बोलने या धर्म का विरोध करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। एक दिन ऐसा भी था जबकि रूस और चीन में धर्म पर प्रतिबंध था, लेकिन आज परिस्थितियां बदल गई हैं। धर्म से पंगा लेकर उन्होंने देख लिया है।
अगले पन्ने पर सुकरात की मौत का किस्सा...
सुकरात युवाओं को संदेह की शिक्षा देते थे जिसके चलते धार्मिक समूह और राजा ने उनके खिलाफ मौत का फतवा जारी किया। उन्हें जब विष का प्याला पीने के लिए दिया गया तो उनके पास आस्तिक और नास्तिक दोनों ही प्रकार के मित्र मौजूद थे।पहले उनके नास्तिक मित्रों ने पूछा, ‘क्या आपको मौत का भय नहीं है?’सुकरात ने मुस्कराते हुए कहा, ‘इस समय मैं आप लोगों के ही मत और विश्वास के अनुसार निर्भय हूं। आप लोग कहते हैं कि आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है, तो फिर चिंता कैसी? आत्मा है ही नहीं। शरीर नश्वर है। इसे एक न एक दिन नष्ट होना ही है, तो फिर चिंता का प्रश्न ही नहीं उठता। विषपान के बाद मैं मर जाऊंगा, तो कहानी हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी।’यह सुनकर फिर सुकरात के आस्तिक मित्रों ने भी वही सवाल किया। सुकरात ने उन्हें कहा, ‘आप लोगों के अनुसार आत्मा अमर है। विषपान के बाद यदि मैं मर गया, तो भी आत्मा तो मरेगी नहीं। फिर डर किस बात का?'इस प्रकार सुकरात ने अपने अंतिम समय में अपने आस्तिक और नास्तिक दोनों प्रकार के मित्रों को संतुष्ट किया।
अगले पन्ने पर धर्मों के दोहरे विश्वास कितने घातक पढ़ें...
यहां 'विश्वास' की कुछ ऐसी बातें जो धर्म सिखाता है या समाज- यह हम नहीं कह सकते, लेकिन तार्किक रूप से यह कितनी सही है इस पर विचार किया जाना चाहिए।1.
पहला विश्वास : जो करता है, ईश्वर करता है और ईश्वर की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिल सकता।2.
दूसरा विश्वास : जैसा करोगे वैसा भरोगे। इस व्यक्ति ने बुरे कर्म किए होंगे तभी तो यह दुख में है और पीड़ा भोग रहा है।* व्यक्ति के जीवन में हिंसा, दुख, विरोधाभास और समस्याएं इसलिए हैं कि वह इन दोनों ही 'बिलीव सिस्टम' को मानता है लेकिन उन्हें जानता नहीं। ऐसे कई सिद्धांत और विश्वास हैं जिसकी वजह से व्यक्ति कहीं भी नहीं पहुंचने की स्थिति में रहता है। दुख और सुख समान रूप से उसके जीवन में चलते रहते हैं और कभी वह ईश्वर को दोष देता है तो कभी कर्म को।सवाल जरूरी : अब सवाल यह उठता है कि यदि ईश्वर की मर्जी से पत्ता भी नहीं हिलता तो उस व्यक्ति को क्यों दोष दें जिसने बुरे कर्म किए हैं। किसी भी प्रकार का अपराध हो रहा है तो इसमें ईश्वर की मर्जी ही समझकर अपराधी को छोड़ देना चाहिए? यह है धर्मों का अंतरविरोध (contradiction)।एक तरफ आप कहते हैं कि जो भी होता है वह ईश्वर की मर्जी से और दूसरी तरफ आप कहते हैं कि आदमी का भाग्य उसके कर्म तय करते हैं। अच्छा हुआ तो ईश्वर की मर्जी और बुरा हुआ तो कर्म बुरे होंगे। लड़की हुई तो ईश्वर की मर्जी और लड़का हुआ तो अच्छे कर्म किए होंगे। कई लोगों को हमने यह कहते सुना है कि बुरे कर्म किए होंगे तभी तो 3-3 लड़कियां हो गईं...।धर्मों के विश्वासों के कारण ही समाज में स्त्री, प्रकृति, व्यक्ति स्वतंत्रता, पर्यावरण और पशुओं के खिलाफ घातक सोच का निर्माण होता रहा है। इस सोच के कारण ही व्यक्ति का जहां व्यक्तिगत जीवन प्रभावित होता है वहीं उसका सामाजिक जीवन भी भय से भरा गुजरता है।धर्म के विश्वास-विचार आपको झूठी तसल्ली दे सकते हैं, लेकिन समाधान और सकारात्मक ज्ञान नहीं। आपका मस्तिष्क इन विश्वासों के कारण 'नकारात्मक ऊर्जा' और भयभीत करने वाले 'धार्मिक संस्कारों' से भर जाता है। आप इनसे जीवनभर मुक्त नहीं हो सकते।
क्यों ये दोनों विरोधाभासी 'विश्वास' आज तक प्रचलन में हैं...
प्राचीन समय में जब व्यक्ति के साथ कुछ गलत होता था तो उसे तसल्ली देने के लिए कह दिया जाता था कि फिकर मत करो यह ईश्वर की मर्जी है। हो सकता है कि ईश्वर तुम्हारी परीक्षा ले रहा हो, तुम्हें परख रहा हो या इस दुख से ही तुम्हारा कोई बड़ा भला होने वाला है।लेकिन कहीं पर जब व्यक्ति तार्किक रूप से सवाल उठाता था तो कुछ धार्मिक विद्वान (?) उसकी तसल्ली के लिए कह देते थे कि तुम्हारे कर्म खराब थे, अब कर्म सुधारो। यदि कर्म खराब नहीं है तो तुम्हारे ग्रह-नक्षत्र खराब होंगे। ग्रहों की शांति के लिए उपाय करने होंगे तो सब ठीक हो जाएगा। दरअसल, यह उस काल की मजबूरी थी आदमी को नैतिक बनाए रखने की, इसीलिए उसने ईश्वर, कर्म और ग्रह-नक्षत्रों को व्यक्ति का भाग्य-निर्माता बनाया। इन्हें ही न्याय करने वाला बताया गया। जब किसी के साथ सब तरफ से अन्याय होता था और न्याय मिलने की आशा समाप्त हो जाती थी तो कह दिया जाता था कि ठीक है अभी ऊपर वाले की अदालत में फैसला होना बाकी है। क्या सचमुच ऊपर कोई अदालत है?
अगले पन्ने पर क्या ईश्वर की मर्जी चलती है...
यदि आपके जीवन में कोई दुख है तो इसमें ईश्वर की मर्जी नहीं है और ईश्वर आपको सुख देने वाला भी नहीं है। लोग यदि दानवी सोच रखते हैं, दानवी कर्म करते हैं तो वे कैसे सुखी रह सकते हैं और उनके आसपास दानवी आत्माएं ही विचरण करेंगी। कुछ लोग मिश्रित सोच के धनी हैं तो फिर उनका जीवन भी वैसा ही चलता रहता है।तभी तो कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि यदि कोई अच्छे कर्म करता है तो देवता उसके साथ हैं और बुरे कर्म करता है तो दानव। ...लेकिन यहां अधिकतर मानव अच्छे भी हैं और बुरे भी, इसका यह मतलब है कि उनके साथ कोई नहीं है और वे अकेले हैं तभी तो उनकी प्रार्थनाएं असफल सिद्ध होती हैं।ईश्वर पर अंधभक्ति की बातें पश्चिम के धर्मों से निकलीं। पूर्व के सभी धर्म कर्म के सिद्धांत को मानते हैं, लेकिन अब भारत में ये दोनों ही विश्वास एकसाथ अपना वजूद बना चुके हैं। पश्चिमी धर्म का ईश्वर लोगों को डराने वाला और उनको दंड देने वाला है जबकि पूर्व के धर्मग्रंथों के अनुसार ईश्वर दंडनायक नहीं है।यहूदी धर्म और उससे निकले धर्मों ने जनमानस में यह विश्वास प्रचारित किया कि ईश्वर की मर्जी ही चलती है, क्योंकि ईश्वर हमारा और इस जगत का निर्माता है। यदि आप ईश्वर की निंदा करोगे तो ईश्वर आपको दंडित करेगा। आखिरी दिन आपका फैसला होगा। एकेश्वरवाद को ईश्वर के डर के आधार पर खड़ा किया गया इसलिए उन धर्मों में 'ईश्वर' ही कर्ता-धर्ता है प्रकृति या मनुष्य नहीं, देवी या देवता नहीं। सभी ईश्वर के अधीन हैं। लेकिन यह तार्किक रूप से सही है क्या?गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति के कर्म और उसके विचार ही उसके भाग्य और भविष्य का निर्माण करते हैं। जिन लोगों के कर्म और विचार दृढ़ नहीं हैं वे सभी प्रकृति के अधीन रहकर अपना जीवन-यापन करते हैं उनके जीवन में सुख-दुख की घटनाएं चलती रहती हैं। ...सुख-दुख के लिए ईश्वर जिम्मेदार नहीं है।कृष्ण पूर्णत: कर्म और विचार को ही सब कुछ मानते हैं, ऐसा नहीं है। एक प्रसंग में वे अर्जुन से कहते हैं कि ईहलोक में विचरण कर रहीं देव-दानवी आत्माएं भी व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती हैं और कई तरह की प्राकृतिक घटनाएं भी अर्थात व्यक्ति खुद से और दूसरी गतिविधियों से संचालित होता रहता है। ब्रह्मांड के इस संपूर्ण खेल को समझने के लिए वेद, उपनिषद और गीता का अध्ययन किया जाना चाहिए।अंतत: कोई भी सिद्धांत, मान्यता और विश्वास को मानने से पहले उसकी जांच-परख कर लेना चाहिए कि वह तार्किक और वैज्ञानिक रूप से सही है या धर्म हमें बेवकूफ बना रहा है। जैसे ज्यादातर ज्योतिष और धर्म की धारणाएं विज्ञानसम्मत नहीं हैं और जिससे हम बेवकूफ ही बनते हैं।अंत में 'धर्मों पर पुनर्विचार' करने का दुस्साहस कौन कर सकता है? जब तक ईश्वर है तब तक धर्म रहेंगे और जब तक धर्म है लोकतंत्र और विज्ञान का कोई महत्व नहीं।
अंतिम पन्ने पर भारत में घटती ईश्वर पर आस्था...
भारत में ईश्वर को मानने वालों की तादाद में कमी दर्ज की गई है। ये चौंकाने वाले नतीजे आस्तिक और नास्तिकवाद के ताजा विश्व सूचकांक के सर्वे से सामने आए हैं।सर्वे के मुताबिक भारत में पिछले 7 साल में भगवान को मानने वालों की संख्या में 6 फीसदी की कमी आई है। इससे पहले 2005 के सर्वे में 87 फीसदी भारतीयों ने बताया था कि वे ईश्वर में विश्वास रखते हैं। साल 2013 में यह संख्या 81 फीसदी हो गई है।सर्वे के अनुसार, खुद को नास्तिक बताने वालों की संख्या में भी 1 फीसदी की गिरावट आई है। पहले 2005 में 4 फीसदी लोगों ने कहा था कि उन्हें भगवान पर भरोसा नहीं है। इस बार ऐसा 3 फीसदी लोगों ने कहा। दुनिया के बाकी हिस्सों में आस्तिक लोगों की संख्या में 9 फीसदी की गिरावट आई है, जबकि नास्तिकों की संख्या 3 फीसदी बढ़ी है।जहां भारत में भगवान पर से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है, वहीं पड़ोसी देश पाकिस्तान में खुद को धार्मिक बताने वालों की संख्या 6 फीसदी बढ़ गई है। पोप फ्रांसिस के देश अर्जेंटीना में खुद को धार्मिक कहने वालों की संख्या 8 फीसदी कम हुई है, वहीं खुद को धार्मिक बताने वालों की संख्या में दक्षिण अफ्रीका में 19, अमेरिका में 13, स्विट्जरलैंड और फ्रांस में 21-21 और वियतनाम में 23 फीसदी की गिरावट आई है।इस सर्वे में दुनियाभर के 57 देशों के 51 हजार 927 लोगों को शमिल किया गया। प्रत्येक देश में लगभग 1000 स्त्री-पुरुष से सवाल किए गए। सर्वे के मुताबिक चीन की आधी आबादी ने खुद को नास्तिक बताया और कहा कि वे ईश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं।