स्त्रियों का धर्म निर्वहन
पुरुष सत्तात्मक सोच की देन
धार्मिक तिथियों का जितना अधिक ज्ञान स्त्रियों को होता है उतना पुरुषों को नहीं। खाँटी देहाती अथवा घरेलू स्त्रियों से पूछा जाए तो वे मुँहजबानी गिना देंगी कि किस तिथि को कौन-सा व्रत, कौन-सा त्योहार पड़ेगा। उन्हें इस बात का भी सकल ज्ञान होता है कि किस तिथि को उपवास रखा जाता है तो किस तिथि को निर्जला व्रत। गौर से देखा जाए तो लगभग हर तिथि को कोई न कोई व्रत और उपवास पड़ता ही है। एकादशी, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी आदि-आदि। जो स्त्री जितना अधिक व्रत, उपवास रखती है, वह उतनी अधिक धार्मिक कहलाती है और सुगृहिणी के रूप में मान्यता प्राप्त करती है। यह विवरण पढ़ने और सुनने में विचित्र लगता है न! लेकिन यही तो हमारे भारतीय समाज का सच है। धर्म का निर्वहन करने में सभी जाति, धर्म की स्त्रियों का स्तर एक जैसा है। न उन्नीस, न बीस।किसी भी सभ्य समाज अथवा संस्कृति की अवस्था का सही आकलन करना है तो उस समाज में स्त्रियों की दशा को पहले जाँचना चाहिए। पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्रियों की स्थिति सदा एक-सी नहीं रही है। वैदिक युग में स्त्रियों को उच्च शिक्षा पाने का अधिकार था, वे याज्ञिक अनुष्ठानों में पुरुषों की भाँति सम्मिलित होती थीं। ऋग्वेद में देवताओं से जो प्रार्थना की गई हैं वे पति-पत्नी दोनों की ओर से है।
ऋग्वेद के अनुसार पत्नी को यज्ञ करने और अग्नि में आहुतियाँ देने का अधिकार था। अर्थवेद में कन्याओं का उपनयन संस्कार का उल्लेख है। ब्राह्मण ग्रंथों के काल में धार्मिक क्रियाओं में जटिलता आ गई थी जिससे धार्मिक क्रियाओं पर पुरुषों का वर्चस्व बढ़ गया। फिर भी कोई भी धार्मिक कार्य पत्नी के बिना पति नहीं कर सकता था। गुप्त काल में स्त्रियों के लिए उपवास, व्रत, दान, पूजा, तीर्थयात्रा आदि का विधान किया गया। स्त्रियों से वैदिक ज्ञान छुड़ा कर उपवास, व्रत पूजा आदि में ऐसी कथाओं का समावेश किया गया जो उन्हें सिर्फ अपने पति एवं परिवार की सेवा की शिक्षा देती थीं। यहीं से स्त्री की धार्मिकता समाज से कट कर परिवार की सीमा में सिमटने लगी। एक भी व्रत कथा ऐसी नहीं मिलती है जिसमें पति द्वारा पत्नी की जीवन रक्षा के लिए 'करवा चौथ', 'वट सावित्री' जैसा व्रत रखने का उल्लेख हो। पत्नी की रक्षा-सुरक्षा का दायित्व पति की लौकिक शक्ति पर निर्भर रहा। धार्मिकता को पुरुषवादी स्वरूप में ढाल दिया गया। किसी न किसी रूप में धर्म का निर्वहन स्त्रियों को करना होता है किंतु धर्म के सर्वोच्च गुरु का पदवी नहीं पा सकती है।